आमिर खान के बेटे, जुनैद खान की डेब्यू फिल्म ‘महाराज’ एक बहुत बड़ा सबक सिखाती है. सिनेमा देखे बिना कभी उसपर आपत्ति नहीं जतानी चाहिए… क्योंकि हो सकता है कंटेंट खुद में इतना अझेल हो कि ऑडियंस उसे सर्वाइव ही न कर पाए! लेकिन जब विवाद होगा तो सर्वाइव करने की हिम्मत बढ़ जाएगी, क्योंकि जिज्ञासा बढ़ जाएगी!
‘महाराज’ इस दौर के एवरेज फिल्म टाइम, ढाई घंटे से आधा घंटे छोटी फिल्म है. और अगर मात्र दो घंटे की फिल्म देखते हुए आपकी आंतें ऐंठने लगें तो यकीनन ये एक विशेष सिनेमाई हुनर का ही कमाल है!
केस की कहानी
नेटफ्लिक्स फिल्म ‘महाराज’ एक कोर्ट केस की कहानी है जिसने एक धर्मगुरु की पोल खोली थी, जो धर्म के नाम पर कई तरह की कुरीतियों को बढ़ावा दे रहा था. करसन दास एक समाज सुधारक और जर्नलिस्ट थे जिसने अपने आर्टिकल्स में धर्मगुरु जादूनाथ को एक्सपोज किया था. फिल्म में करसन दास का किरदार जुनैद ने निभाया है और महाराज कहे जाने वाले जादूनाथ के रोल में हैं जयदीप अहलावत.
शालिनी पांडे करसन की मंगेतर, किशोरी के रोल में हैं, जिसे जादूनाथ ‘चरणसेवा’ के लिए चुनते हैं. उसे गर्व होता है कि महाराज ने इतने भक्तों में से उसे ही चुना है. बचपन से महाराज की अंधभक्ति में पली किशोरी को ये समझ ही नहीं आता कि ‘चरणसेवा’ में ‘चरण’ सबसे गैरजरूरी शब्द है, और ये असल में सेवा नहीं, शोषण है!
करसन का दिल टूट जाता है और बचपन से सवाल पूछने की आदत के साथ बड़ा हुआ ये लड़का अब अपने ही संप्रदाय के धर्मगुरु पर सवाल उठाने लगता है. और इतना तो हमें आज की तारीख में भी पता है कि इस तरह के सवाल एग्जाम पास नहीं करवाते, बल्कि एग्जाम ही कैंसिल हो जाता है!
कहानी में एक ट्रेजेडी के बाद तो करसन के सवालों की धार और तीखी होती चली जाती है. उसके एक आर्टिकल के खिलाफ महाराज मानहानि का दावा ठोंक देते हैं और मामला कोर्ट चला जाता है. वहां जो कुछ होता है, वही कहानी का मुख्य ड्रामा है. इसी पूरी लड़ाई में महाराज की एक और विक्टिम लड़की, विराज (शरवरी वाघ) करसन की मदद करने प्रकट हो जाती है.
कहानी का कचूमर और चूक का चौका
‘महाराज’ एक बहुत महत्वपूर्ण और दमदार कहानी को इस कदर बचकानेपन से ट्रीट करती है कि इसमें इन्वेस्ट हो पाना बेहद मुश्किल काम लगता है. सबसे बड़ी दिक्कत है कि ये फिल्म बताती ज्यादा है दिखाती कम है. कहानी के मुख्य किरदार और कंफ्लिक्ट को वॉइस नैरेशन के साथ ट्रीट करना डायरेक्टर सिद्धार्थ पी. मल्होत्रा की सबसे गलत चॉइस कही जा सकती है. क्योंकि इससे कहानी में इंटेंस ड्रामा क्रिएट करने का सारा स्कोप मर जाता है. और अल्टीमेटली कहानी की गंभीरता कम लगने लगती है.
‘महाराज’ का नैरेटिव झट से एक पॉइंट से दूसरे पॉइंट पर पहुंचकर, कोई पॉइंट प्रूव करने की हड़बड़ी में लगता है. एक धर्मगुरु का भ्रष्ट आचरण किस कदर जनता पर असर डालता है, फिल्म यही नहीं दिखा पाती. जबकि सबसे ज्यादा जोर यही दिखाने पर होना चाहिए था. दूसरा जोर कोर्ट में हुई बहसों और उन फैक्ट्स को साबित होता दिखाने पर होना चाहिए था, जिनसे लोगों की बुद्धि पर पड़ा पर्दा हटा. लेकिन ‘महाराज’ इन दोनों ही जगहों पाए चूकती है.
तीसरी बड़ी चूक किरदारों की राइटिंग है. उसी अंधभक्ति वाले माहौल में रहकर करसन दास की सोच रेशनल कैसे हुई? किन घटनाओं ने करसन को बड़े सवाल उठाने वाला जर्नलिस्ट बनाया? किन लोगों को पढ़कर या सुनकर उनकी सोच बदली और सवाल उठने शुरू हुए? फिल्म ऐसा कुछ भी नहीं दिखाती. बल्कि करसन की सवालिया क्षमता को उनकी पढ़ाई लिखाई से ज्यादा, उनका पैदायशी टैलेंट दिखाया गया है. क्योंकि वो बचपन में अपनी मां से इस तरह के सवाल पूछते हैं कि ‘क्या भगवान को गुजराती आती है, जो वो आपकी प्रार्थना समझते हैं?’
फिल्म की राइटिंग बिल्कुल तितर-बितर हो तब भी कई बार एक्टर्स का काम आपका ध्यान बांधे रखता है. ‘महाराज’ की चौथी चूक यहीं पर है. महाराज जादूनाथ का रोल कर रहे जयदीप अहलावत ही थोड़ा ध्यान बांध पाते हैं, लेकिन राइटिंग ने उनके किरदार को भी चकमा दिया है.
शालिनी पांडे इससे पहले ‘जयेशभाई जोरदार’ में मर्दवादी सोच से कुचली हुई महिला बनी थीं. ‘बमफाड़’ में भी उनका किरदार पुरुषों के भरोसे था और उन्हें फेम दिलाने वाली ‘अर्जुन रेड्डी’ की तो बात ही क्या करें. उनके चेहरे पर हर फिल्म में ठगे जाने का इतना सतत एक्सप्रेशन है कि केवल ऊब के मारे ये कहने का दिल हो आता है- ‘कोई इस बच्ची के लिए एक अदद खुशनुमा रोल लिख दे, प्लीज!’
अपनी पहली फिल्म में जुनैद खान बहुत जूझते हुए लगे हैं. उनकी बॉडी लैंग्वेज बहुत अकड़ी हुई है और आंखें भी एक्सप्रेशन में साथ नहीं देतीं. जुनैद की आवाज में भी वैसी ही समस्या है जैसी शुरुआत में आलिया भट्ट को भी थी. इमोशन में हाई पिच पर बोलते हुए आवाज का पतला होते जाना. ऊपर से वो अपने डायलॉग उगल देने की तेजी में हैं. वो अभी सीन्स परफॉर्म करने में बहुत जोर लगाते दिखते हैं. उन्हें अभी कैमरे के आगे बहुत ज्यादा रिलैक्स महसूस करने की जरूरत है. ये उनकी पहली ही फिल्म है और अभी उनमें सुधार का काफी स्कोप है. लेकिन इधर-उधर कुछ एक सीन्स में ये दिखता है कि वो एक्ट तो कर सकते हैं. बस उन्हें कमियां जल्दी दूर करनी होंगी.
‘महाराज’ की कहानी का स्कोप बहुत विस्तृत है और इस फिल्म में इसे शॉर्ट में समेटने की कोशिश दिखती है, जो माहौल नहीं बना पाती. गाने वगैरह भी याद रहने वाले नहीं हैं. सिनेमा के नाम पर अब सिर्फ फिल्म ही नहीं, वेब-सीरीज भी एक ऑप्शन है. और ‘महाराज’ देखते हुए कई बार ये लगा कि इस कहानी से सही न्याय वेब-सीरीज में हो सकता है. वरना तो ये फिल्म भुला देने लायक है, सिर्फ दर्शकों के लिए ही नहीं, एक्टर्स और क्रू के लिए भी.