फिल्म रिव्यूः आइडेंटिटी कार्ड
एक्टरः टिया वाजपेयी, सौरभ शुक्ला, ब्रजेंद्र काला, प्रशांत कुमार, विपिन शर्मा, रघुवीर यादव, फुरकान मर्चेंट
डायरेक्टरः राहत काजमी
ड्यूरेशनः 1 घंटा 28 मिनट
रेटिंगः 5 में 1
अरसे बाद कश्मीर की समस्या पर हिंदी में कोई फिल्म आई. एक उम्मीद सी बंधी थी कि कुछ दिमाग को मथने वाला, नए सवाल देने वाला, नए जवाब खोजने के लिए प्रेरित करने वाला दिखेगा. मगर फिल्म आइडेंटिटी कार्ड को देखकर बेतरह निराशा हाथ लगी. फिल्म कई समस्याओं पर जोर जोर से कमेंट करने की कोशिश करती है. इसकी कहानी बहुत बचकानी लगती है. रही सही कसर लीड पेयर की कच्ची एक्टिंग पूरी कर देती है. ऐसे में थिएटर बैकग्राउंड के कुछ कलाकारों की त्रासद हंसी भी मरहम नहीं लगा पाती.
नाजिया एक टीवी रिपोर्टर है. तीन साल से कुछ काम नहीं मिला. बॉस की चिरौरी करती है, तो एक असाइनमेंट मिलता है. सेंसिटिव इशू पर डॉक्युमेंट्री बनाने का. नाजिया कश्मीर चुनती है. मदद करता है फेसबुक चैटिंग से दोस्त बना अजय, जो श्रीनगर का रहने वाला है और सिविल सर्विसेस की तैयारी कर रहा है. यहां उनके साथ जुड़ता है राजू गाइड. फिर अचानक इन तीनों को जेएंडके पुलिस की स्पेशल यूनिट एसटीएफ उठा लेती है. पूछताछ शुरू होती है. कहां बम फोड़ने वाले थे, सरहद पार से कब आए, कौन कौन है तुम्हारे साथ. इस दौरान पुलिस के कई रंग नजर आते हैं. इन तीनों का आपसी रिश्ता भी बनता बिगड़ता रहता है. ये सब होता है क्योंकि नाजिया के पास अपना प्रेस वाला आइडेंटिटी कार्ड नहीं है. उधर राजू है, जो अपना वोटर आईडी कार्ड दिखाकर कहता है, साब इसे देखकर तो मुझे फौज वाले भी छोड़ देते हैं. उधर अजय है, जो सचिवालय में काम कर रहे अपने पिता को खबर करने को तड़पता है.
पुलिस वालों की भी अपनी डायनिमिक्स है. युवा इंस्पेक्टर है, जो अपनी बीवी को हनीमून पर नहीं ले जा पा रहा है. एक सिपाही है, जो नौकरी चाहता था, विधायक के यहां आटा गूंथता था और अब यहां फंस गया है. एक अधेड़ पुलिस वाला है, जिसका जवान बेटा आतंकवादी बन गया था और जो अब बवासीर से परेशान है.
इन्हीं सब परेशानियों के बीच आखिर के पांच दस मिनट में कहानी की घिर्री को जोर से घुमा दिया जाता है और भड़ाभड़ अंदाज में सवाल जवाब दे दिए जाते हैं. उसके पहले कश्मीर के कुछ कोने भी दिखा दिए जाते हैं ताकि सनद रहे कि शूटिंग श्रीनगर में ही हुई है.
फिल्म की कहानी बेहद कमजोर है. शुरुआत में ही कहा जाता है कि सेंसिटिव इशू पर कहानी चाहिए. मगर नाजिया मूर्खतापूर्ण ढंग से कहती है कि मुझे यहां के बारे में कुछ नहीं पता, मैं तो बस यहां की ब्यूटी शूट करूंगी. उधर अजय नाम का लड़का है, जो पांडुओं जैसी हरकतें करता है और अपने कर्म से निरा बोदा दिखता है. फिल्म पाकिस्तान और सेना के बीच फंसे युवाओं की मुश्किलों को उठाने का दावा करती है. मगर वह यह काम तसल्लीबख्श ढंग से कर नहीं पाती.
टिया वाजपेयी की एक्टिंग एवरेज से कुछ कम है. अजय के रोल में फुरकान मर्चेंट तो बहुत ही कमजोर रहे हैं. एक्टिंग अच्छी की है हमेशा की तरह ब्रजेंद्र काला, सौरभ शुक्ला और विपिन शर्मा ने.
फिल्म के राइटर संजय अमर ने एक इंटरव्यू में कहा कि मैं श्रीनगर गया था. शंकराचार्य मंदिर जा रहा था. उसके पहले लाल चौक पर क्रॉस फायरिंग हुई थी. तभी कुछ ऐसा हुआ कि मैंने ये कहानी लिख डाली. प्रेरणा अच्छी है अमर साहब, मगर इस कहानी के पेच इतने ढीले हैं और कैनवस इतना बड़ा कि शिराजा बिखरा नजर आता है.
फिल्म की एडिटिंग भी खराब है. अचानक से सीन आ जाते हैं और बैकग्राउंड म्यूजिक भी लेट लतीफ सा चलता है. डायरेक्टर राहत काजमी की फिल्म पर कहीं भी पकड़ नहीं दिखती. कुछ एक मोनोलॉग या वन टु वन संवाद बेहतर हो सकते थे, मगर उनके आगे पीछे इतना गुड़ गोबर होता है कि वे भी असर खो बैठते हैं.
आइडेंटिटी की असफल तलाश है फिल्म आइडेंटिटी कार्ड.
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