"Like people say, taste success once, and the tongue always wants more."
इंग्लिश नाज़ियों को शायद ये वाक्य नागवार गुज़रे. लेकिन ये एक ऐसा वाक्य है जिसने एक अदनी सी टीम को वहां पहुंचा दिया जहां होने का सपना हर खिलाड़ी देखता है. इस वाक्य में अंग्रेज़ी की बेअदबी मात्र एक भाषा की बेअदबी नहीं है बल्कि इस तरह उस पूरे कल्चर को धता बताया गया था जिसमें भारतीय क्रिकेट, भारतीय क्रिकेट खिलाड़ी और भारत, कहीं फिट बैठते नहीं दिखते थे. जब कपिल देव पहले मैच से पहले हुई प्रेस कांफ्रेंस में अंग्रेज़ी पत्रकार से कहते हैं कि 'आप एक फ़ास्ट बॉलर की तरह बोल रहे हैं. मुझे कुछ समझ में नहीं आ रहा है. आप स्पिनर की तरह बोलिए ताकि मैं आपकी अंग्रेज़ी समझ सकूं...', इस वक़्त वो आने वाली विश्व कप की पूरी यात्रा को समेट रहे होते हैं. उन्हें मालूम नहीं था, लेकिन ऐसा ही होने वाला था.
कबीर खान की फ़िल्म 83 जितनी उनकी है, उतनी ही रणवीर सिंह की है और उतनी ही उन 15 लोगों की है जिनका सारा सामान भेजने के लिये पीआर मान सिंह के पास पैसे नहीं थे और वो उधार पर इंग्लैण्ड पहुंचा था. 1983 की प्रूडेंशियल वर्ल्ड कप की जीत की कहानी है. कप्तान कपिल देव इसके हीरो हैं जिनके रोल में रणवीर सिंह है. रणवीर सिंह ने पैसा वसूल काम किया है. उन्होंने बल्लेबाज़ी के स्टांस, बॉलिंग ऐक्शन और कपिल देव के बोलने के तरीक़े की अच्छी कॉपी की है. कितने ही मौकों पर बस बाल भर का अंतर मिलता है.
फ़िल्म में दूसरे सबसे बड़े कैरेक्टर हैं मैनेजर पीआर मान सिंह. हैदराबाद से आने वाले मान सिंह रणजी खिलाड़ी रह चुके थे लेकिन उन्हें बहुत शुरुआत में ही मालूम चल चुका था (या बता दिया गया था) कि शायद वो बहुत आगे नहीं जा सकेंगे, लिहाज़ा वो क्रिकेट एडमिनिस्ट्रेशन में आ गए. पीआर मान सिंह के रोल में पंकज त्रिपाठी दिखते हैं और तमाम तरह के किरदार निभा चुकने वाले त्रिपाठी जी अब हैदराबादी बोलते हुए मिलेंगे. पीआर मान सिंह को इस फ़िल्म के बाद इंटरनेट पर ख़ूब सर्च किया जाने वाला है.
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1983 की जीत कोई मामूली जीत नहीं थी. और ऐसे में उस कहानी को जानने वालों और उससे अनजान (अगर कोई है, तो) लोगों के लिये ये फ़िल्म मुफ़ीद है. इस फ़िल्म में हर मिनट कहानियां मिलती हैं जो एक मैच के, या एक टूर्नामेंट के दौरान मैच रिपोर्ट्स में छपी नहीं मिलतीं. वो सोशल मीडिया का दौर नहीं था. वो इन्स्टाग्राम पर वीडियो चैट करने वाले खिलाड़ियों का दौर नहीं था. हर खिलाड़ी एक टैप भर की दूरी पर नहीं हुआ करता था.
लिहाज़ा ये फ़िल्म उस वक़्त के खिलाड़ियों की तबीयत, उनकी मसखरी, उनके इमोशनल ऐंगल, उनके संघर्षों की कहानियां दिखाती है. और इस तरह से लोगों को समझ में आता है कि आख़िर किन हालातों में उन्होंने उस करिश्मे को अंजाम दिया जिसने एक समूचे खेल की तस्वीर बदल कर रख दी.
आज के समय में ये कहना बहुत आसान है कि अमुक खिलाड़ी ने एक मैच में 175 रन बना दिए. लेकिन जब आप ये फ़िल्म देखते हैं तो आपको मालूम पड़ता है कि उन 175 रनों के दौरान भागी गयी एक-एक दौड़ (रेफ़रेंस- लगान) का क्या महत्त्व था. ये फ़िल्म इस तरह से एक बड़ी भूमिका अदा करने वाली है. वो लोग, जिन्हें इस खेल के इतिहास के बारे में बहुत कुछ नहीं मालूम है, या जो मालूम है, सरसरी तौर पर मालूम है, उनके लिये ये फ़िल्म एक कुंजी उत्तर पुस्तिका की तरह काम करने वाली है.
हां, जिन्होंने क्रिकेट को घोल के पिया है, या 'क्रिकेट के चरसी' हैं, उन्हें इस फ़िल्म से बहुत कुछ मिलने वाला नहीं है. सिवाय इमोशनल मोमेंट्स के, उन्हें कोई भी ऐसी नयी जानकारी नहीं मिलेगी, जिसके बारे में वो कह सकें, 'यार! ये तो मालूम ही नहीं था.' उनके लिये, कई ऐसे मौके भी आयेंगे जहां उन्हें फ़िल्म उबाऊ मालूम दे सकती है. क्यूंकि उन्हें ये भी मालूम होगा कि उस मौके पर फ़िल्मकार सिर्फ़ मसाला लपेट रहा है.
बाकी कसर म्यूज़िक ने निकाली है.
"लहरा दो, लहरा दो
सरकशी का परचम लहरा दो
गर्दिश में फिर अपनी
सरज़मीं का परचम लहरा दो"
ये गाना एक अच्छे मोमेंट पर आता है. यहां कबीर खान ने पूरा ड्रामा ठेला है. थोड़ा ओवर होता लगता है, लेकिन ठीक है. चलेगा. इंटरवल एक ऐसे मौके पर लाना होता है जहां बार थोड़ा ऊपर जाए. समझा जा सकता है. इसके बाद ये गाना फ़िल्म में आता रहता है. खटकता नहीं है.
टूर्नामेंट के तथ्यों के साथ पूरी सावधानी बरती गयी है. बहुत पुरानी बात भी नहीं है, सब कुछ रिकॉर्ड में है और सभी खिलाड़ी भी मौजूद थे (फ़िल्म बनने तक यशपाल शर्मा भी जीवित थे), जिस वजह से सभी मैचों के बारे में एक-एक बारीक डीटेल भी मिल गए होंगे. फ़िल्म में स्क्रीन पर समय-समय पर जानकारियां दिखती रहती हैं जो ये बताती रहती हैं कि उस मौके पर क्या हो रहा था.
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भारतीय कमेंटेटर के रूप में कमेंट्री बॉक्स में बैठे बमन ईरानी लगातार अपनी भूमिका निभाते रहते हैं और तेज़ी से निपट रहे मैचों में सूत्रधार की भूमिका निभाते हैं. न जाने क्यूं, बमन ईरानी की आवाज़ सुनते हुए इंग्लैण्ड में ही साउथहॉल की फ़ुटबॉल टीम की याद आती रही, जिसमें उन्होंने कोच टोनी सिंह की भूमिका निभायी थी.
इस फ़िल्म में बहुत सी ऐसी चीज़ें हैं जो मसाले के लिये डाली गयी हैं. लेकिन बात यही है कि मसाला डालने पर ही दम आलू खाने को मिलता है. वरना आलू के खेत में बैठ के कोई इंसान क्या ही खाना खायेगा. अच्छी बात ये है कि मसाला लिमिट में है. अज़हर जैसी हालत नहीं हुई है इस फ़िल्म की. खिलाड़ियों के गेट-अप बेहद अच्छे हैं और क्रिकेट दिखाने में भी कोई कसर नहीं छोड़ी गयी है. बाकी, जो छूटें ली गयी हैं, उन्हें किनारे रखा जा सकता है. फ़िल्म में एक-दो मौकों पर अच्छे सरप्राइज़ मिलते हैं, जिनपर ऑडियंस ख़ूब तालियां पीटने वाली है. फ़िल्म में टोकन दंगा भी है, टोकन हिन्दू-मुसलमान भाईचारा भी है और ये भी बताया गया है कि कैसे क्रिकेट दंगे को रोक सकता है, भारत-पाकिस्तान बॉर्डर पर होने वाली गोलाबारी रोक सकता है.
फ़िल्म का ये हिस्सा मैंने मोहम्मद शमी को पड़ने वाली गालियों के 1 महीना 21 दिन बाद देखा. इस बारे में मेरा बस इतना कहना है - 'नो कमेंट्स.' इतने बड़े मुद्दे को एक स्पोर्ट्स फ़िल्म में कुल डेढ़-दो मिनट देकर इतने करीने से निपटाते हुए कबीर खान ने जो पॉइंट अर्जित किये हैं, उसके लिये भी उनकी ख़ूब तारीफ़ की जानी चाहिये.
बहरहाल, फ़िल्म देखिये. Omicron सर पर नाच रहा है, इसलिये समझ नहीं पा रहा हूं कि ये कहूं या न कहूं कि ये फ़िल्म थियेटर में देखिये. बाकी, जिस तरह से फ़िल्म की शुरुआत में डिज़्नी हॉटस्टार और नेटफ़्लिक्स का लोगो दिखा था, शायद सूर्यवंशी की तरह ही ये फ़िल्म भी बहुत जल्द किसी OTT प्लेटफ़ॉर्म पर आ जाए. लेकिन ये फ़िल्म देखी जानी चाहिये.
25 पाउंड प्रति मैच की 'तनख्वाह' पर खेलने वालों की कहानी जानने के लिये ये फ़िल्म देखनी चाहिये. आज बल्ले पर स्टिकर लगाकर साल में सैकड़ों करोड़ कमाने वाली जमात की उस पीढ़ी की कहानी जानने के लिये ये फ़िल्म देखी जानी चाहिये, जिसके कप्तान को वर्ल्ड कप जीतने के बाद इस बात का डर था कि उसकी टीम जो शराब पी रही थी, उसके पैसे कौन देने वाला था. ये फ़िल्म इसलिये भी देखनी चाहिये जिससे आपको समझे में आ सके कि "Taste success once, and the tongue always wants more."