फिल्म रिव्यूः बबलू हैपी है
एक्टरः साहिल आनंद, इरिका फर्नांडिस, अमोल पाराशर, सुमित सूरी, प्रीत कमल, रेयना मल्होत्रा
डायरेक्टरः नील माधब पांडा
ड्यूरेशनः 1 घंटा 55 मिनट
रेटिंगः पांच में से एक स्टार
क्या हो अगर फिल्म ‘जिंदगी न मिलेगी दोबारा’ को एड्स हो जाए. एक और फिल्म बन जाएगी, जिसका नाम होगा ‘बबलू हैपी है.’ कन्फ्यूज मत होइए, शॉर्ट में समझिए. तीन दोस्त हैं, मस्ती मार रहे हैं. एक की शादी होने वाली है, उसकी मंगेतर कैंकैं टाइप्स है और बाकी दो दोस्तों को बहुत ज्यादा पसंद नहीं करती. तीनों दोस्त दारू पीते हैं, डांस करते हैं और शादी से पहले एक बैचलर्स एडवेंचर ट्रिप पर जाना चाहते हैं. जाते भी हैं और वहां भी मंगेतर ब्रेक आता है. मगर साथ में आता है एड्स का डर. यहीं से फिल्म ब्रदर रोमैंस (ब्रोमैंस) औऱ रिलेशनशिप का ट्रैक छोड़कर आपको एचआईवी पॉजिटिव लोगों के प्रति संवेदनशील करने में जुट जाती है. और आखिर में सबको मिलते हैं कुछ संदेश. जैसे, छूने से, चूमने से, साथ खाने से एड्स नहीं होता. एड्स के मरीजों को हमारे प्यार और हौसले की जरूरत होती है और कैजुअल सेक्स नहीं करना चाहिए.
हिम्मत मत हारिए, कहानी सुनिए
जतिन, हैरी और रोहन जिगरी यार हैं. जतिन रेगुलर बंदा है, हैरी देसी पंजाबी है और रोहन गे है. जतिन की तमन्ना से शादी हो रही है. उसके पहले यार बैचलर पार्टी करते हैं, जहां जतिन ‘बहक’ जाता है. खैर अगले दिन तमन्ना के आ धमकने पर यार संभाल लेते हैं. फिर ये तीनों निकलते हैं, बैचलर ट्रिप के हिमालय की वादियों में. मगर रास्ते में आता है एक ब्रेक क्योंकि मनाली में तमन्ना की कजिन की शादी है. उस दौरान तीनों यार उस लड़की नताशा से फिर-फिर मिलते हैं, जिसके साथ जतिन बहका था. दोनों के बीच कैमिस्ट्री डिवेलप होती है और तभी उजागर होने शुरू होते हैं कई सामाजिक, मनोवैज्ञानिक सच. इन सारे सत्यों का बेस कैंप बनता है, बर्फ से घिरा वह गेस्ट हाउस जहां एक कपल एड्स अवेयरनेस के लिए एनजीओ चलाता है. आखिर में जतिन की लाइफ में आता है ट्विस्ट और फिर उसे आती है समझ कि सावधानी ही बचाव है.
ये क्या किया तुमने नील
फिल्म बबलू हैपी है को बनाया है नील माधव पांडा ने. इससे पहले वह ‘आय एम कलाम’ और ‘जलपरी’ जैसी सघन और संदेश से भरी फिल्में दे चुके हैं. मगर उन फिल्मों में चुस्त पटकथा, लिप्टर जैसे कई यादगार किरदार और दमदार एक्टिंग थे. जबकि बबलू हैप्पी है कन्फ्यूज्ड और नकल की मारी नजर आती है. फिल्म में अच्छी एक्टिंग की बात करें तो पीतमपुरा के हैरी के रोल में सुमित सूरी बहुत प्रभावित करते हैं. रोहन के रोल में अमोल पाराशर भी ठीक हैं. बाकी सबको देखकर लगता है, जैसे एक्टिंग कर ये स्क्रीन पर एहसान कर रहे हों. जतिन के रूप में सबसे ज्यादा फुटेज पाने वाले साहिल आनंद ने मौका मिस कर दिया. यही बात तमन्ना का रोल निभाने वाली प्रीत कमल और नताशा को परदे पर उतारने वाली इरिका पर भी लागू होती है. फिल्म में प्रवीण डबास का भी कैमियो है.
न जाने में ज्यादा बचाव है
‘बबलू हैपी है’ जबरन कूल होने की कोशिश करती है और इस फेर में बहुत शोर मचाती है. फिर जब यह ट्रैक बदलती है, तो एक डॉक्यू ड्रामा जैसी हो जाती है और लगता है गोया भारत सरकार का किसी सामाजिक समस्या पर बना ऐड देख रहे हों. फिल्म के न तो गाने खास हैं और न ही डायलॉग्स. डायलॉग्स को लेकर अफसोस इसलिए भी ज्यादा होता है क्योंकि इसकी क्रेडिट में नाम आता है संजय चौहान का, जिन्होंने आय एम कलाम, पान सिंह तोमर और साहिब बीवी गैंगस्टर जैसी फिल्में लिखी हैं. तो फाइनल फैसला ये है कि बबलू हैपी देखकर ज्यादातर लोग सैड हो जाएंगे.