फिल्म रिव्यूः क्या दिल्ली क्या लाहौर
एक्टरः विजय राज, मनु ऋषि चड्ढा, राज जुत्शी, विश्वजीत प्रधान
डायरेक्टरः विजय राज
ड्यूरेशनः 1 घंटा 38 मिनट
रेटिंगः 5 में 3.5 स्टार
लकीरें हैं तो रहने दो
किसी ने रूठकर गुस्से में शायद खींच दी थीं
इन्हीं को अब बनाओ पाला
और आओ अब कबड्डी खेलते हैं...
- गुलजार साहब
आदमी ने आग खोजी. भीतर की आग शांत करना आसान हो गया. फिर चक्का बनाया और खेती शुरू कर दी. खेतों की देखभाल के लिए उनके बीच झोंपड़ी बना ली. कुंए खोद लिए. और बस्तियां बस गईं. तो फिर बवाल कब शुरू हुआ. उस दिन, जिस दिन एक आदमी ने एक डंडी उठाकर जमीन पर एक घेरा बनाया. और फिर कहा. जमीन का ये टुकड़ा मेरा है. टुकड़े घटते बढ़ते गए. फसाद लगातार बढ़ते गए. कबीले बने, सल्तनत बनीं, मुल्क बने. और इस बनने में बिगड़ गए इंसान.
तो गौर से फिर एक बार देखिए. खेत हैं, खेत के बीच झोंपड़ी है. नहीं नहीं ये तो फौजी आउटपोस्ट है. इससे कुछ फर्लांग दूरी पर एक लकीर है. जो नजर नहीं आती. लकीर के उस पार बताया जाता है कि पाकिस्तान है. इस तरफ हिंदुस्तान है. ये बताना जरूरी हो जाता है क्योंकि न बताया जाए तो फर्क समझ न आए. वहां भी ऊपरी हिस्से के लोग पंजाबी बोलते हैं, यहां भी. वहां भी क्रिकेट के लिए दीवाने हुआ जाते हैं, यहां भी. वहां भी करप्शन है और यहां भी. वहां वालों को बताया जाता है कि सारे फसाद की जड़ हिंदुस्तान वाले हैं और हमें भी सिखाया जाता है कि पाकिस्तान से नफरत करो.
मगर इस शोर के बीच एक पुराने बरगद के नीचे कुछ दरवेश बैठे रहते हैं. कंधों पर कौओं को जमाए. उन्हें यहां वहां जाने के लिए वीजा नहीं चाहिए होता. ये दरवेश किस्से सुनाते हैं. साझेपन के. ऐसा ही एक किस्सा अब पर्दे पर नुमाया हुआ है. नाम है क्या दिल्ली, क्या लाहौर. ये किस्सा उस झोंपड़ी सी दिखती आउटपोस्ट से शुरू होता है और वहीं पर खत्म. मगर सच्चे किस्से खत्म कहां होते हैं. वे तो बीज की तरह हमारे भीतर धंस जाते हैं. फिर आंच नमी पा जब तब बढ़ने लगते हैं.
वक्त है 1948 का. भारत-पाक सीमा पर एक फौजी चौकी है. पाकिस्तानियों ने इस पर हमला किया है. दोनों तरफ के ज्यादातर लोग खेत रहे. पाकिस्तान की तरफ से बचा एक सिपाही. रहमत अली (विजयराज). उसका कैप्टन ताना मारता है, तू जिंदा है तो आगे बढ़. स्साला मुहाजिर (वे लोग जो भारत से जाकर पाकिस्तान में बसे) कहीं का, दिखा पाकिस्तान के लिए अपनी वफादारी. रहमत आगे बढ़ता है. उसे जाना है और दुश्मनों के अड्डे से एक फाइल लेकर आना है. इस फाइल में एक सुरंग के ब्यौरे हैं. सुरंग जो हिंदुस्तानी खोद रहे हैं, दिल्ली से लाहौर के बीच. उधर, हिंदुस्तानी चौकी पर डर से कंपकपाता एक सिपाही है. नहीं नहीं बस वर्दी ही खाकी है. है तो वह एक बावर्ची. नाम है समर्थ (मनु ऋषि चड्ढा).
रहमत और समर्थ के बीच मुठभेड़ शुरू होती है. बात होती है, लात भी चलती है. कभी परांठे बनते हैं, तो कभी पानी भरा जाता है. कभी गोली चलती है तो कभी गाली दे कोसा जाता है. और इसी गुफ्तगू के बीच दोनों के बहाने दो मुल्कों की तकलीफ सामने आती है. कैसे सियासत के फेर में इंसान बांट दिए गए. रहमत जो दिल्ली का रहने वाला था और अब लाहौर में अपनी गली तलाश रहा है. समर्थ, जो लाहौर के शाहों का लड़का था और अब दिल्ली में पैर जमा रहा है. दोनों के शहरों का जिक्र क्या हुआ. उन्हें एक साझी जमीन मिल गई. बंदूक किनारे हो गई और जबान आगे. एक जी जनाब पर आ गया तो दूसरा भाई जान पर. मगर हर पेड़ पर शहद कहां लगता है. सो कहानी में कुछ नए किरदारों के जरिए फिर कसैलापन लौटता है, जरूरी सबक दे जाने को.
फिल्म में ज्यादातर सीन और संवाद विजय राज और मनु ऋषि के बीच हैं. दोनों ने कमाल की एक्टिंग की है. जब संवाद कम होते हैं, तब अभिनय और भी असरदार होता है. मगर ऐसा कम ही होता है. इसके अलावा राज जुत्शी और विश्वजीत प्रधान भी छोटे रोल में मुकम्मल असर छोड़ते हैं. फिल्म की खासियत हैं, इसकी चुस्त एडिटिंग, उम्दा अभिनय और मौजू डायलॉग, जो कभी मजाक तो कभी मौत की सिहरन पैदा करते हैं. मगर बेहतर होता कि समर्थ और रहमत के बीच की मुंहाचाही को और विस्तार दिया जाता. एक वक्त के बाद इसमें एकालाप सी नीरसता आ जाती है. फिल्म का बैकग्राउंड स्कोर भी कभी कभी कुछ ज्यादा ही वजनी हो जाता है.
विजय राज ने बतौर डायरेक्टर बहुत भरोसा जगाया है. गुलजार की आवाज फिल्म को एक किस्म की पवित्रता बख्शती है. मनु ऋषि ने डायलॉग्स में लाहौर और दिल्ली के निखालिसपन को जिंदा कर दिया है.
फिल्म को देखकर तमाम लोगों को उस फिल्म की याद आ सकती है, जिसके हाथों ऑस्कर में लगान हारी थी. बोस्निया हर्जेगोविना की फिल्म नो मैंस लैंड. वहां भी दो अलग पालों में खड़े सिपाही मानवीय त्रासदी का आख्यान अपनी कहानियों और संवादों के जरिए सुनाते हैं. यहां भी कुछ ऐसा है.
मगर एक दिक्कत है. फिल्म के साथ कम, हमारे साथ ज्यादा. अभी कुछ दरवेश हैं. गुलजार और कुलदीप नैयर से. कुछ गुजर गए खुशवंत सिंह और यशपाल से. जो हमें उस पार की कहानियां सुनाते थे तो हूक सी उठती थी. लाहौर अपना सा लगता था. कराची में तफरीह का जी करता था. मुझे यकीन है कि उस तरफ के लोग भी चांदनी चौक में निकाह की खरीदारी को मचलते होंगे, तड़पते होंगे. पर क्या वाकई. क्या हमारे लिए पाकिस्तान सिर्फ एक बदमाश पड़ोसी भऱ है. उसके साथ का साझापन बस यहीं ठहर जाता है. उसके पार कुछ नहीं. जब ये पीढ़ी गुजर जाएगी तो बंटवारे के बाद यहां आई तो क्या उनके साथ उस जमीन के लिए पैदा होने वाले मादरी ख्याल भी खत्म हो जाएंगे.
मुझे इस वक्त पीएम मनमोहन सिंह की शक्ल याद आ रही है. बड़ी आरजू थी उनकी, पाकिस्तान में उस गांव में जाने की, जहां वह पैदा हुए, पले, कुछ वक्त पढ़े. नहीं जा सके. एक नेता के आड़े राजनीति आ गई. सोचिए जब पीएम नहीं आ जा सकते, तो आम इंसानों की बिसात ही क्या. और तब ये किस्से बचते हैं, जो आस बचाए रखते हैं. कभी तो आपसी तकरार कम होगी. कभी तो हम फिर एक साथ बैठ गुनगुनाएं. अमन का गीत गाएंगे. और इस दुआ के दौरान फिल्म की जमीन की तरफ ध्यान लौटता है. काश दिल्ली और लाहौर के बीच एक सुरंग होती. जिसके सहारे हम अंदर से जुड़े रहते.
क्या दिल्ली क्या लाहौर देखिए, ताकि सनद रहे कि सिर्फ जमीन बंटी है. और इस बंटने के पहले सब कुछ साझा था, है और रहेगा. मुझे उम्मीद है कि अगले हफ्ते सरहद पार जब ये फिल्म रिलीज होगी, तो उनके ख्याल भी कुछ ऐसे ही होंगे. हक जमाते, हासिल करते, मुहब्बत के जरिए. लड़कर भी कभी कोई जीता है क्या.
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