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कोविड का काल, हॉलीवुड-साउथ के चर्चे, इन वजहों से तगड़ी ओपनिंग को तरस रही हैं बॉलीवुड फिल्में?

फ़िल्म इंडस्ट्री समेत पूरी एंटरटेनमेंट इंडस्ट्री पर कोरोना वायरस का कहर बरपा है. महीनों तक सिनेमा हॉल वगैरह बंद रहे. बीच-बीच में प्रदेश की सरकारों ने वापस इन्हें खोलने की कोशिश की. लेकिन एक के बाद दूसरी और अब तीसरी लहर के मुंहाने पर खड़े देश को बड़ी स्क्रीन, अच्छे साउंड और महंगे पॉपकॉर्न से दूर ही रहना पड़ा.

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फिल्म 83 और अंतिम द फाइनल ट्रुथ का पोस्टर
फिल्म 83 और अंतिम द फाइनल ट्रुथ का पोस्टर
स्टोरी हाइलाइट्स
  • क्यों अपनी चमक खो रही हैं हिंदी फिल्में?
  • ठंडा पड रहा है हिंदी फिल्मों का बिजनेस

शाहरुख़ ख़ान ने एक मौके पर कहा था, 'भारत में सिनेमा की वही जगह है जो सुबह ब्रश करने की. आप इससे बच नहीं सकते.' लेकिन मालूम दे रहा है कि देश में मंजन का सबसे ज़्यादा बिकने वाला ब्रांड अपनी चमक खो रहा है. बीते काफ़ी समय में हिंदी फ़िल्म का बिज़नेस ख़राब रहा है और ये ग्राफ़ नीचे गिरता ही दिख रहा है. ऐसा नहीं है कि ये ग्राफ़ कोविड के आने के बाद से ही नीचे आया है. असल में बीते 5-6 सालों से ऐसा ही चल रहा है और फ़िल्में तगड़ी ओपनिंग के लिये तरसती दिख रही हैं. ऐसा होने में किन चीज़ों का हाथ है, ऐसी स्थिति के ज़िम्मेदार कौन से कारक हैं, जानने की कोशिश करेंगे:

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कोविड की मार

फ़िल्म इंडस्ट्री समेत पूरी एंटरटेनमेंट इंडस्ट्री पर कोरोना वायरस का कहर बरपा है. महीनों तक सिनेमा हॉल वगैरह बंद रहे. बीच-बीच में प्रदेश की सरकारों ने वापस इन्हें खोलने की कोशिश की. लेकिन एक के बाद दूसरी और अब तीसरी लहर के मुंहाने पर खड़े देश को बड़ी स्क्रीन, अच्छे साउंड और महंगे पॉपकॉर्न से दूर ही रहना पड़ा. इस देश की ज़्यादातर जनसंख्या मार्च 2020 (कोरोना की आमद) से अब तक सिनेमा हॉल की तरफ़ जाती नहीं देखी गयी है. फ़िल्म डायरेक्टर्स का साफ़ मानना है कि बड़ी कमाई करने वाली फ़िल्मों, दिनों-दिन भीड़ खींचने वाली फ़िल्मों के ही मुनाफ़े के एक छोटे हिस्से से वो फ़िल्में बना करती हैं जो छोटी फ़िल्मों की केटेगरी में आती हैं लेकिन अपने कॉन्टेंट की वजह से ख़ूब चलती हैं.

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ऐसी फ़िल्मों को फ़िल्म-फ़ेस्टिवल वाली फ़िल्में भी कहा जाता है, जो समीक्षकों की आंखों का तारा होती हैं और कुछ दिन चलकर, अपने पैसे निकालकर एक किनारे हो जाती हैं. लेकिन कोविडकाल के शुरू होते ही 250-300-400 रुपयों में होती टिकटों की बिक्री ठप्प पड़ी है. यानी, पैसे के सर्क्युलेशन की सबसे बड़ी कड़ी टूट गयी. और अब इसका असर साफ़ दिख रहा है.

कितनी ही बड़ी फ़िल्मों की रिलीज़ टलती रही या अभी भी टल रही है. जर्सी और आरआरआर, राधेश्याम आगे बढ़ चुकी हैं. काफ़ी वक़्त इंतज़ार के बाद रिलीज़ हुईं सूर्यवंशी और अंतिम जैसी कमाई की गारंटी रखने वाली फ़िल्म भी जितनी जल्दी ओटीटी प्लेटफ़ॉर्म पर आयीं, वो खाली ऑडिटोरियम के असर की तस्दीक करता है.

फ़िल्म समीक्षक और 'शहर और सिनेमा वाया दिल्ली' किताब के लेखक मिहिर पंड्या ने इस बाबत अपनी बात कही. उन्होंने कहा, 'भारत में लोग फ़िल्म देखने जाते थे. एक बहुत लम्बे समय से ये हर क्लास के लोगों की लाइफ़स्टाइल का हिस्सा था. लेकिन अभी ऐसा मालूम दे रहा है कि कोविड की वजह से शायद वो आदत ढीली पड़ गयी है. क्यूंकि लोग 83 देखने नहीं गए, जबकि हर शख्स यही कह रहा था कि इस फ़िल्म के दौरान थियेटर भरेंगे.' 

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दक्षिण का सिनेमा निकला 'हैवी ड्राइवर'

ऐसी अवधारणा है कि दक्षिण के सिनेमा ने हिंदी फ़िल्मों को खिसकाना शुरू कर दिया है. बीते कुछ समय में दक्षिण की काफ़ी फ़िल्में अपने कॉन्टेंट की वजह से ख़ूब नाम कमा रही हैं. लेकिन इस मामले में दी लल्लनटॉप के सिनेमा एडिटर और फ़िल्मों के तार खोलने वाले गजेन्द्र सिंह भाटी के कुछ अलग विचार हैं. वो बताते हैं कि दक्षिण की फ़िल्मों ने जहां हिंदी फ़िल्मों को पीछे किया है, वो है सैटेलाइट राइट्स. असल में, एक हिंदी फ़िल्म के सैटेलाइट राइट्स ख़रीदने में चैनल जितनी रक़म ख़र्च करता है, उतने में वो ढेरों साउथ इन्डियन फ़िल्में ख़रीद कर उसे दिन-रात अपने चैनलों पर चला सकता है. और इस वजह से दक्षिण के चेहरे भारतीय घरों में घुस गए और बैठे-बिठाए उनकी एक ऑडियंस तैयार हो गयी.

भले ही हिंदी फ़िल्मों की बनिस्बत दक्षिणी फ़िल्मों को थियेटर के अंदर उतनी भीड़ न मिले, लेकिन साउथ इंडियन फ़िल्में अपने ऑडियंस बेस की वजह से ओटीटी प्लेटफ़ॉर्म्स पर अच्छे दामों में बिकती हैं. 

लगभग इसी लाइन पर फ़िल्म कम्पेनियन के प्रोड्यूसर्स राउंड-टेबल इंटरव्यू के दौरान 'कल हो न हो' के डायरेक्टर और फ़िल्म प्रोड्यूसर निखिल आडवाणी भी ऐसी ही बात कहते सुने जा सकते हैं. वो बता रहे थे कि कैसे हिन्दी में डब की हुई फ़िल्में दक्षिण भारतीय फ़िल्में एक के बाद एक आती गयीं और यही वजह है कि आज जब पुष्पा रिलीज़ हुई तो हिंदी ऑडियंस के दिमाग में अल्लु अर्जुन की तस्वीर बनी हुई थी.

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इंडस्ट्री को चलाने वाले बड़े रथ जाम हुए

हिंदी फ़िल्म इंडस्ट्री में चेहरों की बड़ी कीमत रही है. ये चेहरे थियेटर तक लोगों को खींच कर लाते थे. कितनी ही ऐसी फ़िल्में हैं जो महज़ इसलिये दौड़ीं क्यूंकि उसमें लोगों का पसंदीदा ऐक्टर था/थी. लेकिन बीते लम्बे अरसे से वो फ़िल्में नहीं बन रही हैं जो दिन-प्रतिदिन लोगों को बुलाती रहें. मामला ऐसा बना हुआ है कि इंडस्ट्री में बम्पर भीड़ खींचने वाले तीन चेहरे हैं और तीनों ही पुरुष हैं. लेकिन इन सभी की पिछली सुपरहिट फ़िल्में याद करने बैठेंगे तो समय लगेगा. सनद रहे कि इंडस्ट्री के बदले समीकरण के अनुसार 100 करोड़ में बनने वाली फ़िल्म 150 करोड़ कमा लेती है तो उसे मुनाफ़े में नहीं गिना जाता है.

इंडस्ट्री के गल्ले में स्थिति चलायमान रखने के लिये ज़िम्मेदार ये रथ चलते नहीं दिख रहे हैं. इनके बाद के ऐक्टर्स फुटकर फ़िल्में ला रहे हैं लेकिन वो भी बहुत कुछ करती नहीं दिख रही हैं. हॉटस्टार पर रिलीज़ हुई भुज अजय देवगन की फ़िल्म थी. अजय अच्छी फ़ॉलोविंग रखते हैं लेकिन सेना, पाकिस्तान और युद्ध के कीवर्ड्स से लबालब होने के बावजूद फ़िल्म का डिब्बा गोल हो गया.

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और ये सूचक है कि जनता चेहरे के साथ अच्छा कॉन्टेंट भी चाहती है. इन्हीं सब कारणों से बड़े सितारों वाली फ़िल्मों का बढ़िया मूड नहीं बन पा रहा है और उन्हें तगड़ी ऑडियंस नहीं मिल रही है. इसके सिवा ऐक्टर्स का खुलता जा रहा मुंह भी एक बड़ी वजह है. ये एक ऐसी बात है, जिसके बारे में प्रोड्यूसर्स ने पहले तो दबी ज़ुबान में बातें कहनी शुरू कीं और अब मुखर रूप से कह रहे हैं. बड़े सितारे अपनी फ़िल्मों के लिये बड़ी-बड़ी रकम मांगने लगे हैं. उनके मेहनताने में जिस तरह से बढ़ोत्तरी हो रही है, उससे पैसा लगाने वाले परेशान दिख रहे हैं. अनुपमा चोपड़ा के सामने करण जौहर ने बेहद कड़े शब्दों में अपनी बैट रखी थी. ऐक्टर्स अपनी फ़ीस सीधे डबल कर रहे हैं और ये उस दौर की कहानी है जहां फ़िल्में बिज़नेस पाने को तरसती दिख रही हैं. 

फ़िल्मों का है इंटरनेट से कम्पटीशन

फ़िल्मों के बीच जीने वाले मिहिर पंड्या दिल्ली यूनिवर्सिटी में हिंदी भी पढ़ाते हैं और इसके चलते किशोर युवाओं से उनका हर रोज़ पाला पड़ता है. अपने आस-पास के माहौल को देखकर वो अपनी राय हमारे साथ शेयर करते हुए बताते हैं, '80 और 90 के दौर के जो लड़के-लड़कियां थे, उनके पास अपने दौर के गानों से जुड़ी कम से कम एक पर्सनल कहानी ज़रूर होगी. लेकिन आज की पीढ़ी के साथ ऐसा नहीं मिलेगा. क्यूंकि वो गानों को रेडियो पर नहीं सुन रहे बल्कि रील्स में देख रहे हैं. रील्स में गाने का एक हिस्सा होता है और वहां दृश्य कुछ और ही होते हैं. इसलिये उनके अंदर वो गाने वहां नहीं पहुंचते जहां पहुंचने पर हम सिर्फ़ उन गानों के दम पर फ़िल्में देखने चल पड़ते थे.'

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मिहिर बताते हैं 'पहले फ़िल्में देखना ज़िन्दगी का हिस्सा था. दिन में 3 घंटे निकालकर फ़िल्म देखना कोई बहुत बड़ी बात नहीं होती थी क्यूंकि उन 3 घंटों में हमारा कोई काम नहीं छूट जाता था. लेकिन अब सोशल मीडिया का समय है. काम उतने ही हैं, या शायद कुछ बढ़ भी गए हैं. खाने का, सोने का समय वही है. ऐसे में जो समय पहले सिनेमा के मनोरंजन में जाता था, उसका एक बहुत बड़ा हिस्सा सोशल मीडिया में खप रहा है. लोग फिज़िकली नहीं वर्चुअली मिल रहे हैं. ऐसे में दोस्तों के साथ पिक्चर हॉल जाने का वो मज़ा भुलाया जा रहा है. सिनेमा को बहुत बड़ा कम्पटीशन यूट्यूब, फेसबुक, ट्विटर, इन्स्टाग्राम, इन्फ़्लुएन्सर्स आदि आदि से मिल रहा है. सिनेमा के मुक़ाबले, ये सभी चीज़ें बड़ी आसानी से हम तक पहुंच जाती हैं. और इनका प्रभाव सबसे ज़्यादा उसी पीढ़ी पर पड़ा है जिसके हाथों में फ़िल्में हिट-फ्लॉप करवाने की ताक़त है.'

ओटीटी ने किया बंटाधार?

बड़ी मान्यता ये भी है कि ओटीटी अपनी पकड़ मज़बूत करता जा रहा है और अब दर्शक घर बैठे फ़िल्में देखना ज़्यादा पसंद करते हैं. कोरोना वायरस की वजह से लगे लॉकडाउन ने ओटीटी की पहुंच बढ़ाई है. ऐसे में हर महीने ओटीटी को ठीक-ठाक पैसे देने वाला दर्शक, महंगे होते डीज़ल-पेट्रोल, खाने के तेल और मेट्रो के किराए को ध्यान में रखते हुए यही सोचता है कि कुछ दिन में फ़िल्म टीवी पर देख लेंगे. इसी सब के मद्देनज़र ओटीटी प्लेटफ़ॉर्म्स धीरे-धीरे अपना सब्सक्रिप्शन सस्ता भी करते जा रहे हैं.

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इसका दूसरा पहलू ये भी है कि हिंदी इंडस्ट्री में भव्य फ़िल्में बहुत कम बन रही हैं. ये वो फ़िल्में होंगी जिन्हें थियेटर में देखना दर्शकों की मजबूरी हो जायेगी क्यूंकि वो भव्यता या वो ऐक्शन या वो नज़ारे घर की टीवी पर देखने में उन्हें वो मज़ा नहीं आयेगा. मौजूदा भारतीय राजनीतिक परिवेश के चलते ऐसी इवेंट फ़िल्मों के विषय चुनने की बहुत बड़ी समस्या बनी हुई है. फ़िल्मों के टॉपिक, उनके नायक, उसमें दिखाए किरदार, उनके कहे वाक्य, यहां तक कि उनके पहने कपड़े भी विवाद की जड़ बन खड़े होते हैं. ऐसे में ले-देकर मुट्ठी भर विषय बचते हैं जो फ़िल्मकार के लिये सुरक्षित होते हैं. उनका क्या हो रहा है, कैसे हो रहा है, वो हमारी आंखों के सामने है ही. 

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क्या हालिया कैम्पेनिंग से पड़ा है फ़र्क?

सुशांत सिंह राजपूत की मौत के बाद से फ़िल्म इंडस्ट्री लगातार ख़राब वजहों से ख़बर में रही है. ऑनलाइन और ऑफ़लाइन, दोनों ही जगहों पर बहुत बड़े स्तर पर हिंदी फ़िल्म इंडस्ट्री के नामों के सन्दर्भ में कैम्पेनिंग की गयी. मीडिया और सोशल मीडिया ख़ास ऐक्टिव रहे. इस कैम्पेनिंग के पीछे कई स्टेकहोल्डर भी थे, जो अलग चर्चा का विषय है. लेकिन इस कैम्पेनिंग का असर छोटे शहरों में ख़ासा पड़ा है. आम लोगों के घरों में ये चर्चा का मुद्दा बना कि फ़िल्मी सितारे हर वक़्त नशे में डूबे रहते हैं. इसक इतर भी न अलग-अलग तरीक़े की बातें हुईं जिसमें जेंडर, धर्म आदि-आदि चीज़ें उस बातचीत का आधार थीं. 

लेकिन सवाल ये है कि आख़िर लोगों के बीच हो रही इन सभी बातचीतों का असर उस खिड़की पर कितना पड़ेगा जहां से फ़िल्मों की किस्मत तय होती है. इसका जवाब मिलने में अभी समय है क्यूंकि कोविड के आने के बाद से फ़िल्मों की रिलीज़ ख़ासी कम हो गयी है और इन सभी पचड़ों में फंसने वाले लोगों की फ़िल्में मैदान में उतरी नहीं हैं.

लेकिन अगर बीते समय के ट्रेंड को देखें तो पायेंगे कि ऐसी कंट्रोवर्सीज़ फ़िल्मों को बहुत प्रभावित नहीं करती हैं. टाडा और आर्म्स ऐक्ट में जेल जाने वाले संजय दत्त और कई मामलों में जेल जा चुके सलमान खान सबसे बड़े उदाहरण हैं. फ़िल्मों की रिलीज़ के आस-पास उसमें काम करने वाले लोगों से जुड़े विवाद आम बात रहे हैं और कई मामलों में तो सोची-समझी रणनीति का हिस्सा भी रहे हैं. लेकिन हाल ही में हुए 'विवाद' और कैम्पेनिंग कुछ अल तबीयत के और राजनीतिक हवा लपेटे हुए हैं और इनका असर कितन पड़ेगा, ये आगे मालूम चलेगा.
 

 

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