पांच में से ढाई स्टार
हर मुल्क की मासूमियत को एक सांप डराता है. किस्सों में वह उस सांप को मारने के कई तरीके खोजने की कोशिश करता है. दुनिया का सबसे ताकतवर देश अमेरिका अपने एजेंटों के जरिए आतंकवादियों को मारता है. हम पर लंबे वक्त तक हुकूमत करने वाले ब्रिटेन के लिए यही काम जेम्स बॉन्ड करता है. और अपने देश भारत की बात करें तो यह काम फौज, पुलिस अफसर और इधर कुछ बरसों से सिनेमा में रॉ एजेंट कर रहे हैं.
एजेंट विनोद और एक था टाइगर के बाद अब आई है निखिल आडवाणी की डी डे. इस फिल्म में मुल्क की छाती पर सांप की तरह लोटते मोस्ट वॉन्टेड टेररिस्ट दाऊद इब्राहिम के खात्मे को दिखाया गया है. फिल्म फंतासी है, इसलिए दाऊद को यहां दाऊद न कहकर गोल्डमैन के छद्म टाइटल के साथ दिखाया गया है. फिल्म शुरुआत में रफ्तार और ब्यौरों के साथ कुछ रॉ एजेंट्स को दिखाती है. टीवी मीडिया के जरिए मशहूर हुए कुछ किस्सों को नए सिरे से पेश कर आस जगाती है. मगर फिर निखिल के भीतर का करण जौहर शागिर्द जाग जाता है और वह खून के बीच में बारीक प्रेम तलाशने में व्यस्त हो जाते हैं.
यहीं फिल्म बिखर जाती है, उसकी कहानी उलझ जाती है और रफ्तार का टायर बर्स्ट हो जाता है. डी डे पेशेवरों की जिंदगी के उलझे अतीत को, उनके भीतर के इंसान को दिखाने में बेजा खर्च हो जाती है और क्रिटिक्स की जुबान में कहें तो दो ढाई स्टार पर अटक जाती है.इस फिल्म को देख सकते हैं, अगर देसी तड़के के साथ तेज रफ्तार एक्शन और पाकिस्तानी मुल्क में हिंदुस्तानियों की जांबाजी देखना चाहते हैं. लेकिन इंग्लिश एक्शन के शौकीन हैं, तो यह फिल्म कई दूसरी देखी हुई फिल्मों का कॉकटेल लगेगी.
कहानी के कुछ सिरे
इंडिया का मोस्ट वॉन्टेड क्रिमिनल मुंबई और उसके बाद के दशकों के कई बम धमाकों को विदेश में बैठा अंजाम देता है. अब वह कुछ बूढ़ा हो चला है, धंधे की फिक्र में लगा है और इस वक्त पाकिस्तान के कराची शहर में वहां की खुफिया एजेंसी आईएसआई की सरपरस्ती में रह रहा है. जल्द ही उसकी बेटी की शादी पाकिस्तान के एक मशहूर क्रिकेटर के बेटे से होने वाली है. उसे जिद है सुरक्षा की अनदेखी कर वहां जाने की. इस मौके को भुनाने में लगे हैं रॉ के कुछ एजेंट. इनमें सबसे अव्वल है बरसों से झूठी पहचान के साथ पाकिस्तान में नाई का पेशा अपना कर रह रहा वली खान. ऑपरेशन के लिए पहुंचते हैं इंडियन आर्मी के कैप्टन रुद्र प्रताप सिंह, बॉम्ब एक्सपर्ट जोया. सलीम नाम का एक चौथा शख्स भी है जो डॉन के यहां ड्राइवरी कर रहा है, मगर असल में रॉ चीफ अश्वनी की बजाता है.
डॉन को गिराने का प्लान पूरी कामयाबी से आगे बढ़ रहा है, मगर ऐन मौके पर चूक हो जाती है. फिल्म के दूसरे हिस्से में इस चूक को और दूसरी इंसानी गलतियों और गफलतों को दुरुस्त करने की कोशिश की जाती है.इस बीच प्रेम के कुछ उलझे तागे हैं. वली की बीवी और बच्चा है, जिन्हें उसने पाकिस्तान में पाया और नहीं चाहता है कि वे इन सबमें कुछ खोएं. जोया का मंगेतर है, हमें जिसकी सिर्फ उलझन भरी और चिरौरी करती आवाज सुनाई देती है. रुद्र के प्यार में पड़ी एक तवायफ है, जिसके चेहरे पर अतीत का गहरा निशान है. ये सबके सब निशान अक्सर कहानी का बेतरह ध्यान भटकाते लगते हैं.
एक्टिंग और डायरेक्शन पर कुछ बातें
इरफान चुप्पी, मुस्कुराहटों और उनके बीच कुछ बातों को निभाना जानते हैं और एक्टिंग के लिहाज से कहें तो उनके पास विस्तार देने को सारा आकाश तो था नहीं यहां. उनकी बीवी के छोटे से रोल में श्रीसवारा याद रह जाती हैं, अपनी घुंघराली लटों और उनके बीच सिमटे बेचैन चेहरे के साथ. अर्जुन रामपाल इसी तरह के रोल्स के लिए बने हैं. चेहरे पर सख्ती भरा मिशन पूरा करने का यकीन. हल्की दाढ़ी और ताबड़तोड़ तेवर. उनके हिस्से भी काफी मौन आया है, जो गाढ़ा दिखता है. हुमा कुरैशी फिलर की तरह हैं.
डॉन बने ऋषि कपूर अपनी एक्टिंग की सेकंड इनिंग में गब्दू विलेन के रोल बखूबी निभा रहे हैं. औरंगजेब के बाद यह दूसरी फिल्म है, जिसमें उनके चबाते हुए बोल वचन जेहन में ठहर जाते हैं. केके रैना थिएटर के मंजे हुए एक्टर हैं और यहां पाकिस्तानी जनरल के रोल में अब तक के स्टीरियोटाइप को तोड़ते हुए ज्यादा रियल लगते हैं. कराची की तवायफ सुरैया के रोल में श्रुति हसन ज्यादा उम्मीद नहीं जगा पाती हैं. औसत ही है उनका काम. रॉ चीफ के रोल में नासर हैं, जो जमते हैं अपने किरदार में. उन्हें हमने पिछली बार राउडी राठौड़ में मेन विलेन के रूप में देखा था. मगर याददाश्त पर जोर न दें, तो पहचानना मुश्किल हो जाए उस रूप को.
निखिल आडवाणी फिल्म के डायरेक्टर और राइटर टोली के एक मेंबर हैं. उन्होंने दाउद की बेटी की चर्चित शादी और उसमें रॉ के प्लान किए मगर आखिरी में फुस्स हो गए एक्शन को नए सिरे से जिंदगी बख्शी है इस कहानी में. मगर जैसा मैंने पहले कहा कि दरगाह के गाने, प्रेम के गाने, विछोह के गाने के चक्कर में फिल्म के माने खो देते हैं वह. उनको क्रेडिट बस इस बात का जाता है कि उन्होंने किसी एजेंट से सुपर हीरो जैसे सलमानी करतब नहीं करवाए और इंसानी गल्तियों के लिए भरपूर गुंजाइश रखी. फिल्म के डायलॉग और धारदार होते तो और मजा आता.
और अंत में जजमेंट
डी डे एक माफिया को मारने की कवायद दिखाती है. एबोटाबाद में लादेन को मारने के बाद भारत पर भी पाकिस्तान में छिपे अपने मोस्ट वॉन्टेड को उसी कमांडो एक्शन की तर्ज पर मारने का दबाव बढ़ गया है. इसी दबाव और उसके मुमकिन होने की कहानी है डी डे. इसमें भारतीय तंत्र के कुछ पेच बखूबी दिखाए गए हैं. मसलन पीएम का हर बात के लिए मैडम की परमीशन लेना. रॉ की अंदरूनी राजनीति और देश का मुश्किल के मौके पर अपने एजेंट को लावारिसों की तरह छोड़ देना. मगर इतने सघन कैनवस के होते हुए भी फिल्म अपनी लय कहीं कहीं खराब कर देती है. तेज रफ्तार फिल्मों के शौकीन हैं और मुंबई माफिया का अगला चरण देखना चाहते हैं, तो यह फिल्म एक बार देखी जा सकती है. मगर ध्यान रहे बहुत सिनेमाई उम्मीदों के साथ न जाएं.