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लता मंगेशकर अब दुनिया में नहीं हैं. लोग जब लता के चेहरे को याद करते हैं तो एक मीठी-सौम्य मुस्कान वाला चेहरा याद आता है. कानों में गूंजती सुरीली तान याद आती है. लेकिन इसी चेहरे और आवाज के पीछे दर्द और संघर्ष की एक मिसाल कम लोग ही देख पाते हैं.
दरअसल, दुनिया का यह दस्तूर भी है. जितना दिखता है, उतना समझा जाता है. जो नहीं दिखता, वो अनजाना-अनसुना ही रह जाता है. और लता जी की आदत में केवल साहस, सहयोग और सहारा जैसे शब्द रहे.
लता अपने खुद के जीवन को लेकर अंतरमुखी रहीं. उन्हें अपनी तकलीफों के बारे में बात करना अच्छा नहीं लगता था. वो दूसरों के सामने दुख जताने की जगह उनके दुख जानने में और मदद करने में ज्यादा दिलचस्पी लेती थीं.
यहां तक कि परिवार के लोगों के लिए भी लता की तकलीफें अपरिचित या अनसुनी ही रह जाती थीं. लता जी की आदत थी कि वो अपनी तकलीफों को अपने भाई-बहनों तक से साझा नहीं करती थीं.
अपनी दीदी की ज़िंदगी के इस सतत संघर्ष और योगदान को याद करने के लिए उनकी छोटी बहन, मीना मंगेशकर खाडीकर ने दो बरस पहले यानी लता जी के 90वें जन्मदिन पर उनकी स्मृतियों को एक किताब की शक्ल में लता जी को समर्पित किया था. मीना मंगेशकर खाडीकर ने उनके लिए किताब 'दीदी और मैं' लिखी थी.
मीना ताई ने अपनी इस किताब में लता दीदी की जिंदगी के उतार-चढ़ाव को शब्दों में पिरोया था.
लता मां भी थीं और पिता भी
लता दीदी के संघर्षों के बारे में मीना ताई बताती हैं, बाबा के बीमार पड़ने के बाद नाटक कंपनी बंद हो गई थी, जिसके बाद हम पुणे आ गए थे. 41 की उम्र में वे हमें छोड़कर चले गए, उस वक्त हम पांच लोग और उनकी देखभाल करने वाला कोई नहीं था. हम सब की ज़िंदगी एक अजीब से अंधेरे के मुहाने पर खड़ी दिख रही थी.
उस वक्त दीदी आगे आकर खड़ी हुई, 13 साल की उम्र से उन्होंने काम करना शुरू किया. वे फिल्मों में काम करती थी ताकि घर का राशन पानी चल सके. हालांकि उन्हें काम करना बिलकुल भी पसंद नहीं था. उनका पहला प्यार तो संगीत था.
दीदी इधर-उधर म्यूजिक डायरेक्टर से मिलती, उनको अपने गाने सुनाती तब हरिशचंद्र बाली ने उन्हें मौका दिया. दीदी ने उनके लिए दो गाने गाएं. फिर जाकर सबको पता चला कि दीदी गाना भी गाती है. मास्टरजी गुलाम हैदर ने उन्हें बॉम्बे टॉकीज में काम दिया. महल फिल्म आई और यहां से उनका नाम बनता गया.
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लता के अनकहे दर्द
मीना ताई ने इस पुस्तक को लता जी के प्रति समर्पित करते हुए बताया था, दीदी ने आजतक कभी हमसे अपनी मायुसी या दुख जाहिर नहीं किया. यकीनन वे कई बार टूटी भी होंगी, लेकिन हमारे सामने वे हमेशा हंसती रहीं. कभी अपनी तकलीफों को हम लोगों के सामने जाहिर नहीं होने दिया.
वो वक्त इतना कठिन था और बाहर के लोगों ने क्या कुछ नहीं कहा, लेकिन उन्होंने बाहर की निगेटिविटी हम तक कभी नहीं आने दी.आखिर तक वे हमें वैसे ही संभालती रहीं, जैसे पहले संभाला था.
उन्होंने हम भाई बहनों को मां-बाप की तरह संभाला... बाबा के जाने के बाद बाबा की तरह खड़ी रही और मां के जाने के बाद मां की तरह संभाला.
अपनी किताब का जिक्र करते हुए मीना ताई ने बताया कि मेरी यह किताब लिखने की वजह ही यही थी कि मैं उनके लिए कुछ ऐसा लिखूं ताकि लोगों को यह पता लगे कि उन्होंने अपने परिवार(हमारे लिए) के लिए कितनी बड़ी कुर्बानी दी है. उन्हें हमसे क्या मिला? हमने क्या दिया उन्हें? कुछ भी तो नहीं.
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लता दीदी ने हमारे लिए न शादी की, न बच्चे पैदा किए और न ही खुद का घर बनाया. वे हमें बच्चों की तरह संभालती है. बदले में उन्होंने हमसे कुछ भी नहीं मांगा. उनकी तबीयत भी खराब हो जाए, तो भी नहीं कहती हैं कि मेरे लिए कुछ करो. मैं उन्हें कुछ नहीं दे सकी. इसलिए मैंने सोचा कि उनके जन्मदिन पर उन्हें यह किताब भेंट करूं.
मीना ताई ने बताया कि दीदी की बायॉग्राफी या बायॉपिक का ऑफर लेकर बहुत से लोग आते हैं लेकिन वे सभी को मना कर देती हैं क्योंकि उन्हें अपना जीवन किसी को नहीं बताना.