अक्षय कुमार के बारे में एक मीम काफी वायरल रहता है. वो ये कि जो भी देश में कोई घटना होती है, अक्षय फौरन उस पर अपनी फिल्म की कॉपीराइट ले लेते हैं. अक्षय कुमार की यह फिल्म 'मिशन रानीगंज' भी एक भारत रेस्क्यू केस पर आधारित है. हालांकि, यह कहानी आज की नहीं, बल्कि 90 के दशक में एक कोल माइन्स ऑफिसर जसवंत सिंह गिल जो कैप्सुल सिंह गिल के नाम से चर्चा में आए थे, उनकी बहादुरी पर है.
कहानी
रानीगंज स्थित कोल माइन्स के अंदर पानी का पाइप फटने की वजह से लगभग 70 मजदूर फंस जाते हैं. इस पूरे प्रकरण में माइन्स ऑफिसर जसवंत सिंह गिल अपनी बहादुरी और सूझबूझ से फंसे मजदूरों को निकलवाते हैं. अपनी हाजिर जवाबी के कारण ही जसवंत गिल उस वक्त के हीरो बनते हैं. चार दिन की इस घटना को फिल्म का रूप देकर अक्षय आपको एंटरटेन करने आ रहे हैं.
डायरेक्शन
अक्षय कुमार संग 'रुस्तम' के बाद डायरेक्टर टीनू सुरेश देसाई एक बार फिर उनके साथ 'मिशन रानीगंज' लेकर आए हैं. टीनू की इस फिल्म में एक सिनेमालवर्स के लिए वो तमाम फैक्टर्स मौजूद है, जिसकी वो चाह रखता है. फिल्म में सस्पेंस है, थ्रिल है और एक्टिंग भी दमदार नजर आती है. 2 घंटे 20 मिनट की इस फिल्म की सबसे बड़ी खासियत यह है फिल्म को इंसीडेंट से डायवर्ट न करके हीरो सेंट्रिक बनाने की कोई भी कोशिश नहीं की गई है. बेशक रानीगंज के रेस्क्यू ऑपरेशन से सभी वाकिफ होंगे, इसके बावजूद फिल्म के क्लाइमैक्स तक आपकी उत्सुकता बनी रहती है. फिल्म का सबसे प्लस पॉइंट इसके एक्टर्स हैं. सबने उम्मीद से बढ़कर काम किया है. फिल्म में 90 के दशक को स्टैबलिश करने के लिए एक सीन डाला गया है, जहां कस्बे के लोग एकजुट होकर टीवी के पास आकर रामायण देखने बैठते हैं, जो नोस्टैल्जिया फैक्टर जगाता है. फर्स्ट हाफ में जहां फिल्म कोल माइ़न्स में काम करने वाले वर्कर्स और उनके परिवार समेत जसवंत सिंह गिल की जर्नी को दिखाते हुए दुर्घटना को सीधे तरीके से परोसा गया है, तो वहीं सेकेंड हाफ में कहानी तेजी से बढ़ते हुए रेस्क्यू मिशन, ऑफिस पॉलिटिक्स, फैमिली का दर्द और यूनियन वालों का टशन सभी इमोशन हाई पॉइंट पर पहुंच जाती है. ओवरऑल कहा जाए, तो डायरेक्टर अपने मिशन में पूरी तरह से कामयाब होते नजर आते हैं.
टेक्निकल ऐंड साउंड
फिल्म की सबसे बड़ी चूक इसके टेक्निकल पक्ष की तरफ से रही है. सिनेमैटिकली फिल्म पूरी तरह से 90 के दशक को स्थापित तो करती है, लेकिन कुछ सीन्स में क्रोमा शॉट्स ने इस फिल्म को हल्का कर दिया है. खासकर जब पहली बार अक्षय कुमार और कुमुद मिश्रा की मुलाकात होती है, तो उस वक्त पूरे स्क्रीन पर क्रोमा शॉट का पता लग जाता है, जिस वजह से वो सीन इंपैक्टफुल नहीं लगते हैं. फिल्म क्रिस्प है, एडिटिंग का काम अच्छा रहा. हां, फिल्म जिस थ्रिल के साथ आगे बढ़ती है, उसमें बैकग्राउंड म्यूजिक का सपोर्ट थोड़ा कम सा लगता है. अगर एक शानदार बीजीएम होता, तो शायद थ्रिल और बेहतर तरीके से स्क्रीन पर इमोट हो सकता था. कलर करेक्शन की बात करें, तो टीनू ने अपनी फिल्म जो हल्के पीले रंग में रंगा है, जो एक गांव की मिट्टी की खुशबू को दर्शाता है.
एक्टिंग
फिल्म का सबसे मजबूत पक्ष इसके एक्टर्स हैं. एक से बढ़कर एक कास्ट है. सबका काम अव्वल दर्जे का रहा है. चाहे वो यूनियन लीडर के रूप में राजेश शर्मा हो या भ्रष्टाचारी ऑफिसर के रूप में दिव्येंदू भट्टाचार्य उनके काम को देखकर आपका मन तालियां बजाने को करेगा. माइन्स वर्कर के रूप में रवि किशन, वरुण वडोला, जमील खान जैसे दिग्गज एक्टर्स सबने अपना काम बहुत ही सहजता से किया है. पैरलल लीड में पवन मल्होत्रा और कुमुद मिश्रा के काम को इग्नोर नहीं किया जा सकता है. अक्षय कुमार की तारीफ करनी होगी, जसवंत सिंह गिल किरदार में उनका स्टार इमेज कहीं भी नहीं आता है. वो एक पंजाबी जांबाज ऑफिसर के रूप में पूरी तरह से कन्विंस करते हैं. परिणीति चोपड़ा को स्क्रीन स्पेस कम मिला है, लेकिन उनका काम भी बेहतर रहा है.
क्यों देखें?
एक असल घटना पर आधारित इस फिल्म को एक मौका जरूर दिया जा सकता है. दावा है आप निराश नहीं होंगे. फिल्म आपको एक इमोशनल राइड पर लेकर जाएगी, कहीं आप इमोशनल होंगे, तो कहीं आपको गर्व भी होगा कि एक बंदे ने कैसे इतने माइन्स वर्कर की जान बचाने में अपनी परवाह नहीं की है. फैमिली फिल्म है, परिवार के साथ इसका लुत्फ उठाया जा सकता है. एक बेहतर कलाकारों से लबरेज इस फिल्म को एक मौका दिया जा सकता है.