10 प्वाइंट फिल्म रिव्यू: मद्रास कैफे
पांच में चार स्टार
डायरेक्टर: शुजीत सरकार, स्क्रिप्ट: सोमनाथ डे, शुभेंदु भट्टाचार्य, डायलॉग: जूही चतुर्वेदी
एक्टर: जॉन अब्राहम, नरगिस फखरी, प्रकाश बेलावाड़ी, राशी खन्ना, अजय रत्नम, सिदार्थ बसु, पीयूष पांडे, दिबांग
म्यूजिक: शांतनु मोइत्रा, सिनेमेटोग्राफी: कमलजीत नेगी
अवधि: 130 मिनट
1. जॉन अब्राहम की फिल्म मद्रास कैफे हमें भारतीय होने के नाते गर्व के कुछ पल मुहैया कराती है. अच्छा लगता है यह देखकर कि हिंदी में आखिरकार इस तरह की एक फिल्म बनी. एक फिल्म, जो जब युद्ध की विभीषिका दिखाती है, तो इसका स्केल और सिनेरियो बड़ा होता है. इसके बावजूद फिल्म त्रासदी को ठहराव देने के लिए बारीक ब्यौरों पर भी रुकती है. अच्छा लगता है ये देखकर कि एक सघन फिल्म में जबरन गाने या सिनेमाई रूपक रचे प्यार का एंगल नहीं ठूंसा गया. और राहत मिलती है ये देखकर कि फिल्म कहीं भी अपनी रफ्तार नहीं खोती और इस तेजी के बावजूद अपने मायने और दर्शकों से अपना संवाद भी कायम रखती है. अगर घटिया फिल्मों के बोझ तले दबे हैं तो मद्रास कैफे जरूर देखिए. मजा आएगा ये नहीं कहूंगा.क्योंकि मजा शब्द में मसाला टाइप सस्तापन आ गया है. मगर हां सिनेमा के शानदार संदर्भों और अनुभवों में बिला शक इजाफा होगा.
फोटो गैलरी: ‘मद्रास कैफे’ की हुई स्क्रीनिंग, दिखा सितारों का जलवा
फिल्म के दूसरे हाफ में विक्रम एक विदेशी रिपोर्टर जया और दूसरे कुछ साथियों की मदद से अंदरूनी चुनौतियों से जूझते हुए एक खतरे की थाह तक पहुंचता है. अंत में उसे समझ आता है कि राजनीति की नियति और उसे रचने वाले इस सिस्टम में कई झोल हैं.तमाम कोशिशों के बावजूद जैसा कि हमें भारतीय इतिहास की एक काली तारीख 21 मई 1991 बताती और याद दिलाती है, भारत के पूर्व प्रधानमंत्री को एक जनसभा में महिला मानवबम जान से मार देता है. पर कहानी यहीं नहीं रुकती.
3. फिल्म के डायरेक्टर शुजीत सरकार इससे पहले हमें दमदार पटकथा और सितारों की चमक से दूर असली एक्टर्स के शानदार अभिनय से सजी विकी डोनर जैसी फिल्म दे चुके हैं. मद्रास कैफे एक अलग ही विधा में रचा गया कैनवस है.तनाव, अंतरद्वंद्व और उनके बीच रची साजिशों और उन्हें विफल करती कारीगरी से युक्त. शुजीत कहीं भी फिल्म को ढीला नहीं पड़ने देते. एक नरगिस फखरी को छोड़कर एक्टर्स का चुनाव, उनकी संवाद अदायगी, भाषा का बर्ताव और आम दर्शकों के लिए कई ऐतिहासिक और कम जानी पहचानी घटनाओं का जरूरी संदर्भ उन्होंने बेहतरीन ढंग से बरता है.
4. जॉन अब्राहम ने इस फिल्म से अपनी अभिनय की रेंज में बढ़ोतरी की है. नरगिस फखरी का चेहरा ज्यादातर ब्लैंक ही लगता है. फिल्म की एक और एक्ट्रेस राशी खन्ना छोटे से रोल में ही प्रभावित करती हैं. वह विक्रम की पत्नी बनी हैं. एक्टिंग की बात करें तो कई लोगों का काम काबिले गौर और तारीफ है. मसलन, रॉ की साउथ डेस्क के हेड बाला के रोल में थिएटर के मंझे हुए एक्टर प्रकाश बेलावाड़ी, एलटीएफ के मुखिया अन्ना के रोल में अजय रत्नम, रॉ के चीफ के रोल में सिद्धार्थ बसु और एक एक्स रॉ एजेंट के रूप में दिबांग जैसे कई चेहरे बिना स्क्रीन पर छाने की कोशिश किए अपने किरदार के निशान जेहन पर छोड़ जाते हैं.
5. फिल्म श्रीलंका में भारतीय सेना के मंझधार में फंसे होने, एक अलग ही किस्म की लड़ाई लड़ रहे सिपाही की चुनौतियां, रॉ की अंदरूनी राजनीति, वॉर कॉरेस्पॉन्डेंट की दुविधा और पेशे के प्रति ईमानदारी, कोवर्ट ऑपरेशन की मुश्किलों और इन सबके बीच फंसे आम इंसानों की दुर्दशा को बहुत ही बारीक ढंग से दिखाती है. यह फिल्म भले ही काल्पनिक बताई जा रही हो, जैसा कि जरूरी भी होता है, मगर इसके हर हिस्से में इतिहास के रेशे नजर आते हैं. विवाद से बचने के लिए भले ही एलटीटीई का नाम बदल एलटीएफ, इसके मुखिया प्रभाकरन का नाम बदल अन्ना रख दिया गया हो या फिर पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी को सिर्फ प्रधानमंत्री कहकर काम चला लिया गया हो. मगर इस मुल्क के जेहन में ये सब नाम और उनकी तस्वीरें शीशे की तरह साफ हैं.
6. भारत का ये दुर्भाग्य है कि यहां की असल सच्चाई पर बात करना जितना आसान है, फिल्मी पर्दे पर उसे उतारना उतना ही दुरूह. जरा सा सच दिखाया नहीं कि किसी वर्ग की भावनाएं आहत होने लगती हैं. मद्रास कैफे को लेकर भी यही हो रहा है. मगर इस खतरे के बावजूद शुजीत और जॉन ने इस पेचीदा और कई मायनों में जोखिम भरे प्लॉट को फिल्मी पर्दे पर उतारा. उसके लिए वह हम सबकी तारीफ और शाबासी के हकदार हैं. उम्मीद करता हूं कि आगे भी आधुनिक भारत के इतिहास की कई जटिल परतें इसी तरह कहानियों की शकल में सामने आएंगी.
7. फिल्म में एक दो कमजोरियां भी हैं. मसलन, कुछेक जगहों पर तारीख की गड़बड़ी नजर आती है. मगर इस पर उन्हीं का ध्यान जाएगा, जिन्होंने श्रीलंका में हुए गृह युद्ध का बारीकी से अध्ययन किया है. फिल्म के क्लाइमेक्स और नैरेशन के स्टाइल को लेकर भी कुछ गुंजाइश नजर आती है. चूंकि फिल्म को दो घंटे के अंतराल में ही समेटा जाना था और प्लॉट के अनंत फैलाव की संभावना नहीं थी, इसलिए कई चीजें बस आकर चली जाती हैं. मेरा सुझाव ये है कि फिल्म को बिना पलक झपकाए देखें, वर्ना कुछ तेजी से आते और जाते ब्यौरे मिस हो सकते हैं और ऐसे में रस कुछ कम हो सकता है.
8. फिल्म की कहानी शुभेंदु ने लिखी है और क्या खूब लिखी है. इतने जटिल विषय को सिनेमा जैसी विधा में बताना आसान नहीं. सब कुछ बताया भी और इसके बावजूद फिल्म भटकी नहीं. जूही चतुर्वेदी ने बिना नाटकीय हुए अच्छे संवाद लिखे हैं. कहीं भी नहीं लगता कि कोई बनावट या नकलीपने के साथ सामने आ रहा है. शब्दों के चुनाव से लेकर एक्सेंट तक हर जगह सतकर्ता नजर आती है.
9. कमलजीत नेगी का कैमरा वर्क कमाल का है. युद्ध वह भी गुरिल्ला अंदाज में लड़ा गया, दिखाना आसान काम नहीं. मगर नेगी ने कैमरे को वहीं रोका है, जहां शोक का खून गाढ़ा होकर जम गया है या फिर चेहरा असमंजस और भीतरी तकलीफ में जर्द सा पड़ गया है. उन्होंने हर किरदार के मैनरिज्म को भी अच्छे से पकड़ा है. फिल्म कई जगह रंग खोकर ब्लैक एंड व्हाइट हो जाती है और ये शैली इसके असर में इजाफा करती है.
10. मद्रास कैफे जरूर देखिए. मगर ध्यान रहे कि यह रेगुलर हिंदी फिल्म नहीं है, कि इसमें हीरो हीरोइन होंगे. उनमें प्यार होगा, नाच गाना होगा और हैप्पी एंडिंग होगी. यह एक खूंरेजी और सीट पर जकड़कर बैठाती सस्पेंस, एक्शन थ्रिलर हैं. भली बात यह है कि यह एक था टाइगर या एजेंट विनोद या ऐसी ही दूसरी फिल्मों की तरह हीरो का अति मानवीय रूप नहीं परोसती. फिल्म इंसानों की तरह अपनी कहानी बरतती है, हर रंग के साथ. मद्रास कैफे उस ब्लैक कॉफी की तरह है, जो देखने में भले ही कड़वी लगे, मगर जब हलक से उतरती है, तो चैतन्यता मुहैया कराती हैं.