
'दे दी हमें आजादी बिना खड्ग बिना ढाल, साबरमती के संत तूने कर दिया कमाल...' 1954 में आई फिल्म 'जागृति' के गाने की ये लाइन किसी भारतीय ने ना सुनी हो, ऐसा लगभग असंभव है. भारत के राष्ट्रपिता महात्मा गांधी और स्वतंत्रता संग्राम में उनकी भूमिका का गुणगान करता ये गीत, वैसे तो फिल्म की कहानी के सन्दर्भ में ज्यादा सटीक अर्थ देता है.
लेकिन पॉलिटिकल चश्मे से देखें तो दशकों से इस गीत की एक प्रो-कांग्रेस छवि भी रही है क्योंकि आजादी के नायकों को अपना आइकॉन बनाने के मामले में इस पार्टी का दावा सीधा गांधी पर है. महात्मा गांधी के साथ-साथ पार्टी के एक और आइकॉन, भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू का नाम भी इस गीत में आता है:
फिर एक ऐसा समय भी आया जब देश की आजादी में अपनी और अपने नायकों की भूमिका को याद दिलाते रहने वाली पॉलिटिकल पार्टी पर ही, आजाद लोकतंत्र का दम घोंटने के आरोप लगे. प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की लगाई इमरजेंसी और उसी बीच नसबंदी जैसा फैसला, आज भी कांग्रेस की आलोचना का कारण बनता है.
इमरजेंसी हटने के बाद इस फैसले की आलोचना पर कोई चर्चा, 1978 में आई फिल्म 'नसबंदी' के बिना नहीं पूरी हो सकती. इस फिल्म में एक गाना था 'क्या मिल गया सरकार' जो पुरुषों की जबरन नसबंदी करवाने के फैसले पर तगड़ा व्यंग्य था. इस गाने की कुछ लाइनें देखें:
मन्ना डे और महेंद्र कपूर के गाए इस गाने की धुन बहुत थोड़े बहुत बदलावों के साथ लगभग 'दे दी हमें आजादी' वाली है. एक पार्टी की आलोचना के लिए, उस पार्टी से जोड़े जाने वाले सबसे आइकॉनिक गीत को ही आलोचना का हथियार बना देने का आईडिया किसका था जानते हैं? हिंदी फिल्मों में व्यंग्य के जीनियस कहे जाने वाले इंद्र सेन जौहर उर्फ आई. एस.जौहर का.
16 फरवरी 1920 को झेलम जिले के तलागंग शहर (अब पाकिस्तान में) में जन्मे इंद्र सेन जौहर 50s के दौर में फिल्मों में आए थे. एल. एल. बी. के साथ-साथ अर्थशास्त्र और राजनीति में एम. ए. करने वाले जौहर, अपने दौर में इंडस्ट्री के सबसे पढ़े-लिखे कलाकारों में से एक थे. बतौर एक्टर, राइटर, डायरेक्टर और प्रोड्यूसर जौहर ने करीब 60 फिल्मों में काम किया.
करियर की शुरुआत में उन्हें सबसे ज्यादा पॉपुलैरिटी दिलाई फिल्म 'नास्तिक' (1954) ने, जिसका गाना 'देख तेरे संसार की हालत क्या हो गई भगवान' शायद ही कभी भुलाया जा सके. इस फिल्म के राइटर आई. एस. जौहर ही थे. ये कहानी धर्म के ठेकेदारों की आलोचना करने वाली थी और बंटवारे के दौरान के सामाजिक-राजनीतिक हालातों को दिखा रही थी. और बंटवारे का दर्द तो जौहर ने खुद भी झेला था.
1947 में भारत के बंटवारे के वक्त वो अपने परिवार के साथ एक शादी अटेंड करने पटियाला आए हुए थे. दंगों की आग ऐसी भड़की कि वो फिर वापस लाहौर नहीं जा सके. परिवार को दिल्ली में छोड़कर उन्होंने कुछ दिन जालंधर में काम किया और फिर मुंबई आ गए. फिल्मों में दिलचस्पी उन्हें फिल्म इंडस्ट्री में खींच लाई और उन्होंने रूप किशोर शौरी की फिल्म 'एक थी लड़की' (1949) के लिए स्क्रिप्ट लिखी. इसी फिल्म से उन्हें एक्टिंग डेब्यू का भी मौका मिला. 'लारी लप्पा लाई रखदा' गाने के लिए आज भी याद की जाने वाली इस फिल्म को तब लोगों ने खूब सराहा.
जौहर इसके बाद भी कई फिल्मों में काम किया और उनकी पहचान एक कॉमेडियन एक्टर के तौर पर बनने लगी. मगर उनकी कॉमेडी कभी भी सिर्फ हंसी के ठहाके पैदा करने वाली नहीं थी, बल्कि उसमें व्यंग्य बहुत तीखा था. जौहर के काम में व्यंग्य की जोर इतना तगड़ा था कि वो अपने काम में कई बार एक मूर्तिभंजक के रोल में नजर आते थे जो सामाजिक-राजनीतिक और कभी-कभी धार्मिक विचारों के मंच पर सजी मूर्तियों को तोड़ देना चाहता था.
शुरुआत में जिस फिल्म 'नसबंदी' का जिक्र किया गया है, वो जौहर के व्यंग्य का एक नमूना भर है. इसे रिलीज के बाद बैन कर दिया गया था. लेकिन जौहर सिर्फ पॉलिटिक्स पर व्यंग्य ही नहीं करते थे बल्कि लगभग जलील कर देने की कोशिश करते थे.
'द कोरोनेशन' नाम के एक नाटक में उन्होंने प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या के तुरंत बाद, उनके बेटे राजीव गांधी को प्रधानमंत्री बनाए जाने को 'राज्याभिषेक' कहते हुए व्यंग्य किया. 'भुट्टो' नाम के नाटक में उन्होंने जनरल जिया-उल-हक का मजाक उड़ाया, जिन्होंने 1977 में पाकिस्तानी प्रधानमंत्री जुल्फिकार अली भुट्टो की सरकार का तख्तापलट कर दिया था. इस नाटक में रहम तो उन्होंने भुट्टो पर भी नहीं किया था और नतीजा ये हुआ कि कई थिएटर्स ने जौहर का ये नाटक बैन कर दिया. अपनी फिल्म 'जय बांग्लादेश' (1971) में उन्होंने पाकिस्तान से आजादी के लिए संघर्ष करते एक नए देश की कहानी को ऐसे अंदाज में दिखाया जो व्यंग्य और कॉमेडी का मजेदार कॉम्बिनेशन था.
जौहर के काम के बारे में पढ़कर इतना तो आप भी समझ चुके होंगे कि फिल्म इंडस्ट्री उनसे कितना दूर भागती रही होगी. इसलिए जब इंडस्ट्री के स्टार्स जौहर की फिल्मों में काम करने के लिए राजी नहीं होते थे, तो उन्होंने कई स्टार्स के हमशक्लों को अपनी फिल्म में कास्ट करना शुरू कर दिया.
अपनी फिल्म '5 राइफल्स' (1974) में उन्होंने राजेश खन्ना के हमशक्ल राकेश खन्ना (ऑरिजिनल नामा प्रफुल्ल मिश्रा) और शशि कपूर के हमशक्ल शाही कपूर को कास्ट किया. वैसे, 'झूम बराबर झूम शराबी' कव्वाली इसी फिल्म में थी. 'नसबंदी' की कास्ट में जौहर ने अमिताभ बच्चन के हमशक्ल अनिताव बच्चन, मनोज कुमार के हमशक्ल कन्नौज कुमार और शत्रुघ्न सिन्हा के हमशक्ल शत्रु बिन सिन्हा को लिया.
बड़े स्टार्स जौहर के साथ काम करें या नहीं, जनता उनके काम को हमेशा सराहती थी. आज ये सोच पाना भी मुश्किल है लेकिन बिना स्टार्स के नामों वाली उनकी कॉमेडी फिल्में बॉक्स ऑफिस पर भी कामयाब होती थीं. उनका क्रेज ऐसा था कि उन्होंने फिल्मों के टाइटल अपने नाम पर रखे. अपने दौर के एक और आइकॉनिक कॉमेडियन एक्टर महमूद के साथ उन्होंने 'जौहर महमूद इन गोवा' और 'जौहर महमूद इन हांगकांग' जैसी फिल्में बनाईं.
जौहर ने सिर्फ भारतीय ही नहीं बल्कि इंटरनेशनल फिल्मों में भी काम किया. 1958 में आया हॉलीवुड फिल्म 'हैरी ब्लैक' के लिए उन्हें बाफ्टा (BAFTA) अवॉर्ड्स की 'बेस्ट एक्टर' कैटेगरी में नॉमिनेशन मिला. दुनिया के बड़े सिनेमा अवॉर्ड्स में से एक बाफ्टा में नॉमिनेशन पाने वाले वो पहले भारतीय एक्टर थे.
दुनिया की सबसे 'महानतम' फिल्मों में गिनी जाने वाली, 7 ऑस्कर जीतने वाली फिल्म 'लॉरेंस ऑफ अरेबिया' (1962) में जौहर ने गासिम का किरदार निभाया था. एक और ऑस्कर विनिंग फिल्म 'डेथ ऑन द नील' (1978) में भी जौहर ने काम किया था. यूएस की टेलीविजन सीरीज 'माया' के साथ-साथ वो कई इटालियन फिल्मों में भी नजर आए थे.
जौहर की फिल्में तो हिंदी सिनेमा में 'लीक से हटकर' मानी ही जाती हैं, मगर अपने निजी जीवन में भी वो 'कुछ अलग' अंदाज के आदमी थे. एक्टर बनने से काफी पहले ही उन्होंने 1943 में पूर्व एक्ट्रेस रमा बैंस से शादी की थी. इस कपल के दो बच्चे भी हुए, जिन्होंने आगे चलकर जौहर की कुछ फिल्मों में काम भी किया. लेकिन जिस साल जौहर ने एक्टिंग डेब्यू किया, यानी 1949 में रमा से उनका डिवोर्स हो गया. माना जाता है कि इस कपल का डिवोर्स, भारत के कुछ सबसे पहले कानूनी डिवोर्स में से एक था.
रमा से तलाक के बाद आई. एस. जौहर ने कम से कम चार और बार शादी की. और आगे की सभी शादियों में भी उनका डिवोर्स हुआ. यानी कुल 5 बार शादी और उतनी ही बार डिवोर्स.
10 मार्च 1984 में इस संसार से विदा लेने वाले आई. एस. जौहर अपने पीछे फिल्मों की एक ऐसी विरासत छोड़कर गए, जो व्यंग्य और कॉमेडी के मामले में एक किताब की तरह ट्रीट की जा सकती हैं. मशहूर लेखक खुशवंत सिंह ने द ट्रिब्यून के एक आर्टिकल में लिखा है कि वो जौहर को एक मास्टर स्टोरी-टेलर मानते हैं. अपनी रोमांटिक फिल्मों के लिए मशहूर हुए डायरेक्टर यश चोपड़ा ने अपना करियर, जौहर के असिस्टेंट डायरेक्टर के तौर पर किया था.