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फिल्म रिव्यू: शिल्पा शुक्ला की फिल्म बीए पास सी ग्रेड नहीं एक शानदार फिल्म है

10 प्वाइंट फिल्म रिव्यू: बीए पास स्टार: पांच में से चार स्टारडायरेक्टरः अजय बहल, एक्टरः शिल्पा शुक्ला, शादाब कमल, दिव्येंदु भट्टाचार्य, राजेश शर्मा, दीप्ति नवल1 इरॉटिका नहीं है येः सबसे पहले सबसे जरूरी बात. फिल्म बीए पास के ट्रेलर पर न जाएं. ये कोई नशा टाइप घटिया फिल्म नहीं है, जिसमें एक यंगस्टर और एक उससे ज्यादा उमर की औरत के बीच सेक्स दिखाने के सी ग्रेड बहाने खोजे गए हों

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फिल्म बीए पास का दृश्य
फिल्म बीए पास का दृश्य

10 प्वाइंट फिल्म रिव्यू: बीए पास

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स्टार: पांच में से चार स्टार

डायरेक्टरः अजय बहल, एक्टरः शिल्पा शुक्ला, शादाब कमल, दिव्येंदु भट्टाचार्य, राजेश शर्मा, दीप्ति नवल

1 इरॉटिका नहीं है येः सबसे पहले सबसे जरूरी बात. फिल्म बीए पास के ट्रेलर पर न जाएं. ये कोई नशा टाइप घटिया फिल्म नहीं है, जिसमें एक यंगस्टर और एक उससे ज्यादा उमर की औरत के बीच सेक्स दिखाने के सी ग्रेड बहाने खोजे गए हों. हालांकि फिल्म राम जाने क्यों वैसे प्रमोट की जा रही है. ये फिल्म सबसे पहले एक लड़के की मजबूरी और कशमकश की कहानी है.बहनों के लिए, अपने लिए, अच्छे वक्त के लिए, वो अनजाने में पुरुष वेश्या बन जाता है. इसकी शुरुआत करती हैं उसकी बुआ की दोस्त एक आन्टी. इन सबके बीच और भी दुनियावी चक्कर चलते हैं, जो करुण हैं, मानवीय हैं और बार-बार बताते हैं कि दिल्ली की दीवार के पीछे दिन में, रात में, सुबह में, शाम में, क्या कुछ रेंगता है और अमूमन नजर में भी नहीं आता.

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2 रेलवे आन्टी और प्लॉटः फिल्म मोहन सिक्का की कहानी ‘द रेलवे आन्टी’ पर बेस्ड है. कहानी के संकेत ग्रहण करें अब. मुकेश अनाथ हो गया है. दो बहनों की जिम्मेदारी है, जो लड़कियों के शेडी से सरकारी आश्रम में हैं. मुकेश बुरी बुआ और उनके कमीने बेटे के पास रहकर बीए पास कोर्स कर रहा है. तभी उस पर नजर पड़ती है बुआ के बॉस की बीवी और किटी सहेली सारिका आंटी की. आंटी की नजरे इनायत होती है और फिर कई आंटियों की. मगर फिर कुछ ऐसा हो जाता है कि सब दांव उलट जाते हैं. इस फाइट में जो फ्रेंड बने थे, उनके भी कुछ किस्से हैं. इन सबसे मिलकर आखिरी में एक त्रासद कोलाज बनता है.

3 हीरोइन कौन होनी थीः फिल्मी खबरों पर जाएं तो डायरेक्टर अजय बहल रेलवे आन्टी के लिए दिल्ली की जुबानी और समझ रखने वाली लड़की चाहते थे. वो भी छोकरी टाइप नहीं ऐसी एक्ट्रेस जो सूं सां के बजाय औरत जैसी दिखे, कद्दावर सी कुछ. ऑप्शन दो तय हुए. ऋचा चड्ढ़ा और शिल्पा शुक्ला. शिल्पा के साथ एक डाउट था कि उनकी चक दे इंडिया की इमेज अभी तक कैरी हो रही थी. तभी ऋचा को अनुराग कश्यप की गैंग्स ऑफ वासेपुर मिल गई और अजय ने भी उन्हें इसके लिए उकसाया. और इस तरह सारिका आंटी का दमदार और चुनौतीपूर्ण रोल मिला शिल्पा को.

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4 शिल्पा शुक्ला का कामः एक क्रिटिक, एक दर्शक और एक इंसान के तौर पर मैं शिल्पा शुक्ला का फैन हो गया हूं. चक दे इंडिया में उन्होंने बिंदिया नायक को जिंदा कर दिया. शाहरुख के सामने वही एक खिलाड़ी जोरदार ढंग से टिकी थीं. तुगलक बोलते, चेन खोलते या बगावत के सुर अलापती हुई. बीए पास को भी सबसे ज्यादा घने रंग उन्होंने ही बख्शे. इकतरफा छिछोरी कमीनी औरत का रोल नहीं है ये. इसमें कुछ प्यासे, कुछ समझदारी के और कुछ खीझ के शेड्स भी थे. शिल्पा ने अपनी आवाज, आंखों के उतार चढ़ाव और ठहराव और देह भाषा से इसे नए माने दिए. उन्होंने अपने लिए भी एक्टिंग का पैमाना फिर ऊंचा कर लिया.बधाई इस इरॉटिक से दिखते मगर गहराई लिए रोल को कुबूलने और निभाने की.

5 निभा ले गए शादाबः फिल्म में मुकेश के चेहरे पर अकसर निरीह भाव, कभी कुछ उमंग और कभी कुछ बड़प्पन दिखना था. शादाब ने ये सब दिखाया बिना फनी दिखे. मुझे ज्यादा कुछ नहीं मालूम उनके एक्टिंग करियर के बारे में. मगर शिल्पा, राजेश और दूसरे मंझे हुए थिएटर और फिल्मी एक्टर्स के सामने वे नौसिखिए तो नहीं ही लगे.उनका सारिका आंटी के साथ अंतरंग सीन्स में उस दुविधा और फिर चोर मजे को निभा ले जाना कामयाबी की कैटिगरी में ही आएगा.और फिर वो लाचारगी भरे सेकंड हाफ के कुछ सीन्स भी. गुड जॉब माई बॉय.

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6 बाकी एक्टर्स कैसे थेः क्या कास्टिंग की गई है जनाब. लगा ही नहीं कि एक्टर्स को देख रहे हैं. कब्रिस्तान के जॉनी के रोल में दिव्येंदु जिन्हें आप देव डी के दल्ले के रूप में देख चुके हैं. सारिका के शौहर के रूप में डार्लिंग एक्टर राजेश शर्मा के पास ज्यादा फुटेज नहीं था. पर जितना भी था उसे अच्छा ट्रीटमेंट मिला. इसी तरह पराठे बनाती और झूठी गरीबी का मिडल क्लास रोना रोतीं मुकेश की बुआ के रोल में गीता अग्रवाल हों या पीएचडी के रोल में दोहरी जिंदगी जीता हैप्पी रंजीत, सभी ने अपने अपने तईं फिल्म को एक कोना और कुछ अतिरिक्त अर्थवत्ता बरती है.

7 एक किस्से के कंकाल पर उगे कई और अंगः बीए पास सिर्फ मुकेश के सारिका के जाल में फंसने की कहानी नहीं है. इसमें दिन और रात के पर्दे के पीछे छिपी दिल्ली है. सुबह फूटने से पहले तक सड़क किनारे लिपे पुते खड़े लौंडे हैं. खोली में रंगीन पोस्टकार्ड के सहारे सपनों को टांगे कुछ घिनहे से दिखते लोग हैं. कास्पारोव और कॉर्पोव की लडा़ई है.किटी पार्टी के सहारे बॉस की गुड बुक में आने की जुगत है. तकलीफ की तनहाई में खर्च होती एक औरत है, जिसे दीप्ति नवल ने निभाया है. छोटा सा रोल, मगर हमेशा के लिए याद रह जाए.कुछ बहनें हैं जो वॉर्डन के शिकंजे से बचने को बेकरार हैं. एक भाई है जो आखिरी दौड़ दौड़ रहा है फोन की घंटियों और सायरन के बीच.

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8 अश्लील हुए बिना बोल्ड प्लॉट दिखाया डायरेक्टर बहल नेः फिल्म के डायरेक्टर ने पहली बार ये टोपी पहनी है. पर लगता नहीं ऐसा. जैसा मैंने सबसे पहले कहा कि फिल्म बोल्ड है. कई करीबी सीन हैं. मगर कहीं भी बगलें झांकने की जरूरत नहीं पड़ती. कुछ भी अश्लील नहीं दिखता. कैमरा करीब आता है, तो चेहरे की रंगत दिखाने के लिए. दूर जाता है तो बस इतना कि पता चलता रहे कि क्या कुछ हो रहा है. मगर ये सीन चेहरे पर आकर चिपकते नहीं. रेलवे आंटी एक कहानी है, मगर उसको अच्छा सिनेमाई विस्तार दिया है अजय ने. दिल्ली की कुछ नई लोकेशन भी खोजकर लाए हैं वो.कुछ मिलाकर फिल्म को जितने अवॉर्ड मिले हैं. वो वाकई पब्लिक के पर्दे पर भी उन्हें जस्टीफाई करती है.

9 कुछ फुट नोट्स भीः हिंदी फिल्म है तो म्यूजिक होगा ही. यहां भी है मगर बैकग्राउंड स्कोर की तरह. जैसे लाइफ में होता है. आलोकनंदा दासगुप्ता ने उसे बोझिल नहीं बनने दिया. वो कहानी को, उसके असर को पतला नहीं करता है. और ये हिंदी फिल्मों के लिहाज से बेहद अहम कामयाबी है. इसी तरह फिल्म की एडीटिंग की बात करें तो फर्स्ट हाफ में एक बार लग सकता है कि ठीक है भाई समझ गया कि मुकेश इसमें उलझ गया. अब कितना खींचोगे. मगर सेकंड हाफ में फिल्म जो रफ्तार पकड़ती है तो सीधे अंत पर ही सुध बख्शती है आसपास की.कैमरा वर्क और लोकेशन अनुराग कश्यप के सिनेमा की याद दिलाता है. आवारगी में झूमता कैमरा और घिसी पिटी एम्स फ्लाईओवर जैसी दिखती नई दिल्ली से दूर, असल-नई सराय रोहिल्ला नुमा पुरानी दिल्ली की लोकेशंस. ये फिल्म के कुछ और मजबूत पक्ष हैं.

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10 और अंत में प्रार्थनाः बड़ा फिल्मकार वो नहीं होता जो तय वक्त में कुछ किरदारों से अपनी बात कह दे. बडा़ फिल्मकार वो है जो उन किरदारों को उस वक्त में आपके जेहन में पैबस्त कर दे. कहने को फिल्म पर्दे पर खत्म हो जाए. मगर आप जब लौटें तो साथ में किरदार भी लौटें. कुछ सवाल भी लौंटे, जिनके जवाब आप गढ़ते रहें कि अच्छा फिर इसका क्या हुआ. वैसा भी तो हो सकता था. अगर मैं होता तो यूं करता. कुछ किरदारों के लिए प्रार्थना सी चलती रहे कि काश कुछ ठीक हो जाता उसके साथ. ये अधूरापन नहीं नए चलन की किस्सागोई की कामयाबी है. फिल्म जब खत्म होती है, तो कुछ खत्म होता है, मगर कुछ शुरू भी होता है. पर्दे पर सब कुछ दिखता नहीं है. इसलिए रह जाता है दिमाग में. सलाह फिर दोहरा रहा हूं जनता भगवान के लिए कि बीए पास सस्ती सी ग्रेड फिल्म नहीं है, बहुत ही त्रासद, भावुक और जटिल कहानी है और इस फिल्म को जरूर देखा जाए.

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