फिल्म रिव्यूः मर्दानी
एक्टरः रानी मुखर्जी, ताहिर भसीन, जिशू सेनगुप्ता, प्रियंका शर्मा
डायरेक्टरः प्रदीप सरकार
ड्यूरेशनः 1 घंटा 53 मिनट
रेटिंगः 5 में 3.5
फिल्म सिंघम में करीना कपूर अजय देवगन से मजाक में ही सही एक ख्वाहिश जाहिर करती हैं. लेडी सिंघम बनने की ख्वाहिश. और अगले ही शुक्रवार पर्दे पर हमें रानी मुखर्जी पुलिस इंस्पेक्टर के रोल में नजर आती हैं. और क्या खूब नजर आती हैं. फिल्म मर्दानी एक औरत के मर्दों के तौर तरीके, सोच अपनाकर उन्हें उनकी ही जमीन पर मात देने की कहानी है, ताकि उनका जमीर जग सके. मुनीर कौसर का लिखा टाइटल सॉन्ग मैं तुमको नहीं छोड़ूंगी फिल्म के फलसफे को बखूबी बयां कर देता है. इस फिल्म को देखा जाना चाहिए. रानी और ताहिर भसीन की जबरदस्त एक्टिंग के लिए. ह्यूमन ट्रैफिकिंग की कुछ काली सच्चाइयां जानने के लिए, एक चुस्त पटकथा के लिए और एक लेडी कॉप के बढ़िया चित्रण के लिए भी.
शिवानी शिवाजी राव मुंबई पुलिस के क्राइम ब्रांच की सीनियर इंस्पेक्टर है. उसके पति डॉक्टर हैं और एक भतीजी भी है, जो साथ रहती है. इस भतीजी की एक दोस्त है. अनाथालाय में रहने वाली और रेड लाइट पर फूल बेच रोजी कमाने वाली. प्यारी नाम है उसका. वह एक दिन गायब हो जाती है. और उसको खोजते हुए इंस्पेक्टर शिवानी धीरे धीरे उस दलदल में उतरती जाती है, जो इन बच्चियों को निगल जाता है. इस दलदल की शक्ल या कहें मेन मोहरा है एक चूजा सा दिखने वाला शातिर अपराधी, जिसे शिवानी जूनियर बोलती है. दोनों के बीच जोरदार चालें चली जाती हैं. इस लड़ाई के दौरान शिवानी के संकल्प और साहस का कदम कदम पर इम्तिहान होता है. और आखिर में जीत उसके हौसले की होती है.
इस फिल्म के जरिए रानी मुखर्जी ने साबित कर दिया है कि उनके भीतर एक्टिंग की आग अभी धधक रही है. इस फिल्म को उनके करियर बेस्ट फिल्मों में बिलाशक रखा जाएगा. इंस्पेक्टर के रोल में कठोरता, अपने साथियों के साथ सहजता और घर में ममता. इन तीनों कोनों को उन्होंने बखूबी साधा है. फिल्म में एक जगह जूनियर शिवानी के पति को सार्वजनिक रूप से जलील करने के बाद उसे फोन करता है. शिवानी उससे बात करते हुए कठोर शब्द बोलती है, चुनौती स्वीकार करती है और इस दौरान पति को देखते हुए जो आंसू ढलक आया है, उसे बीच में ही थाम लेती है. ये सीन फिल्म के सार को बयां करता है.
रानी मुखर्जी का लोहा तो सब पहले ही मान चुके हैं, इस फिल्म की एक और उपलब्धि ताहिर भसीन हैं. इस लड़के ने विलेन के रोल को एक ठंडक भरी क्रूरता बख्शी है. जब तक बाजी उसकी पकड़ में रहती है, वह मैम मैम के मखमली अंदाज को ओढ़े रहता है. मगर जैसे ही उसके हिस्से खून आने लगता है, वह कुतिया पर उतर आता है. रानी और ताहिर के अलावा बाकी छोटे किरदार भी परिवेश और देह भाषा के प्रति कतई उदासीन नहीं लगते हैं. डायरेक्टर प्रदीप सरकार ने फिल्म की कास्टिंग का भी खूब ख्याल रखा है. उन्हें शाबासी इस बात की भी मिलेगी कि फिल्म में मेलोड्रामा के तमाम तत्व होने के बावजूद अंत के एक हिस्से को छोड़कर कहीं भी मर्दानी लाउड नहीं होती. इसकी कहानी में बारीक ब्यौरों की भी गुंजाइश है और क्राइम थ्रिलर वाली स्पीड भी. फिल्म में दिल्ली और मुंबई की एक नई शक्ल नजर आती है.
कहानी सिर्फ एक लेडी पुलिस कॉप के संघर्ष को ही नहीं दिखाती. ये देह व्यापार और किडनैप के बहाने पुरुष जमात की सोच को भी दिखाती है. जूनियर जब कहता है कि आप औरतें इमोशनल बहुत हो जाती हो, या इगो पर ले लेती हो, तो जैसे वह पूरी जमात की सोच को चुनौती दे रहा होता है. और रानी जब आखिर में उसे हथियार फेंक दो दो हाथ करने के लिए ललकारती है, तो चक्र पूरा हो जाता है. दंगल में हारता छद्म मर्द सुकून देता है.
इस फिल्म को जरूर देखा जाना चाहिए. पर ध्यान रखें कि इसे ए सर्टिफिकेट मिला है. जाहिर है कि बच्चों के साथ देखने की फिल्म नहीं है ये.