एक्टरः सिद्धार्थ गुप्ता, आशीष जुनेजा, सिमरन कौर मुंडी, सिद्धार्थ भारद्वाज, अमित सियाल, ब्रजेश काला, राजेश शर्मा
डायरेक्टरः अमन सचदेवा
रेटिंगः 5 में 1.5
कुकू और रॉनी. दिल्ली के 12वीं पास दो दोस्त. कुकू लोअर मिडल क्लास का लड़का. पापा का एक ही सपना. बेटा खूब पढ़ो और नासा के साइंटिस्ट बनो. रॉनी के घर वालों का कपड़ों का मीडियम साइज बिजनेस. रॉनी के साड़ियों के गोदाम में दोनों दोस्त बैठते हैं और फ्रूट बियर पीकर फन करते हैं. कुकू का एक ही अरमान है. ट्यूशन वाली दीदी के सामने रहने वाली आंटी की लड़की मिताली मेरी गर्लफ्रेंड बन जाए.
रिजल्ट आता है. कुकू के पापा के अरमानों को पलीता लगता है. रॉनी तो अपनी मैचिंग सेंटर की दुकान पर बैठने लगता है. यारी पर ब्रेक लगता है तो कुकू इधर उधर नौकरी खोजता है. हर जगह उसकी झंड होती है. फिर उसकी लाइफ में आते हैं कानपुर वाले प्रभाकर भइया. प्रभाकर बाबू आते हैं और अपनी तिकड़म से सब सेट करने की कोशिश करने लगते हैं. कुक्कू की निकल पड़ती है. उसकी मर्जी का रेस्तरां खुल जाता है. मिताली उसकी गाड़ी की बैकसीट पर आ जाती है और वह अपने दोस्त रॉनी को नीचा दिखाने में कामयाब हो जाता है. पर जब सब कुछ सही लग रहा होता है. कुकू के भीतर का अपराध बोध जाग जाता है. उसकी बुद्धि खुलती है और वह सब कुछ सही तरीके से करने के फेर में और उलझ जाता है.
फिल्म में डेब्यू किया है कुकू के रोल में सिद्धार्थ गुप्ता और मिताली के रोल में सिमरन कौर मुंडी ने. सिद्धार्थ गुप्ता कन्फ्यूज्ड टीनएजर के रोल में औसत ही दिखे हैं. सिमरन कौर मुंडी भी बस ब्यूटी बॉक्स को टिक करने के ही काम आती हैं. रॉनी के रोल में आशीष जुनेजा जरूर कुछ रेंज दिखाते हैं. रोडीज से मशहूर हुए वीजे सिद्धार्थ भारद्वाज भी फुस्स साबित होते हैं.
फिल्म में माता रानी के जागरण के सीन में राजेश शर्मा और कृपा वाले बाबा के सीन में ब्रजेश काला आते हैं और फिल्म को कुछ और रंग बख्शते हैं. मगर ओवरऑल फिल्म में ज्यादातर लोगों की एक्टिंग या तो लाउड लगती है या कमजोर. सिवाय एक शख्स के. अमित सियाल जो कानपुर वाले प्रभाकर भइया बने हैं. उन्होंने अपने रंग ढंग, बोली और अंदाज में भरपूर कमीनगी दिखाई है.
फिल्म की कहानी में करोल बाग नुमा दिल्ली दिखाने की कोशिश हुई है. जहां के लड़के आज भी दोस्तों को ब्रो नहीं भाई बुलाते हैं और बस सेट हो जाना चाहते हैं. उनकी कामनाओं का आकाश एक गर्लफ्रेंड, बीयर सेशंस, फोन, आउटिंग और ऐसे ही कुछ और सपनों तक सीमित है. कहानी बिखरी हुई है और उसमें जबरन जागरण, बाबा और बिहारी गार्ड और उसकी गांव में रहती पत्नी जैसे एलिमेंट डाले जाते हैं. अमन सचदेवा का डायरेक्शन टुकड़ों टुकड़ों में ही कुछ ठीक लगता है. फिल्म के गाने भी एवरेज से कम हैं.
कुकू माथुर वही देखें, जिन्हें दिल्ली की फिल्में और टीनएजर्स की स्टोरी देखने का भयानक चस्का है. बाकी हमारा फैसला यह है कि कमजोर कहानी, टाइपकास्ट हो चुके किरदार और लीड पेयर की औसत एक्टिंग के फेर में फिल्म कुकू माथुर की झंड हो गई.