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साथ के सहारे खुद को पाने के सफर का नाम है इरफान और निमरत की फिल्म द लंच बॉक्स

कैसी फिल्म है द लंच बॉक्स? जब से देखकर आया हूं, सब यही सवाल पूछ रहे हैं. जवाब बहुत सीधा सा है. बेहद सच्ची, सरल, कई परतों में नुमांया होती फिल्म है ये. ट्रेलर देखकर लगता है कि लव स्टोरी है द लंच बॉक्स. मगर ये उससे कहीं आगे बढ़कर खुद को नए सिरे से समझने, बीते वक्त के अंधेरे में घिरे जालों को साफ करने और एक नए सफर का हौसला कायम करने की कहानी है

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फिल्म द लंच बॉक्स का एक सीन
फिल्म द लंच बॉक्स का एक सीन

फिल्म रिव्यूः द लंच बॉक्स

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एक्टरः इरफान, निमरत कौर, नवाजुद्दीन सिद्दीकी

डायरेक्टर और राइटरः रीतेश बत्रा

ड्यूरेशनः 1 घंटा 44 मिनट

कैसी फिल्म है द लंच बॉक्स? जब से देखकर आया हूं, सब यही सवाल पूछ रहे हैं. जवाब बहुत सीधा सा है. बेहद सच्ची, सरल, कई परतों में नुमांया होती फिल्म है ये. ट्रेलर देखकर लगता है कि लव स्टोरी है द लंच बॉक्स. मगर ये उससे कहीं आगे बढ़कर खुद को नए सिरे से समझने, बीते वक्त के अंधेरे में घिरे जालों को साफ करने और एक नए सफर का हौसला कायम करने की कहानी है. ये अंदर की आवाज से राब्ता कायम करने और समाज में सच सी हो चुकी खौफनाक सोचों की पपड़ी उखाड़ने की कोशिश भी है. अगर आपको अच्छी फिल्में देखने का शौक है, परिवार के साथ फिल्में देखने का शौक है और अगर आपके लिए सिनेमा का मतलब यह है कि जब हॉल से लौटें तो साथ में कहानी का एक टुकड़ा अपने दिमाग की जमीन पर रोपकर लौटें. तो लंच बॉक्स आपके लिए है.

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मुंबई में एक एकाउंटेंट है. दशकों से एक सरकारी दफ्तर में फाइलों के बीच घिरा काम करता है. उसका नाम फर्नांडिस (इरफान) है. उसकी जिंदगी एक लकीर के बार बार खींचे जाने से बनी बासी खरोंच सी है. दफ्तर में आंकड़े चेक करना. लंच ब्रेक में रेस्तरां का खाना खाना. छुट्टी के बाद लोकल पर सवार होने से पहले सिगरेट पीना. वापस जाकर होटल का पैक खाना खाना और उसके बाद बालकनी में एक और सिगरेट पीना.सब कुछ भांय भांय करता हुआ सा, मगर खोखला कर देने वाली चुप्पी के साथ.

फिर एक रोज उसके पास जो लंच बॉक्स आता है. वो किसी और का है. ये लंच बॉक्स नहीं है एक अदृश्य पुल है. ये पुल इंसानों का वजन नहीं सह सकता, मगर उनके ख्यालों को बखूबी इस कोने से उस कोने ले जाता है. एक आंख है, जो चश्मा उतार लंच बॉक्स में रखे पकवान सूंघती है, सहलाती है, सराहती है और फिऱ खाती है.उधर पुल के दूसरे छोर पर है एक औरत. इला (निमरत कौर) नाम है उसका. इला की एक बच्ची है और एक पति भी. जो बस दफ्तर से आता जाता है और पत्नी से एक महानगरीय किस्म की ठंडक बरतता है.इला को जब इलहाम होता है कि डब्बा कहीं और पहुंच गया. तो रोटी के साथ पर्ची जाने लगती है.

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ये सिलसिला शुरू होता है, तो बिना मिले मिलना हो जाता है. दुख, तकलीफ, चिंताएं और अरमान एक दूसरे के सामने बिछने लगते हैं. और इसी क्रम में इला और फर्नांडिस नए सिरे से खुद को संवार पाते हैं, डरों के पार जा पाते हैं. इस सफर के दौरान इन दो के बीच दुनिया है और उस दुनिया का बिल्ला पहन हाजिरी भरता है शेख (नवाजुद्दीन). शेख है, तो वो सब चीजें हैं, जो हमें बनाती हैं. अकेला होने का, जूझने का, प्यार पाने का और छोटी छोटी दुनियावी साजिशें रचने का माद्दा.

फिल्म की खूबसूरती इसमें है कि ये आज के वक्त के अपनापे और कह सकें तो कहें कि प्यार की तरह अश्लीलता की हद तक जाहिर नहीं है. यहां कुछ भी तुरत फुरत नहीं है. जबरन की बेचैनी नहीं है.एक तनाव सा है, जो इस कहानी को देखने वाले को अपना राजदार बना लेता है. आप इसे देख रहे हैं और इस क्रम में दोनों किरदारों के राजदार हो रहे हैं. फिर खुद को बताए बिना आप अपने ढंग से इन किरदारों को कुछ बताना चाहते हैं, दूसरों के बारे में. उनके तनाव से आप भी तारी होने लगते हैं. एक कहानी के जिंदा होने का सुबूत होता है ये अनुभव.

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फिल्म में इरफान नहीं हैं. एक शख्स है शालीन ढंग से चिढ़चिढ़ा या कहें कि रिजर्व हो चुका. अधेड़ होने को अभिशप्त. उसकी कलमों के किनारों से पलस्तर उखड़ने लगा है काले रंग का. और जब फिल्म में एक्टर न हो. बस किरदार ही हो, तो आप समझ लीजिए कि अभिनय कितना तसल्लीबख्श रहा होगा.निमरत कौर को देखकर लगा ही नहीं कि वह पहली बार किसी फिल्म में काम कर रही हैं. एक्टिंग नहीं कहूंगा, एक किस्म का छिछलापन सा लगता है इला के रोल में उन्हें देखने के बाद इस क्रिया के इस्तेमाल में. कई मोड़ लेकर खुद में सिमटी इला. कुछ झिझकती, बेसबब यकीन करती और फिर उस देस के सफर को निकलती इला, जहां पैसे नहीं खुशी और अपना साथ मायने रखता है.नवाजुद्दीन का छोटा सा रोल है, मगर उसके सफे इतने बारीक और साफ हैं कि शेख में आप खुद को देखने लगते हैं. इतने अकेले कि अनाथ सा महसूस करते. इतने मजबूत कि सब कर डालूंगा का जज्बा रखते. औऱ फिर स्कूटर जैसी चीजें पाने के लिए एक लज्जत भरी साजिश रचते.

फिल्म खत्म नहीं होती. आप बाहर आते हैं और ये आपके साथ चली आती है. आप अपने ढंग से इसका क्लाइमेक्स बदलते रहते हैं. गढ़ते रहते हैं एक नई कहानी कि अब इला और फर्नांडिस के साथ क्या होगा. और इस दौरान एक और आवाज आ मिलती है. आंटी की आवाज (भारती अचरेकर की आवाज). ये आंटी इला की साथी हैं. या कहूं कि उनकी आवाज. यहां पर डायरेक्टर और राइटर रीतेश बत्रा की बारीक मीनाकारी का एक और तजुर्बा हासिल होता है. क्या खूब फिल्म बनाई है तुमने यार.यकीन को एक नई ऊंचाई दे दी. यकीं कि सिनेमा ऐसी सरल और इसीलिए जटिल कहानियों को भी कहने की गुंजाइश रखता है भारत में.

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अब देखिए न. बेटों को मरे जाते इस देश को. जहां इला की मां (लिलिट दुबे) को ये सुख नहीं है कि ब्याहता बेटी उनकी मदद कर रही है. ये दुख है कि अगर उसका बेटा जिंदा होता, तो आज यूं हाथ न फैलाने पड़ते. मां ये कहती है और बेचारगी और खीझ में भरी बेटी से फिर पैसे भी ले लेती है. मां ये कहती है और उसी दौरान इला की बेटी पर हाथ भी फेर रही होती है. ऐसे कई प्रतीक हैं द लंच बॉक्स में. पपड़ियां उखाड़ते, बिना आवाज किए. कुछ शोर हैं, गुनगुने से. मुस्कुराने को मजबूर करते.

द लंच बॉक्स जरूर जरूर देखिए. मन भरपेट तृप्त होगा इस बॉक्स को खोलने और खाने के बाद.

फिल्म द लंच बॉक्स का ट्रेलर

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