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राजकुमार हिरानी की सही वक्त पर आई शानदार फिल्म, आमिर खान और अनुष्का की पीके

फिल्म रिव्यूः पीकेएक्टरः आमिर खान, अनुष्का शर्मा, सुशांत सिंह राजपूत, सौरभ शुक्ला, बोमन ईरानी, परीक्षित साहनीडायरेक्टरः राजकुमार हिरानीराइटरः अभिजात जोशी और राजकुमार हिरानीरेटिंगः 4.5

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फिल्म रिव्यूः पीके
एक्टरः आमिर खान, अनुष्का शर्मा, सुशांत सिंह राजपूत, सौरभ शुक्ला, बोमन ईरानी, परीक्षित साहनी
डायरेक्टरः राजकुमार हिरानी
राइटरः अभिजात जोशी और राजकुमार हिरानी
रेटिंगः 4.5
भगवान की रक्षा करना बंद करो, एक धर्मगुरु के सवाल के जवाब में पीके बिना चिल्लाए कमोबेश फुसफुसाते हुए कहता है. और मेरे सामने पेशावर पैदा हो जाता है. या फिर त्रिशूल चमकने लगते हैं. आदिवासी इलाकों में घूमते पादरी नजर आने लगते हैं. सब अपने-अपने भगवान की रक्षा कर रहे हैं. दूसरों में डर भरकर. और हम सब जो सब्जी खरीदते हुए या फिर दुनियावी मसलों पर बात करते हुए बेहद तार्किक होने का ढोंग करते हैं, इसे समझ नहीं पाते. क्यों ये डर और क्यों ये आस्था. और सबसे बढ़कर क्यों ये पूर्वाग्रह. इस सब सवालों को बिना शोर के बहुत सादगी के साथ उठाकर पीके आज के वक्त और यकीनन आने वाले वक्त के लिए भी एक बेहद जरूरी फिल्म बन जाती है. यूं समझ लीजिए कि आसमान की तरफ हाथ और आंख उठाकर की गई हमारी एक दुआ कबूल हो गई. इस फिल्म को जरूर देखिए. दोस्तों के साथ, परिवार के साथ. और सबसे पहले खुद अपने साथ.

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पीके दूसरे ग्रह का प्राणी है. ये लिखने और जानने में कोई मजा खराब होने वाला नहीं है. पहले शॉट में ही पता चल जाता है. वह यहां खोज करने आया है. मगर एक धोखे का शिकार होता है. और फिर उसकी खोज शुरू होती है. ताकि वह घर लौट सके. इस दौरान उसे राजस्थान के गांव में भैरो सिंह के रूप में पहला दोस्त मिलता है. फिर वह घर जाने के लिए दिल्ली आ जाता है. यहां उसे मिलती है टीवी न्यूज रिपोर्टर जग्गू. असली नाम जगदजननी. जग्गू की अपनी कुछ मुश्किलें हैं. विदेश में पढ़ाई के दौरान किया गया प्यार है, जो अचानक अधूरा हो गया. यहां पिता है, जो एक धर्मगुरु के भक्त हैं और बेटी से नाराज भी.

जग्गू को पहले पीके एक फ्रॉड लगता है. फिर एक पागल. मगर घटनाएं कुछ यूं घटती हैं बिना किसी तमाशे के कि उसे पीके की बात पर यकीन हो जाता है. जग्गू भी पीके की खोज में शामिल हो जाती है. इस दौरान सामने आता है एक अवरोधक. एक धर्मगुरु. जिसके साथ जग्गू और उसके पिता का कनेक्शन है. यहां पर आस्था, प्रपंच, भगवान, इंसान, धरती और आसमान और इन सबके बीच पसरी तमाम चीजों के बीच वैचारिक मुठभेड़ होती है.

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फिल्म की कहानी कुछ कुछ ओह माई गॉड जैसी लग सकती है, पहली नजर में. वहां लोगों के भ्रम, आडंबर दूर करने खुद भगवान आए थे. यहां एक एलियन आया है. मगर ये साम्यता बहुत ऊपरी है. पीके की खासियत ये है कि ये बिना किसी बुरी मंशा के हमारे तमाम यकीनों और तर्कों पर सवाल उठाता है. मसलन, गांधी. नोट पर छपा तो कीमती. पोस्टर या किताब में छपा तो रसमी. या फिर भाषा. जो कि फरेब का औजार है. पीके के ग्रह में कोई भाषा नहीं. लोग दिमाग की तरंगें पढ़ते हैं. उससे भ्रम नहीं होता. और हमारे यहां. इंसान सोचता कुछ है, बोलता कुछ है और करता कुछ.

पीके वैचारिक क्रांति करती है, मगर भारतीय जमीन पर खड़े रहकर. वह सब धर्मों के मठाधीशों के तंग नजरिए पर सवाल उठाती है. मगर बिना बोझिल हुए. आखिर में वह लोगों की आस्था को एक विशुद्ध तर्कवादी की तरह सिरे से खारिज भी नहीं करती. बस बिचौलियों को बीच से हटा देती है. ये एक पवित्र अस्फुट और एकांत में की जाने वाली प्रार्थना को पाने जैसा है. जहां आपके सामने कोई नहीं. एक कृतज्ञता है, प्रकृति के प्रति, समय के प्रति, स्थान के प्रति और अपने सर्जकों के प्रति. कि आप हैं और इस रूप में हैं और यूं होने की जिम्मेदारी समझते हैं.

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पीके सिर्फ धर्म के इर्द गिर्द ही नहीं घूमती. ये आपसी रिश्तों की भी समीक्षा करती है. इंसान कैसे कपड़े पहन रहा है, कैसी भाषा बोल रहा है और कैसे हावभाव दिखा रहा है, उसके आधार पर हम वर्गीकरण कर देते हैं. मगर ये हमारी अपनी कमजोरी साबित करता है.

फिल्म की कहानी में कसावट है. एक बुनियादी आस्था है अच्छाई के प्रति. और पूरी फिल्म जो एक घिस चुका टर्म है, उसे नई जिंदगी बख्शती है- स्वस्थ मनोरंजन. अभिजात जोशी और राजकुमार हिरानी को शुक्रिया. फिल्म के संवाद चुटीले हैं. हॉल में कई बार तालियों का सुरीला शोर सुनाई देता है. और फिल्म खत्म होने के बाद तो ये कई मिनटों तक हॉल में पसरा रहता है. इससे पहले ऐसा थ्री ईडियट्स में हुआ था. वह भी हिरानी की फिल्म थी.

कई प्रसंगों में संवादों की चुस्ती और नाटकीयता का संतुलन शानदार रखा गया है. मसलन, आखिर में घटने वाली एक टीवी डिबेट में. जहां एक तरफ धर्म गुरु है तो दूसरी तरफ पीके. या फिर पीके की साथी एलियंस को धरती के बारे में की गई ब्रीफिंग में.

फिल्म के गाने बहुत महान नहीं हैं. मगर बुरे भी नहीं. हां, कुछ एक जगह लगता है कि बिना गानों के भी कहानी को आगे सरकाया जा सकता था. बोल अच्छे हैं और शोर नहीं है. इसलिए अखरते तो नहीं ही हैं.

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आमिर खान की पगड़ी में एक और रंगीली कलगी जुड़ गई. उन्होंने बिलाशक अब तक की सबसे अच्छी परफॉर्मेंस दी है. अनुष्का शर्मा भी जग्गू के रोल में बेहतर रहीं. कहीं भावुक, कहीं जिद्दी तो कहीं समीर सी सरस. मगर उनके ऊपरी ओंठ पर जब तक निगाह चली जाती है. जो शायद सर्जरी के बाद कुछ बदल गया है. इसलिए पुरानी अनुष्का रूप रंग के मामले में न खोजें, तो बेहतर है. फिल्म के बाकी कलाकार भी उम्दा हैं. छोटे से छोटे रोल में मंझे एक्टर लिए गए हैं. ताकि कहीं भी ढील न आए. और बड़े रोल की बात करें तो सौरभ शुक्ल और बोमन ईरानी क्रमशः धर्मगुरु और सीनियर टीवी एडिटर के रोल में पैबस्त हो गए हैं. और संजय दत्त ने एक बार फिर साबित किया कि उन्हें उम्दा एक्टिंग आती है, बशर्ते बागडोर किसी हिरानी के हाथ हो. सुशांत सिंह राजपूत लवर बॉय के रोल के लिए टेलर मेड हैं. ये वह पहले भी साबित कर चुके हैं. यहां फिर वही यकीन पनपा. उम्मीद है कि उन्हें आगे और भी वैराइटी वाले रोल मिलेंगे.

डायरेक्टर राजकुमार हिरानी ने फिल्म की लंबाई बेवजह बहुत बड़ी नहीं की है. कहानी को रोचक रखा है. भावुक होने दिया है, मगर नियंत्रण नहीं खोया. फिल्म का कैनवस बदलता है. एलियन आते हैं. मगर कहीं भी चमत्कार की जरूरत नहीं पड़ती. और इसलिए भी पीके एक अच्छी फिल्म बन जाती है.

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शुक्रिया टीम पीके. इस फिल्म के लिए. ऐसी फिल्में बनती हैं तो हमारा मनोरंजन पर मन बना रहता है.

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