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फिल्म रिव्यूः सब कुछ समेटेने के फेर में बिखरी विनोद खन्ना और सुनील शेट्टी की 'कोयलांचल'

फिल्म कई किरदारों पर फोकस करने के चक्कर में धुंधली हो जाती है. आतंक दिखाने के फेर में भद्दी और शोर से भरी हो जाती है. एक वाक्य में कहूं तो रायता फैलता है और ऐसा फैलता है कि सिमटाए नहीं सिमटता. और इस चक्कर में फिल्म लंबी भी हो जाती है.

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Koyelanchal
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फिल्म रिव्यूः कोयलांचल
एक्टरः विनोद खन्ना, सुनील शेट्टी, विपिन्नो, रूपाली कृष्णाराव
डायरेक्टरः आशु त्रिखा
ड्यूरेशनः 2 घंटा 48 मिनट
स्टारः 5 में 1

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बिहार का एक मशहूर कोल माफिया था. सूरज देव सिंह. बताते हैं कि बलिया के रहने वाले पूर्व प्रधानमंत्री और सियासी समाज में अध्यक्ष जी के नाम से मशहूर चंद्रशेखर के घनिष्ठ मित्र थे. खास बात यह है कि बाकी नेताओं की तरह चंद्रशेखर सूरज देव से अपनी इस यारी को छिपाते नहीं थे. अभी इस शख्स का जिक्र इसलिए क्योंकि आज जो फिल्म देखकर आया हूं वह इन्हीं से प्रभावित दिखती है. कैसे एक शख्स सरकार के कोल माइनिंग के राष्ट्रीयकरण के प्रयासों को धता बताते हुए अपनी समानांतर सरकार चलाता है. कैसे उसके इशारे पर बाहुबली अपनी टकसाल में खौफ के लोहे से कथित सम्मान के सिक्के ढाल बांटते हैं. और कैसे साल दर साल, दशक दर दशक ये सब चलता रहता है. और फिर एक गलती, जो शुरुआत में छोटी दिखती है. उस शख्स को उसी कोयले में मिला देती है.

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मगर ये प्लॉट सुनने में जितना अच्छा लग रहा है. फिल्म उतनी ही घातक है. यह कई किरदारों पर फोकस करने के चक्कर में धुंधली हो जाती है. आतंक दिखाने के फेर में भद्दी और शोर से भरी हो जाती है. एक वाक्य में कहूं तो रायता फैलता है और ऐसा फैलता है कि सिमटाए नहीं सिमटता. और इस चक्कर में फिल्म लंबी भी हो जाती है.

झारखंड में एक कोल माफिया है. नाम है सरयू भान सिंह. कोयला का ठेका सरकार उठाती है, मगर राजापुर इलाके में रिट उसकी चलती है. जो कोई यूनियन के नाम पर सिर उठाने की कोशिश करता है, उसे सरयू का खूंखार बाहुबली करुआ बेरहमी से और सार्वजनिक रूप से कुचल देता है. सरयू का साफ कहना है कि कोयलांचल में जो भी उसके रास्ते आएगा, कोयला हो जाएगा.

मगर उसके रास्ते में आता है एक ईमानदार आईएएस अफसर. निशीथ कुमार. निशीथ को शुरुआती दौर में मुंह की खानी पड़ती है. और जब वह सरयू पर शिकंजा कसने को होता है. उसका अपना परिवार मुसीबत में पड़ जाता है. अब एक तरफ हर जतन करने को तैयार पुलिस-प्रशासन है और दूसरी तरफ करुआ का मालिक यानी कोयला माफिया. इस हड़बौंग में नक्सली, नौटंकी, वेश्या और विद्रोही तेवर वाली कविताएं सब कुछ हैं. मगर सब की सब बेमजा.

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फिल्म में विनोद खन्ना सरयू के केंद्रीय किरदार हैं. पर उनके चेहरे पर अपेक्षित ठहरी हुई क्रूरता कम ही नजर आती है. निशीथ के रोल में सुनील शेट्टी को अरसे बाद पर्दे पर देखना शुरू में अच्छा लगता है. मगर उनके जैसे एक्शन हीरो वाली इमेज के शख्स को बेचारगी निभानी नहीं आई पर्दे पर. करुआ के रोल में विपिन्नो को भी अच्छा फुटेज मिला है. पर वह अपने रोल के हर शेड को नहीं निभा पाए. रुपाली कृष्णराव के रोल के बजाय डायरेक्टर ने उनके ब्लाउज को तंग करने पर ज्यादा मेहनत की. मगर यह ग्लैमरस नहीं फूहड़ लगता है.

कोयला माफिया पर अनुराग कश्यप की फिल्म गैंग्स ऑफ वासेपुर ने एक तीखा कमेंट किया था. जाहिर है कि बार बहुच ऊंचा उठ चुका था. ये फिल्म उसके आस-पास भी नहीं ठहरती. डायरेक्टर आशु त्रिखा कुछेक जगह ही थोड़े सधे हुए और कंट्रोल में लगते हैं. ट्रेन यूनियन नेता कोयला मजदूरों को फैज अहमद फैज की क्रांतिकारी कविता सुनाए. फिर करुआ जैसा बागी जो हमेशा अपने सिक्स पैक दिखाने के लिए सिर्फ जींस में ही नजर आता है, उस कविता को उसकी बेटी को सुनाए. ये सब कुछ बहुत नकली लगता है. फिल्म में रिएलिटी के तड़के के लिए लौंडा नाच और कोयला खदानों के असल शॉट्स दिखाने का जतन किया गया है. पर आशु फिल्म पर अपनी पकड़ तभी खो देते हैं, जब उस अंचल की हिंदी की टोन नहीं पकड़ पाते.

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