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छिलकेदार कहानी, जबराट एक्टिंग, नया सिनेमा फाइंडिंग फैनी

बवाल से शुरुआत करते हैं. पिछले दिनों कोर्ट में एक मुकदमा दाखिल हुआ. कहा गया कि साहब, फैनी तो अंग्रेजी का एक सड़कछाप (पढ़ें स्लैंग) शब्द है. इसका मतलब भारी पुट्ठों से होता है. और नई पीढ़ी इस फिल्मी टाइटिल से दिग्भ्रमित हो सकती है. कोर्ट ने अपील खारिज कर दी. तसल्ली हुई कि पीढ़ियों के भटकने को एक फिल्म के मुखड़े का बहाना नहीं चाहिए. वैसे फैनी के इस मतलब का सीधा असर फिल्म में डिपंल कपाड़िया के किरदार के भारी नितंबों से जोड़ा जा सकता है. पर इतने पर रुक जाना कुछ वैसा ही होगा जैसे ये कहना कि हुसैन घोड़ा पेंटर थे.

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फिल्म रिव्यूः फाइंडिंग फैनी
एक्टरः दीपिका पादुकोण, अर्जुन कपूर, नसीरुद्दीन शाह, पंकज कपूर, डिंपल कपाड़िया
डायरेक्टरः होमी अडजानिया
ड्यूरेशनः 1 घंटा 45 मिनट
रेटिंगः 5 में 4

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बवाल से शुरुआत करते हैं. पिछले दिनों कोर्ट में एक मुकदमा दाखिल हुआ. कहा गया कि साहब, फैनी तो अंग्रेजी का एक सड़कछाप (पढ़ें स्लैंग) शब्द है. इसका मतलब भारी पुट्ठों से होता है. और नई पीढ़ी इस फिल्मी टाइटिल से दिग्भ्रमित हो सकती है. कोर्ट ने अपील खारिज कर दी. तसल्ली हुई कि पीढ़ियों के भटकने को एक फिल्म के मुखड़े का बहाना नहीं चाहिए. वैसे फैनी के इस मतलब का सीधा असर फिल्म में डिपंल कपाड़िया के किरदार के भारी नितंबों से जोड़ा जा सकता है. पर इतने पर रुक जाना कुछ वैसा ही होगा जैसे ये कहना कि हुसैन घोड़ा पेंटर थे.
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बहरहाल, किस्सा कोताह ये है कि फिल्म फाइंडिंग फैनी जबरदस्त है. इसका हर किरदार जाने अनजाने किसी खोई हुई चीज की खोज कर रहा है. आखिर में उन्हें मिलती भी हैं ये चीजें. पर कइयों को इसका इलहाम भी नहीं होता. ये फिल्म रेगुलर हिंदी मसाला फिल्म नहीं है. हीरोइन ने हीरो की चुम्मी ली. मम्मी-पापा ने कुछ ट्विस्ट डाले. गाने. विछोड़ा और आखिर में संगम होगा ही यहीं. इसलिए टिपिकल मसालों की उम्मीद में मल्‍टीप्लेक्‍स की तरफ पग बढ़ाने वाले इससे निराश हो सकते हैं. मगर नई किस्म की कहानी और उम्दा एक्टिंग के मुरीद लोग इस फिल्म को जरूर देखें. इसे देखने की कई वजहें और भी गिनाई जा सकती हैं. मसलन, हिंदी सिनेमा के दो सबसे जाबड़ एक्टर नसीरुद्दीन शाह और पंकज कपूर इसमें हैं. और सिर्फ हैं ही नहीं, बाकायदा अपने हिस्से की हर रील के हवा पानी और रौशनी में पुरजोर बसे हुए हैं.
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आंखों को अनंत में टिकाकर डिंपल की आंखों के कोरेपन पर बोलते पंकज कपूर. सब कुछ हार कर कंधे झुका चुके बच्चे से नजर आते बूढ़े नसीरुद्दीन शाह. उफ्फ, हिंद वालों. कोई तुमसे रश्क कर सकता है कि तुमने इन दोनों को एक्टिंग करते देखा है. इसके अलावा फिल्म में दीपिका और अर्जुन हैं. कच्चे तालाब पर उतरे दो बत्तख के बच्चों से. कोरेपन को बिना कोशिश के लपेटे-समेटे. फिल्म की जमीन, गोवा का एक गांव भी बिल्कुल ताजा डाल का टूटा नजर आता है. फिल्म में डिंपल की बेचारगी कुछ ओढ़ी हुई सी लगती है. अति आक्रामक दयनीयता का यह स्वरूप कुछ उलझाऊ है. फिल्म की कहानी भी दिलचस्प है. ये प्याज की तरह है. कई परतों में बसी हुई.

दो विधवा हैं. सास रोजलिन (डिंपल) और बहू एंजी (दीपिका). एंजी की शादी रोजलिन के बेटे गाबो से हुई. मगर वो शादी के 15 मिनट बाद ही गॉड के पास चला गया. एंजी अपने इस निर्वासन में भी सुख का साथ खोज लेती है. अपने गांव के, अड़ोस पड़ोस के लोगों को दिलासा देती एंजी को देखकर लगता ही नहीं कि इसकी अपनी प्यास बुझाने के लिए कोई सोता कभी फूट सकता है. मगर ऐसा होता है, जब एंजी का बचपन का दोस्त सैवियो (अर्जुन) गांव लौटता है. सैविया एंजी से प्यार करता था, मगर गाबो ने पहल कर दी और...अब एंजी है, सैवियो है, पुरानी दोस्ती है, पुरानी ही नाराजगी भी है और नई, अजीब सी झिझक है. इनके बीच एंजी के कौमार्य की रक्षा करतीं उसकी सास रोजलिन भी हैं.

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इस कहानी का ट्रैक बदलता है दो कौओं के दखल से. गांव का बूढ़ा अकेला पोस्ट मास्टर फर्डी एक चिट्ठी पाता है. खुद उसी ने इसे लिखा था 46 साल पहले. अपनी लेडी लव फैनी को. खत बिना डिलीवर हुए लौट आया. फर्डी को लगा कि जीने की एक उम्मीद लौट आई. फैनी को तो पता ही नहीं चला कि फर्डी उससे कित्ता प्यार करता है. उसने फैनी की तलाश की तैयारी कर ली. साथी बने एंजी और सैवियो.

दूसरा कौआ कुछ रंगीन किस्म का था. काम भी रंगों वाला. पेंटर डॉन पेड्रो जो उस गांव में एक नया शाहकार रचने आया था. डॉन की लालसा भरी नजर मैडम रोजलिन पर टंगी है. तो स्टेज सेट है. जहां पांचों किरदार अलग-अलग वजहों से एक दूसरे के साथ अटके हैं. सबके अपने मकसद हैं. और प्रकट रूप से सब सड़क दर सड़क भटककर फैनी को खोजना चाहते हैं. इस तलाश में किसी को प्यार मिलता है, तो किसी को अपने कड़वे सच का सामना करने की हिम्मत. और आखिर में एक और किस्सा जाल में लिपटी झील की तलछटी में डूब जाता है. किसी और के कांटे में फंस बाहर आने को.

फाइंडिंग फैनी शहर के खिलाफ, इस शहर की कोख से निकले व्यक्तिवाद के खिलाफ और इस व्यक्तिवाद का परचम बने छिछले एकांत के खिलाफ एक बगावत है. यहां सब एक दूसरे की जिंदगी में दखल दे रहे हैं. सब सामुदायिकता के सहारे अपने भीतर के व्यक्ति की तलाश कर रहे हैं. वे एक दूसरे पर चीखते हैं. बुराई करते हैं. लानत भेजते हैं. मगर टांग अड़ाना और मदद करना बंद नहीं करते. उनकी चिंताएं नए सबब पा बढ़ती रहती हैं.

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इस फिल्म में वह अनिवार्य क्रूर हास भी है, जो यकीनन होता ही है. कभी किसी शख्स तो कभी किसी बेचारगी की कीमत पर उगता. फिल्म में दो गाने हैं. दोनों ही बैकग्राउंड स्कोर की तरह आते हैं. पहला फिल्म के मध्य में और दूसरा आखिर में, जब फिल्म में काम करने वालों के नाम आते हैं. कानों को बरकत मिले, ऐसे गाने हैं ये. लचकदार, शोख. दीपिका की कमनीय हंसी और काया से. अर्जुन से बनैले भी. डायलॉग विटी भी हैं और प्रिटी भी. स्क्रीनप्ले चुस्त है और रफ्तार कहीं भी सुस्त नहीं पड़ती.

होमी अडजानिया ने इस फिल्म से ये साबित कर दिया कि कॉकटेल के फेर में वह बीइंग साइरस वाला सिनेमा नहीं भूले हैं. फाइंडिंग फैनी में कई स्तरों और कई प्रतीकों के सहारे प्रकट होती कहानी एक पाठ की तरह है. जिसे आप जितनी बार पढ़ेंगे, उतनी बार कुछ नए अर्थ खुलेंगे.

आज तक के फिल्म क्रिटिक सौरभ द्विवेदी को ट्विटर पर फॉलो कर सकते हैं. उनका हैंडल है @saurabhaajtak

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