गुजराती भाषा की फिल्म छेलो शो (द लास्ट फिल्म शो) को ऑस्कर अवॉर्ड्स में भारत की ओर से भेजा गया है. पैन नलिन (नलिनकुमार रमणीकलाल पंड्या) इस फिल्म के डायरेक्टर हैं और इससे पहले वो सम्सारा और ऐंग्री इंडियन गॉडेसेज़ जैसी फिल्में बना चुके हैं.
छेलो शो फिल्म समय नाम के एक लड़के की कहानी है जो निहायती गरीब परिवार से आता है. उसके पिता की चलाला रेलवे स्टेशन पर चाय की दुकान है और समय चाय बेचने में अपने पिता की मदद करता है. फिल्म की कहानी शुरू होती है उस मौके से जब समय अपने मां-बाप के साथ शहर जाकर फिल्म देखता है. फिल्म का नाम - जय मां काली. समय के परिवार में फिल्म देखने की मनाही है. क्योंकि वो ब्राह्मण परिवार का है और उसके पिता फिल्मों के काम को इस लायक नहीं समझते कि उससे किसी भी तरह का रिश्ता रखा जाए. फिल्म देखने के उस पूरे अनुभव के दौरान समय को समझ में आता है कि उसे फिल्में बनानी हैं. लेकिन उसके पिता उसे ऐसा विचार मन में दोबारा न लाने का आदेश देते हैं. समय तबीयत से हठी बच्चा है और यहीं से उसकी क्रांति की शुरुआत होती है.
अब वो स्कूल बंक करता है और फिल्में देखता है. मुफ़्त की फिल्में देखते हुए वो पकड़ लिया जाता है. लेकिन इसका भी जुगाड़ निकल आता है और उसकी पिक्चर हॉल के प्रोजेक्शनिस्ट से सेटिंग हो जाती है. उसकी मां के बने स्वादिष्ट खाने के बदले में उसे प्रोजेक्शन रूम में बेरोक आने-जाने को मिलता है और इस तरह से समय और फिल्मों की प्रेम कहानी की शुरुआत होती है. समय अलग-अलग फिल्में देखता है, फिल्मों के बारे में, प्रोजेक्शन के बारे में समझ विकसित करता है और आस-पास की दुनिया से बेहद अलग दुनिया में रह रहा होता है. इसी फिल्म, रोशनी, रंगों और कहानियों से प्रेम की कहानी है छेलो शो.
छेलो शो के ऑस्कर नॉमिनेशन के बाद कहा जा रहा था कि ये 1988 में आई इटली की फिल्म सिनेमा पैराडाईसो की कॉपी है. लेकिन फिल्म देखने पर मालूम पड़ता है कि एक छोटे बच्चे के फिल्मों से प्रेम और उसके प्रोजेक्शनिस्ट से दोस्ती के सिवा दोनों फिल्मों में और कोई खास समानता नहीं है. छेलो शो में कहानी के अंत में सिंगल स्क्रीन थियेटर रील वाले सिनेमा से हटकर डिजिटल रूप धर रहा होता है और समय इससे व्यथित दिखता है. जबकि सिनेमा पैराडाईसो के वक्त ऐसा कुछ था ही नहीं. बकौल पैन नलिन, असल में उस बच्चे की कहानी उनके जीवन से काफी मिलती है और जैसा कि फिल्म में दिखाया गया कि समय फिल्मों की रीलें चोरी कर लेता था, पैन नलिन ने भी अपने बचपन में अमिताभ बच्चन की फिल्म के साथ ऐसा ही किया था. इस पूरे मामले में पुलिस भी शामिल हो गयी थी और फिल्म के प्रिंट चोरी करने वाले की खोजबीन की गयी थी.
खैर, छेलो शो के मुख्य किरदार समय के रूप में भविन रबारी हैं. भविन ने 9-10 साल के लड़के की भूमिका निभाई है जो मुंहफट है और अपने मन की करने में विश्वास रखता है. भविन इस रोल में फिट दिखते हैं और अपनी उम्र के हिसाब से वो बेहद अनुभवी मालूम पड़ते हैं. उनके पिता के रूप में दीपेन रावल हैं जो गुजराती फिल्म और टीवी इंडस्ट्री में लम्बे समय से एक्टिव हैं. हालात के मारे और गरीबी से जूझ रहे पिता के रोल में वो खटकते नहीं हैं. उनके हिस्से बोलने को बहुत कम चीजें आयी हैं लेकिन उनकी चुप्पी भी काम की है. इसके अलावा भावेश श्रीमली भी हैं जिन्होंने पिक्चर हॉल में काम करने वाले फ़ज़ल नाम के प्रोजेक्शनिस्ट की भूमिका निभायी है. फ़ज़ल जब तक स्क्रीन पर रहते हैं, आपको मालूम रहता है कि कुछ न कुछ होता रहेगा. आप उनसे रश्क करने लगते हैं क्योंकि उनके किरदार को बेहद स्वादिष्ट दिख रहा खाना खाने को मिलता रहता है. वो जिस तरह से उंगलियां चाटते हैं, आपको ये विश्वास भी हो जाता है कि खाने में वाकई उतना स्वाद था जितना देखने में लग रहा था. इनके अलवा ऋचा मीना ने समय की मां का रोल किया है जो डैडी, मर्दानी 2 जैसी फिल्मों में दिख चुकी हैं.
फिल्म की कहानी बहुत ही सादी सी है. इसके ट्रीटमेंट में भी किसी तरह की शूं-शां को शामिल नहीं किया गया है. फिल्म चलाला रेलवे स्टेशन, समय के घर और आस-पास की जगहों और पिक्चर हॉल तक सीमित रहती है. लगभग पौने 2 घंटे की इस यात्रा में जो सबसे सॉलिड पक्ष दिखता है, वो है इस फिल्म के दृश्य. फिल्म आंखों को ख़ूब भाती है. इसके पीछे हाथ है स्वप्निल एस सोनवाने का जिन्होंने सेक्रेड गेम्स और न्यूटन सरीखी फिल्मों पर काम किया है. स्वप्निल ने चलाला और उसके इर्द-गिर्द की हरी-भरी, तालाबों, खंडहर बन चुकी ईमारतों, रेलवे ट्रैक्स आदि की दुनिया को जिस तरह से दिखाया है वो आप पर छाप छोड़ता है.
इस सब के साथ इस फिल्म की धीमी रफ़्तार एक ढीला पक्ष है. कई सीक्वेंस ऐसे हैं जो बोझिल लगते हैं. इनके चलते फिल्म कुछ लम्बी मालूम देती है और न चाहते हुए भी आपके मन में 'टाइम कितना हुआ है?' सरीखे सवाल उठने लगते हैं. एक और चीज़ जो कुछ गड़बड़ मालूम देती है, वो है समय के परिवार की दिखावटी गरीबी जिसे शायद विदेशी ऑडियंस को ध्यान में रखते हुए दिखाया गया है. समय की मां के किचन को देखकर ये नहीं कहा जा सकता है कि उसका बाप रेलवे स्टेशन पर चाय बेचता है और उसकी दुकान बहुत जल्द बंद होने वाली है. यहां किचन की बात ज़ोर देकर इसलिये की जा रही है क्योंकि वो किचन फ़िल्म की कहानी में एक ज़रूरी स्थान रखता है.
छेलो शो देखते हुए कुछ पुरानी फ़िल्मों के कुछ हिस्से देखने को मिलते हैं और साथ ही पैन नलिन की फिल्म एंग्री इंडियन गॉडेसेज़ का एक गाना पूरी तबीयत से समय लेते हुए अपने अंजाम तक पहुंचता है. फिल्म की गति के चलते ये पैंतरा भी बहुत सुहाता नहीं है.
कुल मिलाकर छेलो शो एक अच्छी कहानी है जो स्क्रीन पर बेहद धीमी गति से चलती हुई मालूम देती है. इसके पीछे एक टिपिकल आर्ट फिल्म बनाने की मंशा मालूम देती है. ऑस्कर को लेकर फिल्म को ढेर सारी शुभकामनाएं. हालांकि, इसे देखने के बाद मेरा उत्साह क्षीण पड़ चुका है.