फिल्म का नाम: कजरया
डायरेक्टर: मधुरीता आनंद
स्टार कास्ट: मीनू हूडा, सुमित व्यास, रिद्धिमा सूद, कुलदीप रुहिल, शशि भूषण ,करिश्मा माथुर
अवधि: 2 घंटा 13 मिनट
सर्टिफिकेट: A
रेटिंग: 2.5 स्टार
भारत में सामाजिक मुद्दों पर कई फिल्में बनी हैं, और इस बार उन्हीं में से एक अहम मुद्दा 'कन्या हत्या' पर यह फिल्म बनाई गई है, आइए फिल्म की समीक्षा करते हैं-
कहानी-
यह कहानी दो महिलाओं की है, एक कजरया (मीनू हूडा) जो हरियाणा के एक गांव में रहती है, जिसे गांव वाले 'माता' के रूप में अपने घर की नवजात लड़कियों को सौंप देते हैं और वो उनका कत्ल कर दिया करती है और बदले में घरवालों को लड़का होने का आशीर्वाद दिया करती है और वहीं दूसरी तरफ दिल्ली के एक मीडिया एजेंसी में काम करने वाली मीरा शर्मा (रिद्धिमा सूद) हैं जो उस गांव में जाकर पूर्णमासी के दिन हुई घटना की तफ्तीश कर रही होती है, और इस दौरान बनवारी (कुलदीप रुहिल) और कजरया से भी मुलाकात करती है. अब क्या मीरा, इस पूरी घटना का पर्दाफाश कर पाएगी? इसके लिए आपको फिल्म देखनी पड़ेगी.
स्क्रिप्ट-
फिल्म की कहानी भारत के गांवों की जमीनी हकीकत और खास तौर से नवजात बच्चियों की हत्या पर फोकस करती है. फिल्म में गांव के लोगों की चुप्पी, और एक दबंग ग्रुप की तरफ भी इशारा किया गया है जो बलपूर्वक किसी से कुछ भी करवाने में सक्षम है. स्क्रिप्ट में गांव के लोगों और पुलिस के बीच साथ गांठ को भी दर्शाया गया है. कहानी तो अच्छी है लेकिन उसका फिल्मांकन और भी अच्छा हो सकता था. इमोशनल माहौल में जिस तरह से इस फिल्म की शुरुआत होती है, कहानी का अंत और भी बेहतर दिखाया जा सकता था. फिल्म में आखिर में जो आंकड़े दिखाए गए हैं वो 'आंखें खोलने' का काम भी करते हैं और बताते हैं की फिल्म के पीछे काफी रिसर्च की गयी है. फिल्म की शूटिंग टिपिकल डॉक्यूमेंट्री स्टाइल में की गयी है जो शायद ज्यादा दर्शकों को आकर्षित कर पाने में कामयाब नहीं हो पाएगी.
अभिनय-
फिल्म का टाइटल रोल अदा कर रही मीनू हूडा ने बेहतरीन अदाकारी की है. मीनू का गुस्से से लेकर भावुकता तक का अभिनय सराहनीय है, वहीं बनवारी का किरदार निभा रहे कुलदीप रुहिल ने भी अच्छा काम किया है, रिद्धिमा सूद ने पत्रकार के रूप में ठीक-ठाक अभिनय किया है जो कि और फोकस करतीं तो ज्यादा सराहनीय होता.
कमजोर कड़ी-
फिल्म की कमजोर कड़ी इसका फिल्मांकन है, मुद्दा अहम है लेकिन उसे काफी धीमी गति से फिल्माया गया है, मेकर्स को ज्यादा से ज्यादा दर्शकों तक पहुंचने के लिए इस फिल्म को और अलग रूप देना चाहिए था, खास तौर से इसका निष्कर्ष बेहतर हो सकता था.
क्यों देखें-
सामाजिक मुद्दों पर आधारित फिल्में देखते हैं, तो जरूर देखिए.