‘मेरे बारे में इतना मत सोचना… दिल में आता हूं, समझ में नहीं’ सलमान खान की फिल्म ‘किक’ का ये डायलॉग अक्सर उनकी फिल्मों के लिए भी इस्तेमाल किया जाता है. हालांकि सलमान ने अपने करियर में बहुत सी ऐसी फिल्में की हैं जो खूब समझ में आई हैं. भले ही उनकी ज्यादातर फिल्में फैन्स के दिल के भरोसे चलने वाली रही हों. सलमान वो बॉलीवुड सुपरस्टार हैं जिनकी फिल्में जनता दिमाग को किनारे रखकर, सिर्फ और सिर्फ एंटरटेनमेंट के लिए देखती रही है. हालांकि, ‘सिकंदर’ वो फिल्म है जो उनके पक्के वाले फैन के दिल का हार्ट रेट भी कम कर सकती है.
‘सिकंदर’ देखते हुए ये यकीन कर पाना मुश्किल है कि ये ‘दबंग’, ‘बजरंगी भाईजान’, ‘सुल्तान’ वाले ही सलमान हैं. ना ही इस बात का यकीन होता है कि इसके डायरेक्टर ‘गजनी’ और ‘हॉलिडे’ वाले ए आर मुरुगदास हैं. ‘सिकंदर’ बनाने का आईडिया क्या रहा होगा, फिल्म देखकर ये भी समझ पाना असंभव है. और दिल से तो ‘सिकंदर’ को स्वीकार करने की उम्मीद करना भी बेमानी है. ऐसा नहीं है कि बेसिक आईडिया के लेवल पर सलमान की इस फिल्म में कोई जान नहीं थी. बिल्कुल थी, मगर उस आईडिया का ट्रीटमेंट उस व्यक्ति की तरह हो गया है जिसने पेट दर्द में यूट्यूब देखकर खुद के पेट में चीरा लगा लिया था!
क्या है ‘सिकंदर’ का प्लॉट?
राजकोट के राजा साहब, संजय राजकोट (सलमान) एक फ्लाइट के दौरान अच्छा काम करने के चक्कर में, एक मंत्री के बेटे से बैर ले लेते हैं. इस बैर का नतीजा उनके एक करीबी को भुगतना पड़ता है, जिससे संजय हताश से हो जाते हैं. उनके उस करीबी ने अंगदान किया था, जो उसके मरने के बाद पूरा होता है. उसके अंग जिन्हें लगाए गए हैं, उनकी समस्याओं को दूर करना अब संजय राजकोट का मकसद है.
इस सफर में वो फिर से उस मंत्री के बेटे से टकरा जाते हैं, जो उन लोगों को परेशान करने पर तुला है जिन्हें संजय के उस करीबी के अंग लगे हैं. क्या इन लोगों को राजा साहब प्रोटेक्ट कर पाएंगे? क्या वो इन जरूरतमंदों की जिंदगी बदल पाएंगे? क्या वो उस मंत्री और उसके बेटे का हिसाब कर पाएंगे, जिन्होंने उनके करीबी को नुकसान पहुंचाया था? इस प्लॉट में एक पॉपुलर मसाला एंटरटेनर बनने का पूरा दम था, मगर इसके साथ जो ट्रीटमेंट हुआ उसने वक्त-जज्बात-माहौल सब बदल गया.
इस प्लॉट पर ‘सिकंदर’ ने क्या उगाया?
‘सिकंदर’ देखते हुए ऐसा लगा कि इसे रील्स के लिए काटे जा सकने वाले छोटे-छोटे वीडियोज के ढाई घंटे लंबे कलेक्शन की तरह तैयार किया गया है. फिल्म का सारा फोकस एक्शन सीन्स से सलमान का भौकाल बनाने पर है और वो सीन्स आपस में जुड़ सकें इसके लिए कहानी के ट्विस्ट और टर्न जोड़े गए हैं.
मगर एक सीक्वेंस से दूसरे सीक्वेंस पर भागती हुई फिल्म में किसी तरह की लय ही नहीं है. कहानी में एक हिस्सा धारावी के स्लम की गंदगी पर है, एक वहां की गंदी हवा पर. एक हिस्सा पंजाब में आतंकवाद को कहानी में घुसाना चाहता है, तो एक में पारंपरिक परिवार में फंसी काबिल बहू की पिसती लाइफ का मुद्दा है. लेकिन जहां 2 मिनट में मैगी भी नहीं बन पाती, वहीं ये मुद्दे ‘सिकंदर’ साहब डेढ़-डेढ़ मिनट में सुलझा देते हैं!
फिल्म में किसी भी किरदार की कोई बैक स्टोरी नहीं है. राजा साहब संजय के पास अपनी पत्नी साईश्री (रश्मिका मंदाना) को देने के लिए वक्त ही नहीं है लेकिन वो किस काम में व्यस्त हैं ये आपको नजर नहीं आएगा. राजा साहब शादी नहीं करना चाहते थे, लेकिन उन्होंने एक लड़की को बदनामी से बचाने के लिए शादी कर ली. पूरा मामला क्या था, ये आपको फिल्म में नजर नहीं आएगा.
संजय की पत्नी इस शिकायत के साथ बैठी है कि उनके पास समय ही नहीं रहता. जबकि वो खुद राजा साहब की डिफेंस मिनिस्टर जैसी है. फर्स्ट हाफ इनकी केमिस्ट्री सेट करने में दो गाने लगा देता है, बड़े-बड़े सेट्स खर्च हो जाते हैं, मगर केमिस्ट्री नजर ही नहीं आती. ऊपर से रश्मिका के, हीरो के बच्चे की मां बनने वाले सीक्वेंस अब लगभग उनकी हर फिल्म का रूटीन बन गए हैं.
फिल्म के विलेन का मकसद है कि वो उन तीनों लोगों को मार देगा, जिन्हें राजा साहब के करीबी के अंग मिले हैं. फिल्म इस लॉजिक को इतना हल्का कर देती है कि ये सीरियस लगने की बजाय मजाक लगता है. विलेन के रोल में सत्यराज जैसे दमदार एक्टर को बेअसर दिखा देने की करामात ‘सिकंदर’ में बखूबी हुई है. इतने हल्के विलेन से निपटने के लिए हीरो का इतना जोर लगाना, उसे और कमजोर ही दिखाता है. ‘सिकंदर’ का एक्शन भी बहुत रूटीन तरीके से डिज़ाइन किया गया है. बैकग्राउंड स्कोर बेहद साधारण है और कहानी को सपोर्ट करने की बजाय ऊब की वजह बनता है.
यहां देखें 'सिकंदर' का ट्रेलर:
एक्टर्स का बेहद फीका काम
राजा साहब संजय के रोल में सलमान ने अपने करियर का सबसे हल्का काम किया है. पूरी फिल्म में वो ऐसे लगे हैं जैसे उनका मन ही नहीं था और बस निपटाने के लिए फिल्म कर रहे हैं. इससे ज्यादा एंटरटेनिंग तो सलमान अपने रियलिटी शो में लगते हैं, वो भी बिना एक्शन किए. ‘सिकंदर’ में वो एक अजीब तरीके से बुदबुदाते या फुसफुसाते हुए डायलॉग बोल रहे हैं. और एक्सप्रेशन देने में इतना जोर लगाते हुए सलमान आखिरी बार ना जाने कब दिखे थे.
रश्मिका मंदाना इस फिल्म से ज्यादा फीकी शायद ही किसी फिल्म में लगी हों. जबकि अपनी पिछली फिल्मों में भी वो हीरो की पत्नी और उसके बच्चे की मां ही बनी थीं. राजा साहब के मैनेजर टाइप रोल में नजर आ रहे शरमन जोशी ‘सिकंदर’ से पहले कभी इतने बेअसर नहीं लगे. सत्यराज और प्रतीक स्मिता पाटिल (पहले बब्बर) जैसे एक्टर्स को भी ये फिल्म यूज नहीं कर सकी.
अगर कोई ‘सिकंदर’ का राइटर होने का दावा करता है तो उसे ये दावा वापस ले लेना चाहिए क्योंकि इस फिल्म में राइटिंग जैसी कोई कोशिश होने के सबूत ही नहीं हैं. ये बस छोटी-छोटी इंस्टा रील्स का एक कलेक्शन है. हालांकि ये कहना भी गलत ही लगता है क्योंकि आजकल बहुत सारे क्रिएटर्स की रील्स में इससे बेहतर स्क्रिप्ट होती है.
‘सिकंदर’ का सार
कुल मिलाकर ‘सिकंदर’ वो एक जॉब है जिसे लोग अपने सीवी में कभी मेंशन नहीं करना चाहते. ये वो फिल्म है जिसे देखने वाले दर्शक, 4 लोगों के बीच ये बताने से बचते हैं कि उन्होंने ये देखी है. लेकिन दिक्कत ये है कि सलमान के नाम भर से इसे कम से कम पहले दिन बहुत दर्शक मिल जाएंगे. मगर उसके बाद जो होगा वो सलमान जैसे जेनुइन सुपरस्टार को 30 साल से पर्दे पर देखते आ रहे किसी भी दर्शक के लिए निराशाजनक होगा. ‘सिकंदर’ वो फिल्म है जिसके बाद सलमान को ठहरकर सोचना चाहिए कि बॉलीवुड दर्शकों की एक पूरी नई पीढ़ी के सामने वो अपनी क्या विरासत छोड़ना चाहते हैं.
एक वक्त था जब सलमान की खराब फिल्में भी लोग चाव से देख डालते थे, इस दिलचस्पी में कि देखें इसमें सलमान क्या नया अविश्वसनीय काम कर रहे हैं. दिमाग एकदम किनारे रख देने पर सलमान की फिल्में सिर्फ इसलिए मजेदार लगती थीं कि वो कुछ नया अजूबा कर रहे होते थे और वो भी पूरे विश्वास के साथ. ‘सिकंदर’ में इतना भी नहीं है कि एक पक्का सलमान फैन सिर्फ इसलिए फिल्म देख ले कि स्क्रीन पर जो भी कुछ चल रहा है, सलमान ही उसे बहुत एन्जॉय कर रहे हैं! ‘सिकंदर’ देखने के बाद सलमान की 'जय हो' क्लासिक, 'ट्यूबलाइट' एपिक और 'रेस 3' कल्ट लगने लगती हैं.