प्यार पागल बना देता है, प्यार में लोग पागल हो जाते हैं. प्यार कुर्बानी मांगता है. प्यार में भोग की चेतना नहीं होती. लेकिन प्यार जब शबाब पर होता है तो उसमें मन और देह का अंतर मिट जाता है. प्रेमी अपने प्रिय के साथ अलग दुनिया में चला जाना चाहता है, जहां किसी की नजर न पड़े. प्रेम में घनत्व अधिक होता है. पागलपन से जो न गुजरे वह प्यार कैसा?
दोनों तरफ से हो तो प्यार लेकिन एकतरफा हो तो कुछ हद तक आशिकी. विडंबनाएं यहीं जन्म लेती हैं. जिसे चाहते हैं उससे शादी नहीं हो पाती. जब शादी होती है तो प्यार नहीं हो पाता. पत्नी, पति में ब्वायफ्रेंड खोजती है और पति उसमें अपनी महबूबा का अक्स ढूंढने लगता है. कुछ ऐसी ही कहानी है हसीन दिलरुबा की. जिसमें प्यार भी है, नफरत भी है, खुद जल जाने की जिद के साथ दूसरे को खत्म कर देने का जज्बा भी, शरीर की भूख एक ऐसे रिश्ते को जन्म देती है जिसका अंजाम कत्ल तक जाता है. एक ऐसी मर्डर मिस्ट्री जो हकीकत से थोड़ी दूर भले ही लगे लेकिन आपको अंत तक बांधे रखती है. सिलिंडर ब्लास्ट में केवल 'रानी' लिखे हाथ का बच जाना कई आशंकाओं को जन्म देता है.
कुछ ऐसी है कहानी
रानी (Taapsee Pannu) दिल्ली में पली-बढ़ी है, बिंदास है. उसके ब्वायफ्रेंड रहे हैं, लेकिन रिश्ते अंजाम तक नहीं पहुंच पाए. ऐसा कुबूल करने में उसे कोई हिचक भी नहीं है. ख्वाब के साथ वह हकीकत से समझौता करना जानती है. उधर ज्वालापुर जैसे एक टाउन में बिजली विभाग के इंजीनियर रिशु ( Vikrant Massey) रानी को देखने पहुंचते हैं. एकतरफ एकदम बोल्ड और दूसरी तरफ एकदम सीधे-साधे रिशु का रिश्ता तय हो जाता है. फोन पर बातें शुरू होती हैं, आकर्षण और प्यार के बीच जी रहे रिशु शादी से पहले ही रानी के नाम का टैटू अपने हाथ पर गुदवा लेते हैं.
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दिनेश पंडित के उपन्यासों की दीवानी रानी ज्वालापुर आ जाती है. लेकिन पहले दिन से ही उसके ख्वाब टूटने शुरू हो जाते हैं. सास-बहू दोनों को सनातन सच्चाइयों का सामना करना पड़ता है. सास को गृह कार्य में दक्ष बहू चाहिए थी और बहू को चाय भी बनानी नहीं आती. वह तो ब्यूटी पार्लर वाली निकली. पहले दिन से ही घर में कलह शुरू हो जाती है.
इससे भी बड़ी दुर्घटना रानी का इंतजार कर रही होती है. खूबसूरत पत्नी और सीधे पति में किसी तरह के शारीरिक संबध ही नहीं बन पाते. रानी पति में ब्वायफ्रेंड खोज रही है. उसे स्पार्क चाहिए और पति फ्यूज और कन्फ्यूज के बीच झूल रहा है. हालांकि उसे पत्नी की भावनाओं का ख्याल है. उसे इसका बोध है कि शादी बेमेल सी है. रिशु पूछता है कि 'आपको कैसा पति चाहिए था रानी जी'. रानी की जवाब होता है 'नॉटी हो, सिरफिरा हो, प्यार में पागल हो, कभी-कभी बाल खींच ले'. फिर 'आपको तो पांच-छह लड़के चाहिए' लेकिन रानी कहती है कि सारे लक्षण तो नहीं लेकिन एक दो तो हो ही सकते हैं और यहीं से दरार बड़ी होने लगती है. रानी को लगता है कि पहली मुलाकात में ही जिससे पंखे ठीक करा लिए थे, जिसे बता दिया था उसे 'सुंदर तन और मन का कॉम्बो मिल रहा है', उससे शादी करके गलती की. उधर रिशु को लगता है कि मैं अपनी पत्नी के काबिल नहीं हूं. 'आप इतनी खूबसूरत हो रानी जी कि मैं नर्वस हो जाता हूं'.
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यही नर्वसनेस रिशु को रानी से दूर कर देती है. होम्योपैथी दवाओं में अपनी मर्दानगी खोज रहा रिशु परफॉर्म ही नहीं कर पाता. संबंध न बनने का फ्रस्टेशन जिंदगी पर भारी हो जाता है और दोनों एक-दूसरे से मुंह छिपाए घूमते हैं. रानी दिल्ली निकल जाना चाहती है. वह मौसी और अपनी मां से सलाह लेती है. पल्लू गिराने से लेकर तमाम हथकंडे अपनाती है लेकिन कोई फायदा नहीं होता. 'हम लोगों को तो मामा के यहां जाना है' यह दांव चलकर मां रानी को दिल्ली आने से तकरीबन मना ही कर देती है.
नील की एंट्री और खुद की तलाश
दिनेश पंडित के उपन्यासों में खोई रानी की जिंदगी में एक मोड़ आता है. एक दिन रिशु की मौसी का लड़का और बचपन का दोस्त नील (Harshvardhan Rane) कुछ दिन रहने के लिए उसके घर ज्वालापुर पहुंचता है. शरीर के प्रति सजग वह नए जमाने का युवा है, शौक के साथ एडवेंचर उसका पेशा भी है. उसे यह बात बड़ी अजीब लगती है कि रानी और रिशु में संबंध ही नहीं बन पाए. रानी में उसे संभावनाएं दिखने लगती हैं. उधर रानी एक ऐसे मोड़ पर है जहां सही और गलत की महीन रेखा मिट जाती है. दोनों में नजदीकियां बढ़ने लगती हैं. वह रानी और रिशु को राफ्टिंग के लिए ले जाता है. डूबती हुई रानी के लिए वह नदी में छलांग लगा देता है जबकि रिशु रानी-रानी कहता रह जाता है. अहसान और अहसास के साथ आकर्षण परवान चढ़ता है. नील की हल्की सी कोशिश और रानी का अनचाहा विरोध दोनों को तृप्ति के मुकाम तक ले जाते हैं. इसमें सहमति-असहमति का कोई सवाल नहीं है, कोई जोर जबर्दस्ती नहीं है. रानी भूखी और नील प्यासा है. फिर भी एक अंतर रह जाता है. रानी देह के साथ उसे दिल भी दे बैठती है. नील माचो मैन है. सेक्स के साथ जिम्मेदारी का ककहरा उसने सीखा ही नहीं है. कभी चाय न बनाने वाली रानी नील के लिए मटन बनाकर रखती है लेकिन वह निकल लेता है.
दिल जीतने की जुगत में सब हार बैठे
खाने की टेबल पर रानी रिशु को सब बता देती है. 'मैं प्यार करने लगी थी उससे, उसी के साथ रहना चाहती थी लेकिन धोखा देकर भाग गया वह'. रानी पति को इतना सीधा मानती है कि उसे इसका अहसास भी नहीं है कि उसे यह बात बुरी भी लगेगी. रिशु मटन की तारीफ करते हुए खाता रहता है लेकिन दिल टुकड़े-टुकड़े हो रहे हैं. वह मटन की तरह ही धीमी आंच पर पक रहा है. उस समय तो वह कुछ नहीं बोलता लेकिन फिर दिल्ली निकल जाता है. नील पर हमला करता है. जिम में पसीना बहाकर मजबूत हुए नील के सामने उसकी एक भी नहीं चल पाती. बाद में दोनों बैठते हैं. नील को आश्चर्य होता है कि इतनी सुंदर बीवी के साथ आपके संबंध क्यों नहीं बन पाए रिशु भैया. 'आप बना लेते तो हम न बना पाते'. रिशु का जवाब होता है कि '..तिया थे हम, उनका रेशमी जिस्म जीतने के बदले उनका दिल जीतने में लग गए'. दिल में तड़प और आंखों में तूफान लिए वह ज्वालापुर लौटता है.
सारी कहानी फ्लैशबैक में चलती है. सिलिंडर धमाके में रानी लिखा हुआ हाथ मिलने से इल्जाम लगता है कि रानी ने अपने पति का कत्ल कर दिया है. उसे हर रोज थाने बुलाया जाता है. पुलिस पूछताछ में कहानी की सारी परतें खुलती हैं. जहां रानी के कई शेड देखने को मिलते हैं. फिल्म कभी-क्राइम पेट्रोल और सीआईडी की फीलिंग देने लगती है. क्योंकि इंस्पेक्टर साहब सीआईडी के दयानंद शेट्टी ही हैं. बस उन्हें यहां एक्शन का मौका नहीं मिला.
नफरत से प्यार की गहराइयों तक का सफर
रिशु नील से पिटकर लौटता है. रानी गलतियों के लिए माफी मांगती है लेकिन रिशु कहता है कि 'तुमसे इतना प्यार किया है कि तुम्हारे बिना रह नहीं सकता, लेकिन साथ भी नहीं रह सकता, मन करता है तुम्हारा गला घोंट दूं'. रानी दिल्ली जाने को तैयार है लेकिन शोहदों की फब्तियों के बाद फैसला करती है कि वही यहीं रहेगी. रिशु उसके साथ चाहे जो करे. वह सोचती है एक नील था जो भाग गया और रिशु है जो उसके लिए दुनिया से लड़ रहा है. 'नफरत तो भी उसी से होगी जिससे प्यार हो' पश्चाताप की आग में जल रही रानी को इंजीनियर के बाद रिशु में पति का अक्स दिखता है जो उसके लिए लड़ सकता है. उसे बचा सकता है. अपना फर्ज निभा सकता है. यहां से नफरत का नया सिलसिला चल पड़ता है. रिशु खुद तड़प रहा है लेकिन रानी को तड़पाना चाहता है. रानी का बुखार दिल से लेकर दिमाग तक कायम है लेकिन उसे मिटाना चाहता है. रानी की तड़प में उसे सुकून मिलता है. फिर भी कोई बड़ा फैसला उसके खिलाफ नहीं ले पाता क्योंकि हसीन दिलरुबा को वह प्यार करता है. यह प्यार पागलपन तक पहुंच जाता है.
इंस्पेक्टर का सवाल होता है कि क्या आपके पति आपको मारना चाहते थे. रानी का जवाब होता है कि 'गलती मैंने की तो सजा भी तो मुझे ही मिलेगी'. क्या नील से संबंधों पर कोई अफसोस है. 'नहीं, अगर नील से नहीं मिलती तो रिशु से कैसे मिल पाती'. नील से संबंध कैसे थे? 'संबंध तो मानसिक होते हैं, शारीरिक तो संभोग होता है'. एक जगह वह कहती है, 'इंस्पेक्टर साहब पागलपन की हद तक न गुजरे वह प्यार ही कैसा. अमर प्रेम वही है जिस पर खून के छीटें हों ताकि किसी की नजर न लगे'. इन बातों से ऐसा लगता है कि कहीं न कहीं रानी इस कत्ल में शामिल है.
मार दो या माफ कर दो
रिशु का दर्द है कि मेरी बीवी ने मुझसे नहीं मेरे मौसेरे भाई से प्यार किया, नाक के नीचे से मेरी इज्जत लूट ले गए. एक पल ऐसा आता है कि जब रानी कहती है मौका दे रही हूं या तो मार दो या माफ कर दो. रिशु कोशिश करता है लेकिन रानी के लिए दिल में प्यार उसे ऐसा करने नहीं देता. दोनों एकदूसरे के हो जाते हैं. गृहस्थी की गाड़ी पटरी पर लौट आती है.
नील की एंट्री और अनजाने में कत्ल
सब कुछ ठीक चल रहा होता है लेकिन इसी बीच नील की एंट्री हो जाती है. मॉल से निकलते वक्त तीनों आमने-सामने हो जाते हैं. नील की ललकार रिशु को आहत कर देती है और वह उसके पीछे पड़ जाता है. परिस्थितियों से उपजा एक ऐसा मौका आता है जब रानी और रिशु में संबंध बनते हैं, जीवन पटरी पर लौट आता है. लेकिन एक दिन रिशु की गैरमौजूदगी में नील रानी के पास पहुंचता है. रिशु के लौटने पर दोनों में बहस होती है और गठीले शरीर वाले नील का बकरे की रान के वार से काम तमाम हो जाता है. रानी के हाथ नील के खून से रंग जाते हैं. इसके बाद की कहानी हकीकत से ज्यादा फसाना लगती है. रिशु का वह हाथ यहां काम आया है जिसपर उसने शादी के पहले रानी लिखवा लिया था. अविश्वसनीयता के मंजर में आंखों की तड़प उसे आशिक से ऊपर ले जाती है. नील की ड्रेस पहनकर वह पानी में कूद जाता है. सिलिंडर ब्लास्ट के बाद वही हाथ पुलिस को मिलता है जिससे रानी पर अपने पति के खून का इल्जाम लगता है. उधर रानी पुलिस के लाई डिटेक्टर टेस्ट के बाद छोड़ दी जाती है. जैसा दिखाया गया है कि फिर दोनों साथ हो जाते हैं. लेकिन वह लुग्दी साहित्य के द एंड की तरह ही लगता है.
कमजोर कड़ियां, बेमेल किरदार
तापसी पन्नू ने हर शेड में शानदार काम किया है लेकिन जिस ताजगी के लिए वो जानी जाती हैं, वह हसीन दिलरुबा में गायब दिखती है. उनके बीते हुए कल की झलक केवल बातों में है इसलिए उनकी छवि कहीं-कहीं 'थप्पड़' जैसी नजर आती है. विक्रांत मैसी (Vikrant Massey) ने मिर्जापुर में जो किरदार निभाया था उससे एक उम्मीद जगी है लेकिन तापसी से उनका जोड़ा बेमेल सा हो जाता है. कई बार वह वाकई में नर्वस दिखते हैं. हर्षवर्धन राणे (Harshvardhan Rane) नील के किरदार में हैं, वह माचो मैन से आगे नहीं बढ़ पाए. उनमें संभावनाएं दिखती हैं लेकिन यहां एक्सप्रेशन में वह मैस्सी से भी कमजोर दिख रहे हैं. फिल्म बांधे तो रखती है लेकिन स्क्रिप्ट से कई बार सीरियल या वेब सीरिज का भ्रम होने लगता है. निर्देशक मैथ्यू से थोड़ी और कोशिश की अपेक्षा की जा सकती है. राइटर कनिका ढिल्लों की कहानी में कसाव दिनेश पंडित जितना ही निकला. नील को देखकर कई बार 'मनमर्जियां' की कहानी याद आ जाती है. 'मेरे दिल ने कहा मुझसे फिसल जा तू' गाना फिल्म देखते समय हिट तो करता है लेकिन खत्म होते ही जुबान से उतर जाता है.