देश के किसी भी हिस्से में हमारी पैदाइश हो, बचपन से अब तक कुछ साझी कहानियों ने हमें एक धागे में बांधा है. मिजाज के मुताबिक ये कहानियां हमारे खलीते में आई हैं. बचपन में रामायण की कहानी. भाई से प्यार सीखना हो तो राम-लक्ष्मण की प्रीत. बहादुरी सीखनी हो तो हनुमान सा बनने की ललक. क्रिकेट की बात करें तो पिछली पीढ़ी सुनील गावस्कर के किस्से सुन बड़ी हुई तो हमारी पीढ़ी सचिन तेंदुलकर के. इस सिलसिले में एक नाम ऐसा है, जो पीढ़ियों के पार साझा होता रहा, कुछ-कुछ रामायण की कहानी की तरह. यह नाम है रमेश सिप्पी की साल 1975 में आई फिल्म ‘शोले’ का. इस फिल्म का एक-एक किरदार और दर्जनों डायलॉग हमारी जुबान पर बिना मेहनत किए चढ़ गए. हम रोजमर्रा की बातचीत में इनका इतनी बार इस्तेमाल करते हैं, गोया ये डायलॉग नहीं हमारी भाषा में सदियों से चलन में बने मुहावरे हैं.
तो ऐसे में जब इस सिनेमाई शाहकार का 3डी वर्जन सिनेमाघरों में रिलीज होता है, तो आप एक किस्म के नॉस्टैलजिया में घिर जाते हैं. एक फिल्म समीक्षक के तौर पर शोले का रिव्यू करना तो वैसे ही क्षमता के परे है. मगर एक दर्शक के तौर पर पर भी इस फिल्म को 70 एमएम के पर्दे पर देखना खास किस्म की अनुभूति देता है. मगर कुछ खीझ के साथ लिखना पड़ रहा है कि आज रिलीज हुआ फिल्म शोले का 3डी वर्जन इस मजे को कुछ खराब कर देता है. फिल्म में 3डी का असर दो बार साफ तौर पर दिखता है. पहला, जब जय और वीरू इंस्पेक्टर बलदेव सिंह के साथ मालगाड़ी में आते हैं और ट्रेन पटरी पर डकैतों द्वारा बिछाए लकड़ी के लट्ठों से टकराती है. कुछ लट्ठ उड़ते हुए दर्शकों तक भी आते हैं. दूसरा मौका तब आता है, जब इंस्पेक्टर जय वीरू की हड़कड़ी खोलने के लिए गोली चलाते हैं. गोली लोहे को भेदती हुई सिनेमा हॉल के पार जाती है. लेकिन ऐसे कुछ दृश्यों के अलावा फिल्म पर 3डी तकनीक एक बोझ की तरह पसरी हुई है.
मेरी समझ में बेहतर यह होता कि फिल्म को 2डी तकनीक के साथ ही बड़े पर्दे पर दिखाया जाता. एक और काम हो सकता था औऱ वह यह कि इसके एडिट किए गए दृश्यों को असल फिल्म के साथ जोड़ दिया जाता. या फिर अंत में वह सीन भी दिखाए जाते, जो बाद में स्टोरी बदलने के फेर में हटा दिए गए. मसलन, ठाकुर बलदेव सिंह के हाथों गब्बर की मौत का प्रसंग. इसका वीडियो यूट्यूब पर बहुत हिट है. मगर इमरजेंसी के दौर में कानून की महत्ता स्थापित करने के लिए इस सीन को हटा दिया गया था. असल सीन यह था कि मौके पर पहुंचा इंस्पेक्टर ठाकुर को कानून के प्रति सम्मान की बात याद दिलाता है और प्रतिशोध में कांपता ठाकुर का पैर आखिरी प्रहार से पहले रुक जाता है.
बहरहाल, सब कही-सुनी सब एक तरफ. जय वीरू की दोस्ती, गब्बर के खौफ, ठाकुर का क्रोध, बसंती की शोखी या फिर सूरमा भोपाली के मजाक देखना हर बार जादुई होता है. ये दादी की कहानी से गुजरने जैसा है, जो कभी पुरानी नहीं पड़ती. तुम्हारा नाम क्या है बसंती, अब तेरा क्या होगा कालिया, ये हाथ हमें दे दे ठाकुर, छम्मकछल्लो जब तक तेरे पैर चलेंगे, इसकी सांस चलेगी...संवादों का ये सिलसिला कहीं रुकता नहीं. शोले शानदार है और अगर 3डी वर्जन की तकनीकी खामियों को दरकिनार कर सकते हों, तो बड़े पर्दे पर देखने के लालच को पूरा करना गुनाह नहीं होगा.वैसे ही हमारी पीढ़ी में बहुत सारे लोग ऐसे हैं, जिन्होंने टीवी पर इत्मिनान से बैठकर शोले नहीं देखी. उनके लिए भी ये एक अच्छा मौका साबित हो सकता है.