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REVIEW: जमीनी हकीकत को दर्शाती है 'मुक्काबाज', जिमी ने मारी बाजी

अनुराग कश्यप का जिक्र होते ही आपको ब्लैक फ्राइडे, गैंग्स ऑफ़ वासेपुर और गुलाल जैसी फिल्मों की याद आ जाती है, जहां जमीनी हकीकत और तथ्यों के आधार पर चीजें परोसी गई हैं. कुछ ऐसी ही हकीकत के साथ एक बार फिर से अनुराग कश्यप ने डायरेक्शन में हाथ आजमाया है और इस बार उत्तर प्रदेश के बॉक्सिंग सिस्टम की तरफ ध्यान आकर्षित करने की कोशिश की है. जानते हैं आखिर कैसी बनी है यह फिल्म.

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मुक्काबाज
मुक्काबाज

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फिल्म का नाम: मुक्काबाज

डायरेक्टर: अनुराग कश्यप

स्टार कास्ट: विनीत कुमार सिंह, जोया हुसैन

अवधि: 2  घंटा 36 मिनट

सर्टिफिकेट: U/A

रेटिंग: 3.5 स्टार

अनुराग कश्यप का जिक्र होते ही आपको ब्लैक फ्राइडे, गैंग्स ऑफ़ वासेपुर और गुलाल जैसी फिल्मों की याद आ जाती है, जहां जमीनी हकीकत और तथ्यों के आधार पर चीजें परोसी गई हैं. कुछ ऐसी ही हकीकत के साथ एक बार फिर से अनुराग कश्यप ने डायरेक्शन में हाथ आजमाया है और इस बार उत्तर प्रदेश के बॉक्सिंग सिस्टम की तरफ ध्यान आकर्षित करने की कोशिश की है. जानते हैं आखिर कैसी बनी है यह फिल्म.

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कहानी:

फिल्म की कहानी उत्तर प्रदेश के बरेली शहर से शुरू होती है, जहां के दबंग नेता भगवान दास मिश्रा (जिमी शेरगिल) हैं और उनसे होकर ही खिलाड़ी बॉक्सिंग के अगले लेवल पर जाते हैं. श्रवण सिंह (विनीत कुमार सिंह) भी भगवान दास के लिए शिष्य की तरह काम करता है, लेकिन एक दिन ऐसा आता है जब श्रवण को लगता है कि बॉक्सिंग की जगह उसका शोषण किया जा रहा है, जिसकी वजह से वो भगवान दास से बगावत करके अपने हुनर को आगे ले जाने का प्रयास करने लगता है.

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कहानी में भगवान दास की भतीजी सुनैना मिश्रा (जोया हुसैन) की भी एंट्री होती है. उसी समय श्रवण को उससे प्यार हो जाता है. भगवान दास को श्रवण कुमार से सख्त नफरत है और वो किसी भी कीमत पर श्रवण को मुक्काबाज नहीं बनने देने के लिए प्रण लेता है. बहुत सारी बाधाओं का सामना करते हुए श्रवण बरेली से वाराणसी पहुंचता है. वहां उसकी मुलाकात कोच संजय कुमार (रवि किशन) से होती है. अब क्या श्रवण मुक्काबाज बन पाएगा? क्या उसकी शादी सुनैना से हो पाएगी? इन सब सवालों का जवाब आपको फिल्म देखकर ही मिलेगा.

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क्यों देखें फिल्म:

फिल्म की कहने काफी रॉ, रीयल और जमीन से जुड़ी हुई है, जो असलियत की तरफ ध्यान आकर्षित करती है. साथ ही एक प्रेम प्रसंग के साथ साथ यह फिल्म जातीय दंगों, खेल और पॉलिटिक्स का झोलझाल और सरकारी नौकरी, स्पोर्ट्स कोटा के ताना-बाना को भी दर्शाती है.

फिल्म की लिखावट कमाल की है. फिल्म के संवाद और कुछ सीन्स बड़े ही कमाल के हैं. डायलॉग्स आपको एक समय पर हंसाने के साथ-साथ सोचने पर विवश भी करते हैं.

एक अच्छे खिलाड़ी को किन-किन परेशानियों का सामना करना पड़ता है, ये भी इस फिल्म के जरिए दर्शाने की कोशिश की गई है.

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डायरेक्शन, सिनेमेटोग्राफी, आर्ट वर्क काफी अच्छे और रीयल लगते हैं. चाहे वो बनारस के सीन हो, या फिर बॉक्सिंग या घर के भीतर के शॉट्स, बढ़िया शूटिंग की गई है.

विनीत कुमार सिंह ने इसके पहले गैंग्स ऑफ़ वासेपुर, अग्ली जैसी फिल्मों में काम किया है, लेकिन इस फिल्म में लीड एक्टर के तौर पर वो बहुत ही गजब का अभिनय करते हुए दिखाई देते हैं. वहीं, जोया हुसैन का काम भी सराहनीय है. जिम्मी शेरगिल नेगेटिव रोल में बहुत ही उम्दा लगते हैं और वहीं रवि किशन ने कोच के रूप में अच्छा काम किया है.

एक तरह से मुकेश छाबड़ा ने परफेक्ट कास्टिंग की है. फिल्म के गीत कहानी के संग-संग चलते हैं. बैकग्राउंड स्कोर इस फिल्म के हिसाब से सटीक है.

कमजोर कड़ियां:

फिल्म देखते हुए काफी लम्बी लगती है और इसकी लेंथ को लगभग 20 मिनट छोटा किया जाता तो यह और भी ज्यादा क्रिस्प और कट टू कट लगती. लम्बी होने के वजह से समय-समय पर आपको मोबाइल देखने का समय भी मिल जाता है. एडिटिंग शार्प की जा सकती थी. कहीं-कहीं गाने बड़े हैं, जिन्हें एडिट किया जाता तो फिल्म बांधे रख पाने में सक्षम लगती.

बॉक्स-ऑफिस :

फिल्म का बजट 10 करोड़ रुपये से कम बताया जा रहा है. वर्ड ऑफ माउथ इस फिल्म को एक सफल फिल्म बना सकती है.

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