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'The Protocol' में Gandhi-Hitler के मूल्यों की टकराहट है, 'कालिंग चड्ढा' में बयां है बुजुर्गों का दर्द

कभी-कभी ऐसा लगता है कि हिटलर में अपना आदर्श खोजने वालों की संख्या ज्यादा हो गई है. गांधी की अहमियत बड़ी है या हिटलर की इसी विषय पर एक शॉर्ट फिल्म आई है 'द प्रोटोकॉल'. 25 मिनट की इस फिल्म में दिखाने की कोशिश की गई है कि गांधी के मूल्य कितने बड़े हैं और क्यों हैं?

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द प्रोटोकॉल
द प्रोटोकॉल
स्टोरी हाइलाइट्स
  • शॉर्ट फिल्म है द प्रोटोकॉल
  • दिखेगी गांधी-ह‍िटलर के मूल्यों की टकराहट

देश या विश्व में दो धाराओं में विश्वास करने वाले लोग हैं. एक धारा है प्यार की दूसरी है नफरत की. गांधी और हिटलर की सोच बताकर इसका सरलीकरण भी किया जाता है. आज वैश्विक हालात ऐसे हो गए हैं कि नफरत की धारा हावी होती नजर आती है. रूस-यूक्रेन युद्ध हो या आतंकियों के इरादे इसी धारा को मजबूत करते दिखाई देते हैं. लेकिन दुनिया यह भी मानकर चलती है कि हिंसा किसी समस्या का हल नहीं है. स्थायी समाधान के लिए गांधीवादी तरीका ही अपनाना होगा. दुनिया भर में शांति-अहिंसा और लोकतंत्र को चाहने वालों की बड़ी तादाद है. लेकिन ऐसे लोग भी कम नहीं हैं, जिन्हें तानाशाही, हिंसा और युद्ध आकर्षित करते हैं. 

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कभी-कभी ऐसा लगता है कि हिटलर में अपना आदर्श खोजने वालों की संख्या ज्यादा हो गई है. गांधी की अहमियत बड़ी है या हिटलर की इसी विषय पर एक शॉर्ट फिल्म आई है 'द प्रोटोकॉल'. 25 मिनट की इस फिल्म में दिखाने की कोशिश की गई है कि गांधी के मूल्य कितने बड़े हैं और क्यों हैं? हिटलर ने अपने लोगों को युद्ध की आग में झोंक दिया. हजारों लोगों को गैस चेंबर में मरवा दिया लेकिन उसका अंजाम क्या हुआ यह दुनिया जानती है. 'द प्रोटोकॉल' के जरिये एक्टर, प्रोड्यूसर, डायरेक्टर और स्क्रिप्ट राइटर नलिन सिंह ने एक बेहद चुनौतीपूर्ण विषय को पर्दे पर उतारने की कोशिश की है. निर्माण एनआरएआई प्रोडक्शन ने किया है. इसमें अभिनय किया है इस संस्थान से जुड़े लोगों ने.   

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आकाश बने ह‍िटलर-प्र‍िय रंजन बने गांधी 

फिल्म में आकाश डे ने हिटलर और प्रिय रंजन त्रिवेदी ने गांधी का किरदार निभाया है, अगस्त्य अरुणाचल हिटलर के मेजर जनरल की भूमिका में हैं. ईवा ब्राउन के रोल में पूनम झा नजर आई हैं. फिल्म में इन लोगों की मेहनत नजर आती है. लेकिन इन्हें और पसीना बहाने की जरूरत है. स्टूडेंट के लिहाज से किरदारों का मूल्यांकन किया जाए तो इन्हें बेहतर की श्रेणी में रखा जा सकता है.  

प्रोडक्शन की अन्य फ‍िल्में 

इसी प्रोडक्शन की तीन अन्य शॉर्ट फिल्में 'ए स्क्वॉयड', 'रम विद कोला' और 'कॉलिंग चड्ढा' भी साथ में रिलीज हुई हैं. जिसमें कॉलिंग चड्ढा अकेले पड़ चुके बुजुर्गों की कहानी है, उन बुजुर्गों के दर्द को उकेरने की कोशिश की गई है जिनके अपने तो हैं लेकिन कहीं दूर हैं. समय उन्हें खाने को दौड़ता है.जीवन में सफल हैं लेकिन तन्हा हैं. इनके लिए फोन ही महबूबा है लेकिन कोई बात करने वाला ही नहीं है. यह झूठ और फरेब का मायाजाल रचते हैं ताकि समय कट जाए. 

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इसी तरह 'ए स्क्वॉड' में यह दिखाने की कोशिश की गई है कि कैसे पैरेंट्स के सपने बच्चों पर भारी पड़ जाते हैं. बिना क्षमता देखे ही पैरंट्स उन सपनों की गठरी अपने बच्चो पर लाद देते हैं जो उन्होंने कभी अपने लिए देखे थे. उन्हें इस बात का एहसास ही नहीं रहता कि मेरा बच्चा इसके काबिल है या नहीं. उसका लेवल उसे हासिल करने लायक है या नहीं. उसकी अपनी सोच- अपनी जिंदगी है कि नहीं. आखिर कोई बच्चा वह क्यों बने जो उसके पैरेंट्स चाहते हैं. वो क्यों न बने जो वह चाहता है. सपनों के बोझ से वह डिप्रेशन में चला जाता है. जिंदगी में गलत फैसले लेने लगता है जिसका अंजाम बुरा होता है.  
  
इन फिल्मों के मकसद के बारे में चर्चा करते हुए नलिन सिंह कहते हैं. "यह फिल्म दुनिया भर में लोकतांत्रिक सिद्धांतों को मजबूत करने की एक कोशिश है, जिससे अखंड भारत के सपने पर ध्यान केंद्रित किया जा सकता है. खूबसूरत ख्वाब को सिर्फ प्रेम, अहिंसा और सद्भाव के जरिये ही हकीकत में बदला जा सकता है. चाहे घर हो या समाज या विश्व शांति, प्रेम और आजादी के मूल्यों की रक्षा करके ही इसे जन्नत बनाया जा सकता है."

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