सुशांत सिंह राजपूत सुसाइड केस की जांच सीबीआई तेजी से आगे बढ़ा रही है. हालांकि इस जांच के दरमयान जब से 'साइकोलॉजिकल ऑटोप्सी' नाम का टर्म सामने आया है तब से बहुत से लोग इसे लेकर कनफ्यूज हो रहे हैं. चलिए ये समझने की कोशिश करते हैं कि आखिर साइकोलॉजिकल ऑटोप्सी का मतलब क्या है और ये क्यों की जाती है.
क्राइम रिपोर्टिंग में 25 साल का अनुभव रखने वाले आज तक के सीनियर जर्नलिस्ट शम्स ताहिर खान ने ग्राउंड जीरो से बताया कि साइकोलॉजिकल ऑटोप्सी असल में दिमाग का पोस्टमॉर्टम है. लेकिन साइकोलॉजिकल ऑटोप्सी तभी होती है जब आप कहीं न कहीं आप इसे सुसाइड के साथ जोड़कर देखते हैं.
उन्होंने बताया कि क्योंकि पुलिस या सीबीआई जब ये करती है तो ऐसे सुनंदा पुष्कर केस में.... तो ये देखते हैं कि क्या ये सुसाइड है. अगर हां तो उस वक्त उसकी मानसिक हालत क्या थी? इसमें ये देखा जाता है कि मौत से हफ्ता दस दिन पहले तक उसके बर्ताव में क्या बदलाव आए.
कैसा था आखिरी वक्त में बर्ताव?
जैसे वो किस तरह बात करता है. खोया खोया रहता है या नहीं रहता है. सामान्य तौर पर दोस्तों से जितनी बात करता है उतनी नहीं करता है. वक्त पर खाता है या नहीं खाता है. ठीक से सोता है या नहीं सोता है. उसकी उसकी मौत से हफ्ता 10 दिन पहले क्या कोई बदलाव आया. ये बदलाव बहुत बड़ा असर डालते हैं. ये पता करने और समझने में कि शायद कोई वजह थी.
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साइकोलॉजिकल ऑटोप्सी में दिमाग का पोस्टमार्टम होता है जिसमें देखा जाता है कि क्या आखिरी दिनों में कोई बदलाव आया था बर्ताव में. इसमें उनको दोस्तों और इर्द-गिर्द के सभी लोगों को शामिल किया जाता है और पूछा जाता है कि क्या कोई बदलाव आया था आखिरी के कुछ वक्त में उनके भीतर. ये देखते हैं कि क्या लिख रहा है वो. किस तरह की चीजें लिख रहा है.
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क्या वो निजी बातें लिख रहा है, दुनिया की बातें लिख रहा, धर्म की बातें लिख रहा है. तो वो चीजें जो आपने कभी नहीं कीं. वो अगर आप कह रहे हैं, लिख रहे हैं, बोल रहे हैं तो ये सारी चीजों को मिलाकर. तब इसकी पूरी जो रिपोर्ट सामने आती हैं. कि पहले शख्स अलग था और आखिरी के दिनों में वो कैसा था ये सामने आता है.