जी 5 पर रिलीज हुई फिल्म आईपीसी 420. विनय पाठक, रणवीर शौरी, गुल पनाग. किसी फिल्म की कास्ट में ये तीन मुख्य कलाकार हों तो उम्मीदें बढ़ जाती हैं. फिल्म के डायरेक्टर मनीष गुप्ता हों, जिन्होंने इससे पहले सेक्शन 375 जैसी इंटेंस कोर्ट-रूम ड्रामा फिल्म लिखी हो तो फिल्म देखने की उत्सुकता और भी बढ़ती है. ट्रेलर देखकर मालूम चल जाता है कि विनय पाठक पर चार सौ बीसी का केस चल रहा है और वो खुद को निर्दोष साबित करने की जुगत भिड़ा रहे हैं. मामला पैसों के हेर-फेर का है. सरकारी वकील के रूप में रणवीर शौरी हैं और विनय पाठक की तरफ से केस लड़ रहे हैं रोहन विनोद मेहरा. गुल पनाग, विनय पाठक की पत्नी के किरदार में हैं.
फिल्म देखना शुरू करते हैं तो विनय पाठक के जेल में होने की वजह भी मालूम भी पड़ जाती है. एक मध्यम-वर्गीय परिवार वाले सीए पर पैसों की धोखाधड़ी का आरोप है और कोर्ट की जिरह में फिल्म की पूरी कहानी कैद दिखती है. फिल्म जिस एक सवाल के जवाब ढूंढने के बारे में है, वो आप खुद से कई बार पूछते रहते हैं- बंसी केसवानी (विनय पाठक) अपराधी है या नहीं.
कैसी है फिल्म 420 आईपीसी?
मामला कुछ यूं बैठता है कि शुरुआत के 15-20 मिनट में जब कहानी आपको समझ में आने लगती है तो इंट्रेस्ट भी जागता है. लेकिन फिर आपको खामियां नजर आने लगती हैं. फिल्म में कितनी सारी चीजें ऐसी दिखने लगती हैं जो खटकती हैं. कई जगहों पर ट्विस्ट या शॉक दिखाने के लिये लोगों को जबरन घुसेड़ा गया है.
विनय पाठक कितनी दफा मिडल क्लास आदमी का रोल निभा चुके हैं और वो इस फिल्म में भी बेहद सहज दिखते हैं. लेकिन उनका किरदार इस तरह से लिखा गया है कि बंसी केसवानी के बारे में, सिवाय उसके सिर पर लदे कर्ज के, किसी को कुछ भी पता नहीं लग पाता है. फिल्म को जल्दी से जल्दी कोर्ट के अंदर ले जाने की कोशिश की गयी है.
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कहां रह गई कमी?
फिल्म में एक कैरेक्टर है जो बंसी के वकील बीरबल चौधरी (रोहन विनोद मेहरा) की असिस्टेंट है और पूरी फिल्म में उसे बस दो काम दिये गए हैं - बीरबल को काला कोट पहनाना और पूछना, 'अगर बंसी वाकई अपराधी हुआ, तो?' रोहन विनोद मेहरा एक आदर्श वकील की तरह दिखते हैं लेकिन अपने रोल में बिल्कुल भी फिट नहीं बैठते दिखते हैं. बची-खुची कसर उनके प्रतिद्वंद्वी वकील रणवीर शौरी निकाल देते हैं. रणवीर शौरी एक पारसी सरकारी वकील की भूमिका में हैं और अब तक उन्हें इस तरह से स्क्रीन पर नहीं देखा गया है. वो अपने रोल पर किये काम से आपको चौंकाते हैं और रोहन विनोद मेहरा को पूरी तरह से निष्क्रिय करते हुए पाये जाते हैं.
मनीष गुप्ता ने इससे पहले सेक्शन 375 लिखी थी. ये फिल्म बलात्कार के आरोप के इर्द-गिर्द घूमता हुआ एक कोर्ट-रूम ड्रामा थी. ऋचा चड्ढा और अक्षय खन्ना दो पक्षों के वकील के रूप में थे और इस फ़िल्म को काफी तारीफ मिली थी. मनीष बताते हैं कि ये फिल्म लिखने के दौरान उन्होंने काफी वक्त छोटी अदालतों में बिताया और उसी दौरान उन्हें इस फिल्म आईपीसी 420 का आइडिया आया था. मनीष की अदालत का एक्सपीरियंस इस फ़िल्म में साफ दिखता है. उन्होंने कहानी को बढ़ाने और नये मोड़ देने के लिये फोरेंसिक और हैंडराइटिंग एक्सपर्ट्स वगैरह का अच्छा इस्तेमाल किया है. इसके अलावा ओवर-ड्रमैटिक अदालती बहसें और ह्यूमर डालने के लिये खटकने वाले सीक्वेंस भी गायब मिले हैं. अदालत की कार्रवाई के दौरान हमें जो भी ह्यूमर मिलता है वो बेहद शांत स्वरूप में है.
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बोझिल सी लगती फ़िल्म में अंत की ओर एक अच्छा हिट आता है. बीरबल चौधरी स्मार्ट खेल खेलते दिखते हैं और अपने एक दांव से सारा खेल पलट देते हैं. लेकिन ओवर-ऑल वो अपना इम्प्रेशन बहुत सुधार नहीं पाते हैं. गलती उनकी नहीं है. उनके सामने रणवीर शौरी जो खेल खेल रहे थे, वो अलग ही लेवल का मामला था.
कुल मिलाकर, फिल्म आईपीसी 420 में बहुत कुछ ऐसा मिला नहीं जिसके बारे में बात की जाए. ये फ़िल्म वैसी नहीं है जिसके बारे में आप ये कहें कि आपने नहीं देखी और आपके दोस्त आपको जज करें. देखी तो कोई बात नहीं, नहीं देखी, तो भी कोई बात नहीं.