गुंजन सक्सेना जिसने बचपन में ही हवाई जहाज उड़ाने की हसरत पाल ली. वह आसमान को देखती, हवाई जहाज को देखती, वह अपने सपने को पूरा करने के लिए जीती. उसे एक ऐसे पिता मिले जिन्होंने लड़की और लड़के में फर्क नहीं किया. उन्होंने बेटी को आगे बढ़ाने में सामाजिक बेड़ियों को आड़े नहीं आने दिया. बेटी के सपने को अपना सपना बना लिया. बेटी की जीत में अपनी जीत और बेटी की हार में अपनी हार देखी. जेंडर इक्वलिटी के लिए इस फिल्म को तो याद किया ही जाएगा, इसे देशभक्ति के नए फलक और उग्र राष्ट्रवाद के बीच महीन अंतर के लिए भी याद किया जाएगा. अगर हम अपना काम पैशन के साथ करते हैं, लगन के साथ करते हैं, ईमानदारी के साथ करते हैं तो देशभक्ति अपने आप हो जाती है. गुंजन सक्सेना द करगिरल गर्ल हमें यह सिखा जाती है.
ये फिल्म गुंजन सक्सेना के वास्तविक जीवन पर आधारित है. जब लोगों के जीवन पर आधारित फिल्में बनती हैं तो यह जोखिम सदैव बना रहता है कि उसमें हकीकत कितनी होगी और फसाना कितना. इसका मिश्रण गड़बड़ाते ही विरोध की आवाज उठने लगती है. डॉक्युमेंट्री से अलग करने के लिए फिक्शन का सहारा लेना ही पड़ता है. नायक की जीत में दम तभी दिखेगा जब उसे विपरीत परिस्थितियों में निकलते दिखाया जाए. और यहीं पर समस्या खड़ी हो जाती है. सवाल तब और बड़े हो जाते हैं जब परिस्थितियां किसी इंस्टीट्यूशन की तरफ से खड़ी की जाएं लेकिन यहां तो सेना है. फिल्म पर लगातार सवाल उठ रहे हैं कि गुंजन सक्सेना के साथ जो भेदभाव दिखाया गया है वह वायुसेना की छवि को खराब करने की कोशिश है. फिल्म पर रोक लगाने की भी मांग की गई. सवाल यह भी उठे कि ओटीटी प्लेटफॉर्म पर रिलीज होने वाली फिल्मों को भी सेंसर बोर्ड से पास क्यों न कराया जाए.
ऐसे शुरू होती है गुंजन की उड़ान
फिल्म की कहानी एक उड़ान से शुरू होती है. बच्ची खिड़की से आसमान देखना चाहती है लेकिन भाई को सोना है, वह छोटी बहन को डांट देता है. एयर होस्टेस को दया आ जाती है और वह बच्ची को कॉकपिट में ले जाती है. बच्ची सीट पर बैठना चाहती है लेकिन कैप्टन कह देते हैं कि इसके लिए आपको पायलट बनना होगा. यहीं से गुंजन को जिंदगी का लक्ष्य मिल जाता है. वह हर हाल में पायलट बनना चाहती है. खाने की टेबल पर वह भाई उसका मजाक बनाता है कि लड़कियां केवल खाना पका सकती हैं. लेकिन गुंजन को पिता का समर्थन मिलता है जो गुंजन को समझाते हैं कि जहाज को उड़ाने वाला पायलट कहा जाता है. जहाज को यह नहीं पता होता कि उसे लड़की उड़ा रही है या लड़का.
एक पल वह भी आता है जब गुंजन सक्सेना हाई स्कूल अच्छे नंबरों से पास करती है. परिवार ने घर पर पार्टी दी है. लेकिन गुंजन को लगता है कि परिवार उसके सपनों को पूरा नहीं होने देगा. पिता का साथ उसे लगातार मिलता रहा है लेकिन एक अनजाना डर उसे घेरे रहता है कि शायद पिता इतनी बड़ी बात के लिए मना कर दें. सहेली के कहने पर वह हिम्मत करती है, घर पहुंचती है जहां पार्टी चल रही होती है, वहां वह ऐलान कर देती है कि उसे आगे क्या करना है.
हर कदम पर पिता ने की हौसला अफजाई
पिता (पंकज कपूर) उसे समझाने का बीड़ा उठाते हैं, बाप-बेटी की बात होती है और जब गुंजन की मां पूछती है कि क्या गुंजू मान गई तो पिता का कहना होता है ‘नहीं मैं मान गया’. पंकज कपूर ने इस भाव को पर्दे पर बड़े ही शानदार तरीके से उतारा है. सेना का रिटायर्ड अफसर जो अपनी पत्नी से डरता है लेकिन बेटी के सपनों का साथ देने के लिए वह किसी से भी लोहा ले सकता है वह भी स्वाभाविक तरीके से. और यहां से शुरू होता है गुंजन का संघर्ष. वह पायलट बनने के लिए कई बार फ्लाइंग एकेडमी जाती है लेकिन वहां हाईस्कूल, इंटर, ग्रैजुएशन से होते हुए बात पैसों पर अटक जाती है.
इस बीच पिता उसे सेना में पायलट बनने की सलाह देता है लेकिन गुंजन ने तो कमर्शल पायलट बनने का सपना देखा था. पिता सेना में थे, भाई भी फौज में भर्ती हो चुका है लेकिन गुंजन को लगता है कि वह देशभक्ति कहां से लाएगी. यह मासूम सवाल अपने पिता से पूछती है. जो देशभक्ति के भड़कीले शोर के बीच एक सच्चा सा सवाल लगता है. गुंजन के मन में सवाल घुमड़ रहा है वह पापा को जगाकर पूछती है. ‘पापा, एयरफोर्स में ऐसे कैडेट्स होने चाहिए जिनमें देशभक्ति हो. लेकिन मेरा तो बस प्लेन उड़ाने का सपना था. कहीं ये ख़्वाब पूरा करने के चक्कर में, मैं देश के साथ गद्दारी तो नहीं कर रही हूं?’ पिता का जवाब ऐसा है जो कई सवालों का जवाब दे देता है. पिता पूछते हैं कि गद्दार का विपरीत क्या होता है?
गुंजन कहती है – ‘ईमानदारी’.
फिर वो पिता कहते हैं ‘अगर तुम अपने काम में ईमानदार हो, तो देश के संग गद्दारी कर ही नहीं सकती. तुम्हे क्या लगता है एयरफोर्स को ‘भारत माता की जय’ चिल्लाने वाले चाहिए? उन्हें वैसे कैडेट्स चाहिए जिनका कोई लक्ष्य हो. जिनमें जोश हो. जो मेहनत और ईमानदारी से अपनी ट्रेनिंग पूरी करें. क्योंकि वही कैडेट्स आगे चलकर बेहतर ऑफिसर बनते हैं और देश को अपना बेस्ट देते हैं. तुम समझदारी से हार्ड वर्क से, ईमानदारी से एक बेहतर पायलट बन जाओ, देश भक्ति अपने आप हो जाएगी’. गुंजन के साथ ही यह बात बहुतों को आसानी से समझ में आ जाती है. इससे ऐसे लोगों को भी प्रेरणा मिलती है जो उग्र नारों में ही देशभक्ति की तलाश करते हैं.
संघर्ष तो अभी बाकी था...
गुंजन सक्सेना तमाम मुश्किलों के बाद एयरफोर्स में शामिल हो जाती है. वह ओवरवेट है, लेकिन उसकी लंबाई कम है लेकिन हाथों और पैरों की पहुंच ज्यादा होने से वह सेलेक्ट होने में सफल हो जाती है. इसके बाद शुरू होता है गुंजन सक्सेना का असली संघर्ष.
जैसा कि फिल्म में दिखाया गया है मर्दवादी सोच वाले सेना के लोग गुंजन को कबूल करने के लिए तैयार ही नहीं हैं. वहां के जूनियर कर्मचारियों को भी गुंजन को सैल्यूट करने में शर्मिंदगी होती है. लड़के बात करने के लिए तैयार नहीं होते. लड़की के लिए अलग से चेंजिंग रूम नहीं है. अलग से टायलट नहीं है, कोई उसके साथ ट्रेनिंग पर जाने को तैयार नहीं है. हर रोज उसकी शॉर्टी (ट्रेनिंग) किसी न किसी वजह से कैंसल हो जाती है. बात फ्लाइंग कमांडर तक पहुंचती है और वह खुद उसे ट्रेनिंग देने का फैसला देते हैं. उस दौरान गुंजन का परर्फामेंस बेहतरीन रहता है और उसे क्लास लेने के लिए कहा जाता है. लेकिन मर्दवादी सोच वाले फ्लाइंग अफसर को यह मंजूर नहीं होता है और वह गुंजन को मना कर देता है. गुंजन के सवाल खड़ा करने पर वह पंजा लड़ाने के लिए कहता है और समझाता है कि गुंजन सक्सेना कमजोर है और कमजोर लोगों को सेना में जरूरत नहीं है. वह बिना किसी को बताए एकेडमी छोड़ देती है.
घर आकर वह अपनी सहेली से मिलती है जो हीरोइन बनने मुंबई गई थी लेकिन कई साइड रोल करने के बाद वापस आकर शादी कर रही है. अब वह उसमें ही नयापन देख रही है, गुंजन भी अपने पिता से आकर कहती है कि वह शादी करना चाहती है. यहां पर एक पिता की बेबसी, पीड़ा, दुख, इमोशंस को पंकज कपूर ने पर्दे पर उतार दिया है. जैसे बेटी नहीं टूटी बाप खुद टूट गया है. बेटी नहीं हारी, बाप हार गया है. बेटी से ज्यादा बाप के सपने टूटे हैं. पंकज कपूर की आंखों में वो आंसुओं की कतरन इस सीन को नए मुकाम पर ले जाती है जहां गुंजन सक्सेना फैसला करती है कि पापा को कभी हारने नहीं देगी.
इसके बाद वो एकेडमी लौटती है तो उसे सीधे उधमपुर भेज दिया जाता है जहां करगिल युद्द में सेवाएं देनी हैं. वहां भी उसे तवज्जो नहीं मिल पाती लेकिन परिस्थितियां ऐसी बनती हैं कि गुंजन को मदद पहुंचाने के लिए भेजना पड़ता है. अपने अदम्य साहत से वह उस फ्लाइंग अफसर को बचाने में सफल होती है जिससे उसने पूरी ट्रेनिंग में दर्द और हिकारत पाई है.
फिल्म पर सवाल भी उठे
गुंजन सक्सेना को इस साहस के लिए शौर्य पुरस्कार से सम्मानित किया गया था. इस फिल्म को लेकर कई सवाल खड़े हो रहे हैं. सेना के लोगों का कहना है कि वायुसेना की छवि को खराब करने की कोशिश की गई है. इतना भेदभाव नहीं होता था लेकिन सवाल तो है ही कि 2016 में पहली बार किसी महिला को क्यों कमीशन दिया गया. इससे पहले क्यों नहीं. थोड़ा सा अतिरिक्त तो फिल्म में हो ही जाता है, निर्शेशक इससे बच भी सकते थे लेकिन तब गुंजन को हीरो साबित करने के लिए ज्यादा मेहनत करनी पड़ती. शरण शर्मा ने इस फिल्म से डायरेक्शन की शुरुआत की है लेकिन उन्होंने इसे बहस का मुद्दा तो बना ही दिया है.
गुंजन सक्सेना के साथ वायुसेना ज्वाइन करने वाली नम्रता चांडी ने आउटलुक को दिए इंडरव्यू में इस फिल्म पर नाराजगी जाहिर करते हुए कहा था कि बहुत सी चीजें वास्तविक नहीं हैं. इसे देखकर लड़कियां एयरफोर्स ज्वाइन करने के लिए प्रेरित हो सकती हैं लेकिन यह दिखाने के लिए उन्होंने एयरफोर्स ऑर्गनाइजेशन को ही दूसरे तरीके का दिखा दिया. जैसा भेदभाव दिखाया गया है वैसा नहीं था. हालांकि इस इंटरव्यू में उन्होंने स्वीकार किया है कि तब लेडीज टायलट नहीं थे. चेंजिंग रूम नहीं थे लेकिन तब ऐसे अधिकारी भी थे जो पर्दे के सामने पीठ करके खड़े हो जाते थे. ऐसे सीओ भी थे जो कहते थे कि मेरे वाशरूम का इस्तेमाल करो और बाद में सब ठीक हो गया. सारे इंतजाम हो गए. आपको महिला होने के नाते कोई टारगेट कर रहा है ऐसा तो विल्कुल नहीं था.
खैर ये लड़ाइयां चलती रहेंगी लेकिन जब आप फिल्म देखते हैं तो एक पॉजिटिवटी आती है, एक सकारात्मक सोच आती है. लैंगिग समानता के प्रति, कर्तव्य को देशभक्ति को एक मानने वाली सोच के प्रति. बेटे और बेटी में कोई अंतर नहीं है इसके प्रति. यह फिल्म सिखाती है कि किसी के सपनों के साथ कैसे जिया जाता है. कैसे बच्चों के सपने अपने सपने हो जाते हैं.
पंकज ने बाप के किरदार में जान डाल दी
फिल्म में पंकज कपूर ने अलग छाप छोड़ी है. उन्होंने बाप की भूमिका में जान डाल दी है लेकिन कहीं न कहीं मिर्जापुर और गैंग्स ऑफ बासेपुर की झलक मिल जाती है. इसी तरह जाह्नवी कपूर ने रोल तो ठीक किया है लेकिन ऐसा नहीं लगता कि इसके लिए उन्होंने कोई अतिरिक्ति मेहनत की है. उनका मासूम और कुछ हद तक एकरस चेहरा कहीं कहीं गुंजन को बहुत कमजोर बना देता है. वह रफ टफ नहीं नजर आ पाईं. डायरेक्टर भी उनको चॉकलेटी चेहरे से बाहर नहीं निकाल पाया.