रेटिंगः 2 स्टार
डायरेक्टरः पवन कृपलानी
कलाकारः राधिका आप्टे
कई फिल्मों में डायरेक्टर दर्शकों के धैर्य की परीक्षा लेने के मामले में हद से गुजर जाते हैं, और ऐसा ही कुछ फोबिया के बारे में भी है. लंबे समय से हल्ला मचा हुआ था कि फोबिया एक लो बजट और थ्रिलर है. फिल्म के हॉरर फैक्टर को भी उभारा जा रहा था. सस्पेंस की बातें भी काफी हो रही थीं. विवादों की वजह से सुर्खियों में रहने वाली राधिका आप्टे को इस फिल्म का एक्स फैक्टर माना जा रहा था. लेकिन जब फिल्म देखी तो यही मुहावरा दिमाग में गूंजने लगा- थोथा चना बाजे घना. फिल्म पूरी तरह से कन्फ्यूज है. डायरेक्टर इस बात को समझ ही नहीं पाए है कि वे दिखाना क्या चाहते हैं. कहने के लिए साइकोलॉजिकल थ्रिलर, लेकिन सिर को भारी कर देती है.
कहानी में कितना दम
फिल्म की कहानी राधिका आप्टे की है. जो एक पेंटर है और बहुत अच्छा काम करती है. लेकिन एक रात वह एक टैक्सी ड्राइवर के साथ किसी हादसे की शिकार हो जाती है और उसकी पूरी जिंदगी ही बदल जाती है. उसे एग्राफोबिया हो जाता है. वह अकेले घर में रहती है. कहीं नहीं जाती है. अनजान लोगों को देखकर घबराने लगती है. उसके घर वाले और दोस्त उसकी मदद करने की कोशिश करते हैं. जब कोई नतीजा नहीं निकलता तो उसे अकेले एक घर में रख दिया जाता है. जहां वह अपनी ही एक अलग दुनिया और कहानियां गढ़ने लगती है. उसे लगता है किसी का मर्डर हो गया है. उसका पड़ोसी कातिल है. फिर उसे अपने दोस्त पर भी शक होने लगता है. कई जगह तो फिल्म कॉमेडी टाइप हो जाती है. कुल मिलाकर डायरेक्टर न तो इसे थ्रिलर बना सका और न ही ऐसी फिल्म जो बांधकर रख सके. डायरेक्टर एक बेहतरीन फिल्म बनाने से चूक गए.
स्टार अपील
जहां तक ऐक्टिंग की बात है तो फिल्म में राधिका आप्टे ही छाई रहती हैं. उनके साथ कुछ कलाकार आते हैं. जिनके बारे में जानने की ज्यादा जरूरत नहीं लगती. सारा काम राधिका आप्टे के जिम्मे है, लेकिन एक उलझी हुई कहानी में वे जितनी जान डाल सकती थीं, वे उस कोशिश में सफल रही हैं. उन्होंने डरने, कन्फ्यूज होने और डराने जैसे एक्सप्रेशंस बहुत अच्छे दिए हैं. लेकिन कई जगह उनके हंसने, रोने और डरने के एक्सप्रेशंस एक जैसे ही लगने लगते हैं.
कमाई की बात
कुल मिलाकर फिल्म उस समय जिज्ञासा पैदा करती है, जब राधिका एग्राफोबिया की शिकार हो जाती है. लेकिन उसके बाद डायरेक्टर को समझ ही नहीं आता कि वे क्या दिखाएं. कभी वे हॉरर का टच डालने की कोशिश करते हैं तो सीन को मजाक में तब्दील कर देते हैं. फिर वे कुछ ऐसे हालात बनाते हैं, जो कहीं से भी कनेक्ट नहीं करते हैं, और साइकोलॉजिकल थ्रिलर में हमारी साइकोलॉजी की परीक्षा होने लगती है. फिल्म देखने के बाद इस तरह की फिल्मों से फोबिया होना स्वाभाविक हो सकता है.