
बॉलीवुड एक्ट्रेस सारा अली खान की फिल्म 'ऐ वतन मेरे वतन' का ट्रेलर हाल ही में सामने आया और सोशल मीडिया पर इसकी काफी चर्चा हो रही है. लोगों को सारा का काम तो अच्छा लग ही रहा है, लेकिन फिल्म की कहानी काफी दिलचस्प लग रही है.
ट्रेलर की शुरुआत एक टेंशन भरे मोमेंट से होती है. कहीं पर एक कमरे में. कहीं एक हॉल में लोग झुंड में मौजूद हैं. सबकी नजरें एक ही तरफ हैं. फिर फ्रेम में एक घड़ी दिखती है, जिसमें 8 बजकर 25 मिनट हो चुके हैं. टिकटिक करती घड़ी के बैकग्राउंड म्यूजिक के साथ टेंशन बढ़ती है, सीन में एक हाथ रेडियो की फ्रीक्वेंसी सेट करता है. फ्रेम में फिर घड़ी दिखती है और अब 8 बजकर 30 मिनट हो चुके हैं. ऐसा लगता है इस रेडियो से अभी कोई आवाज आने ही वाली है, और तभी सीन कट होकर एक लड़की पर पहुंच जाता है.
सारा अली खान अपने किरदार में दिखती हैं. भीड़ में बैठी, अपना पूरा ध्यान लगाए महात्मा गांधी का भाषण सुनते हुए. एक जगह अंग्रेजी सिपाहियों की लाठियों के बीच तिरंगा थामे हुए और एक जगह नारा लगाते हुए- करो या मरो. ये क्लियर हो जाता है कि 'ऐ वतन मेरे वतन' उस दौर की कहानी है जब भारत अपनी आजादी के लिए संघर्ष कर रहा था. मगर फिर आप सोचते हैं कि इस कहानी में ये जो लड़की का किरदार है, ये किसका है?
स्वतंत्रता संग्राम का हिस्सा रहे अधिकतर बड़े नामों को, थोड़ा कम या थोड़ा ज्यादा, अपने देश की पब्लिक पहचान ही लेती है. मगर पूरी प्रायिकता उर्फ प्रोबेबिलिटी है कि शायद आपको तुरंत नहीं याद आएगा कि सारा का किरदार, किस रियल लाइफ शख्सियत से मेल खाता है?
आजादी का आंदोलन और एक सीक्रेट रेडियो स्टेशन
तारीख थी, 14 अगस्त 1942. रेडियो के वेवलेंथ 42.34 मीटर पर लोगों ने पहली बार 'कांग्रेस रेडियो' सुना और इस स्टेशन की लोकेशन बताई गई 'भारत में कहीं से.' ये आवाज थी 22 साल की एक लड़की, उषा मेहता की. जिनका किरदार 'ऐ वतन मेरे वतन' में सारा अली खान निभा रही हैं.
उस दिन से दिन में दो बार ये रेडियो प्रोग्राम आता, एक बार हिंदी में और एक बार इंग्लिश में. मगर बाद में ये दिन में सिर्फ एक बार ही आने लगा, शाम में 7 बजकर 30 मिनट से 8 बजकर 30 मिनट के बीच. इसमें देशभक्ति के गीत ब्रॉडकास्ट होते, वो खबरें पढ़ी जातीं, जिन्हें अंग्रेजी सरकार के ऑफिसर सेंसर करके छपने से रोक दिया करते. और भारत की आजादी का संग्राम लीड कर रहे नेताओं के ओजस्वी भाषण भी ब्रॉडकास्ट किए जाते. और इस रेडियो चैनल के जरिए उषा वो लम्हा ही रही थीं, जिसे बाद में उन्होंने अपने क्रांतिकारी जीवन का 'सबसे बेहतरीन मोमेंट' कहा था.
महात्मा गांधी ने, अगस्त 1942 में, मुंबई में एक ऐतिहासिक भाषण दिया और जनता को नारा दिया- 'करो या मरो'. यहां से भारत छोड़ो आंदोलन शुरू हुआ. गांधी ने ये भाषण दिया था 9 अगस्त को और उनका ये भाषण ही उषा के लिए वो प्रेरणा बना जिससे उन्होंने एक सीक्रेट रेडियो चैनल शुरू कर दिया. उनके साथ थे उनके दो साथी क्रांतिकारी चंद्रकांत बाबूभाई झावेरीऔर विट्ठलदास के झावेरी. उषा ने नानका मोटवाने को भी साथ लिया, जिनका परिवार एक टेलीफोन कंपनी 'शिकागो रेडियो' चलाता था. और एक नए रेडियो ऑपरेटर नरीमन प्रिंटर ने भी इनकी मदद की.
बचपन से आंदोलनकारी बन गई थीं उषा मेहता
कई साल बाद एक इंटरव्यू में उषा ने कहा था, 'उस समय किसी प्रेरणा की जरूरत नहीं पड़ती थी. पूरा माहौल इतना चार्ज था की कोई अछूता नहीं था.' ब्रिटिश राज में एक जज की बेटी, उषा ने बचपन से बच्चों एक झुंड में आंदोलन का हिस्सा बनना शुरू कर दिया था. बताया जाता है कि उन्होंने किसी आंदोलन में अपना पहला नारा, मात्र 8 साल की उम्र में लगाया था- 'साइमन गो बैक'.
उषा ने खुद बताया था कि जब उन्होंने गांधी के नमक सत्याग्रह में हिस्सा लिया था, तब वो टीनेजर ही थीं. वैसे तो, उनके पिता उन्हें अंग्रेजों के खिलाफ जारी आंदोलनों का हिस्सा बनने से रोका करते थे. मगर 1932 में जब वो रिटायर हुए और परिवार को लेकर बॉम्बे आ गए, तो उषा स्वतंत्रता संग्राम में पूरे जोरों से हिस्सा लेने लगीं. गांधी से प्रेरित उषा मेहता ने ब्रह्मचर्य का व्रत ले लिया था. वो गांधी का ही जीवन फॉलो करती थीं और उन्हीं की तरह सिर्फ खादी पहना करती थीं. जब उन्होंने सीक्रेट कांग्रेस रेडियो शुरू किया था तो उनकी उम्र केवल 22 साल थी.
जब उषा मेहता को जाना पड़ा जेल
उषा का सीक्रेट रेडियो स्टेशन अंग्रेजों के लिए नाक में दम करने वाली चीज बन गया. इस स्टेशन से स्वतंत्रता सेनानियों को सीधा जनता से संवाद करने का मौका मिलता, ऑल इंडिया कांग्रेस कमिटी के जरिए महत्वूर्ण खबरें उषा को मिलतीं और सबसे बड़ी बात ये स्टेशन है कहां ये किसी को नहीं पता था. उषा ने बीबीसी के एक इंटरव्यू में बताया था कि इस स्टेशन की लोकेशन तीन ही महीने में करीब 6-7 बार बदली जा चुकी थी. 12 नवंबर 1942 को उषा एक ब्रॉडकास्ट के बीच ही थीं जब दरवाजे पर पुलिस आ धमकीं. उनका उस दिन का प्रोग्राम बस खत्म हो हो रहा था और 'वंदे मातरम' चल रहा था. उषा ने बताया, 'उन्होंने हमें वंदे मातरम बंद करने का आदेश दिया. मगर हमने उनकी बात नहीं मानी.'
सी.आई.डी ने 6 महीने तक उन्हें इन्टेरोगेट किया और क्रांतिकारियों के राज खोलने के बदले विदेश में पढ़ाई जैसे ऑफर भी दिए. मगर उषा ने चुप्पी साधे रखी. यहां तक कि हाई कोर्ट में सुनवाई के दौरान भी उन्होंने जज से पूछा कि क्या सवालों के जवाब देने ही होंगे? जब जज ने कहा कि ऐसा अनिवार्य नहीं है, तो उषा ने किसी सवाल का जवाब नहीं दिया, अपने बचाव में भी नहीं. वो चार साल के लिए 1946 तक पुणे की येरवाडा जेल में रहीं. 1946 में जब मोरारजी देसाई भारत की अंतरिम सरकार में गृह मंत्री थे, तो उषा मेहता पहली राजनीतिक बंदी थी जिन्हें रिलीज किया गया था.
देश की आजादी के बाद उषा ने राजनीति और समाज कार्य छोड़ दिया. उन्होंने आंदोलनों के बीच छूट चुकी पढ़ाई पर दोबारा ध्यान दिया और यूनिवर्सिटी ऑफ बॉम्बे से गांधी दर्शन में पीएचडी पूरी की. फिर वो इसी यूनिवर्सिटी में पढ़ाने लगीं और 1980 में रिटायर हुईं. 1998 में भारत सरकार ने उषा को पद्म विभूषण से सम्मानित किया था. साल 2000 में उषा ने हर साल की तरह, अगस्त क्रान्ति मैदान में 'भारत छोड़ो आंदोलन' की एनिवर्सरी में हिस्सा लिया और लौटीं तो बीमार पड़ गईं. दो दिन बाद, 11 अगस्त 2000 को उन्होंने अपनी आखिरी सांस ली थी.
उषा मेहता उन स्वतंत्रता सेनानियों में से हैं, जिन्हें फिल्मों या टीवी ने ज्यादा एक्सप्लोर नहीं किया. उनका जीवन और आजादी की लड़ाई में योगदान, एक इंस्पायर करने वाली और दिलचस्प कहानी हैं. सारा अली खान की 'ऐ वतन मेरे वतन' उषा की कहानी को किस तरह और कितने बेहतरीन तरीके पर्दे पर पेश करती है, ये 21 मार्च को पता चलेगा. ये फिल्म ओटीटी प्लेटफॉर्म अमेजन प्राइम पर हिंदी समेत तेलुगू, तमिल, मलयालम और कन्नड़ में स्ट्रीम होगी.