फिल्म रिव्यूः तमंचे
एक्टरः ऋचा चड्ढा, निखिल द्विवेदी, दमनदीप सिंह
डायरेक्टरः नवनीत बहल
रेटिंगः 1 स्टार
राजा मिश्रा नाम का गुंडा. क्लेम ऑफ फेम- दो करोड़ की फिरौती वाला अपहरण. बाबू नाम की गुंडी. जो गुंडई नहीं करती. लाखों का नशीला माल इधर से उधर करती है. दोनों पुलिस के हत्थे चढ़ते हैं. वैन में बैठकर जेल जा रहे हैं. वैन पलट जाती है. खाई में गिरती है. सब मर जाते हैं. राजा और बाबू बच जाते हैं.
राजा बाबू भागते हैं. लड़ते हैं. पुलिस से बचते हैं. और इन्हीं सब के बीच राजा को बाबू से प्यार हो जाता है. तमाचा, रुलाई और कुछ गानों के बाद बाबू राजा को प्यार देती है. और फिर फुर्र हो जाती है.
राजा अपनी रानी की खोज में निकलता है और राणा से टकराता है. राणा पहलवान था, उसका बड़ा मान था. अब बदमाश है और उसे आस है कि वह मादक पदार्थों के करोड़ों के कारोबार का करामाती खिलाड़ी बन सकता है. और हां, बाबू राणा की गर्लफ्रेंड है. हाफ नहीं, फुल. दो साल से.
लेकिन राजा के राणा के गैंग में शामिल होने के बाद बाबू का दिल बबली बदमाश बन जाता है. ऐसा लगता है कि राणा अब तक उसका जबरन शोषण करता आया था और राजा उसे बचाने आया है.
आखिर में हर महान हिंदी फिल्म की तरह होगी प्यार की जीत या फिर हार... इसे ही तमाम मसालों में लपेट आंच पर पकाया है डायरेक्टर नवनीत राणा ने.
फिल्म तमंचे बहुत ही घसीटामार ढंग से बनाई गई है. डायरेक्टर और राइटर का सारा जोर हिंदी पट्टी के जुमलों को डायलॉग की शक्ल में पेश करने का रहा है. मसलन, धनिया बो देंगे, दीवार खोद देंगे और लिख देंगे क्रांति. मगर डायलॉग की अदायगी और टाइमिंग दोनों ही बटमार नहीं हैं. कहानी कच्ची है और स्क्रीनप्ले में कसावट की कमी है.
फिल्म बाबू यानी ऋचा के कंधों पर टिकी है. मगर उनका किरदार तीन चीजों में मगन रहता है. गाली बकना, मादक दिखना और जोर लगाकर मर्दों के धंधे में खुद को 21 साबित करना. और ये तीनों ही काम बहुत फूहड़ शकल में सामने आते हैं. मेन स्ट्रीम की अदाकारा बनने के दबाव के फेर में ऋचा ये सब कर रही हैं. देखिए कहां ले जाता है ये उनको. राजा के रोल में निखिल द्विवेदी भी फुस्स हो गए हैं. राजा के रोल में उनकी जबान उलझाऊ है और वह कहीं से भी माटी का गीलापन गले में नहीं ला पाते. राणा का रोल दमनदीप ने किया है. वह ऐंठे हुए रहते हैं और गबरू और ठसपने से भरपूर दिखते हैं इस रोल में. पर कुछ खास असर नहीं छोड़ पाते.
फिल्म रेट्रो रंगत अपनाने की कोशिश करती है. पर ये काम कई फिल्में और काफी बेहतर ढंग से कर चुकी हैं. फर्स्ट हाफ में रोमैंस की खातिर हर पांच मिनट में गानों का कमर्शल ब्रेक आता है. इसके चक्कर में फिल्म और अझेल हो जाती है.
तमंचे एक अच्छी देसी रोमांटिक थ्रिलर हो सकती थी. मगर इसने प्यार से दिल पर नहीं, बल्कि कहानी और पटकथा पर गोली मार दी. नतीजतन, मनोरंजन घायल हो गया और हमारे पैसों की जान चली गई. ओउम शांति.
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