अगर आपको लगता है कि साउथ फिल्म का रीमेक बनाना फायदे का सौदा है तो यह एकदम गलत बात है. हर साउथ फिल्म का रीमेक बनाना जरूरी नहीं होता और ये बात हमें शिल्पा शेट्टी की लेटेस्ट फिल्म निकम्मा बताती है. 2017 में आई साउथ स्टार नानी की फिल्म मिडिल क्लास अब्बाई उर्फ एमसीए का रीमेक निकम्मा ना बनती तो भी अच्छा था. ये फिल्म हद बोरिंग हैं और नौटंकी से भरी हुई है. इस रिव्यू में हम बता रहे हैं कि इस फिल्म में क्या कमियां हैं.
कहानी में नहीं है खास दम
फिल्म की कहानी एक निकम्मे लड़के की है, जो अपनी जिंदगी में बस आराम और पैसा चाहता है. कहानी में वैसे तो मिडिल क्लास फैमिली को दिखाया गया है, लेकिन आदि (अभिमन्यु दसानी) परिवार के हर इंसान की बात मानने के लिए 10000 रुपये की डिमांड यूं ही करता रहता है और उसे तुरंत ये पैसे मिल भी जाते हैं. आदि अपनी जिंदगी में नई भाभी, अवनि (शिल्पा शेट्टी) के आने से परेशान है, क्योंकि उसके भाई की अटेंशन उससे छिन गई है.
जिस तरह का इनसिक्योर इंसान आदि है, वो घर छोड़ने का फैसला कर लेता है. भाभी से नफरत करने वाले आदि को एक समय पर आकर भाभी के साथ ही रहना पड़ता है. इसके बाद उसे पता चलता है कि जैसा वो जैसा सोचता है उसकी भाभी अवनि बिल्कुल वैसी नहीं है. दूसरी तरफ अवनि शहर के एक गुंडे को सबक सिखाने में लगी हुई है. ऐसे में जब अवनि की जान पर बनती है, तो सच्चाई जान चुका आदि उसे बचाने लाता है और गुंडे से पंगा ले लेता है. बस फिर क्या था बवाल शुरू हो जाता है. ओह्ह्ह, और आदि सुपरहीरो भी है. वो एक बार जो देख और सुन लेता है उसे कभी नहीं भूलता. शायद फ्यूचर भी देख सकता है. पता नहीं कैसे इस किरदार को लिखा गया है.
फिल्म की कहानी में कोई खास दम नहीं है. बहुत सी चीजें देखकर आपको इरिटेशन होती है. एक समय आता है जब अवनि और आदि बचाओ-बचाओ खेलने के चक्कर में एक बहुत इम्पोर्टेन्ट इंसान को भूल जाते हैं. रोमांस का एंगल भी इसमें दिखाया गया है. आदि को नताशा उर्फ निकी (शर्ली सेतिया) से प्यार हो जाता है. ना तो दोनों के प्यार में कुछ खास है ना ही उनका रोमांस अच्छा है. दोनों एक दूसरे को निब्बा-निब्बी की तरह क्यूटी और ब्यूटी कहते हैं. साथ ही बीच-बीच में नताशा फिल्म से गायब भी हो जाती है और आप भूल जाते हैं कि वो फिल्म का हिस्सा भी है.
ओवरएक्टिंग ने किया मूड खराब
अभिमन्यु दसानी को मैंने पहली बार फिल्म 'मर्द को दर्द नहीं होता' में देखा था. 90s के समय की याद दिलाती और बढ़िया तरफ से उस समय को ट्रिब्यूट देती इस फिल्म में अभिमन्यु का काम काफी अच्छा था. उनका एक्शन, राधिका मदान के साथ रोमांस और कॉमेडी सभी काफी बढ़िया लगी थी. लेकिन यहां अभिमन्यु डायलॉग ही इतनी ओवर एक्टिंग के साथ बोल रहे हैं कि लगता है लड़का शोर क्यों मचा रहा है. उन्होंने अपनी पहली फिल्म के एक्शन लेसंस को यहां पर इस्तेमाल किया है. इसलिए फिल्म में एक्शन सीन्स फिर भी ठीकठाक हैं. लेकिन आदि के किरदार के अंदर इतनी ताकत कहां से आई और कैसे उसे इतनी तगड़ी लड़ाई करना आता है कि वो 10-10 गुंडों को उड़ा-उड़ाकर मार रहा है, मेरी समझ से पार है. और हर जगह स्लाइड करके आना जरूरी है क्या?
शर्ली सेतिया को अभी और बहुत मेहनत करनी होगी, क्योंकि सिर्फ क्यूट होने से आपका काम अच्छा नहीं होता है. पहले सीन से लेकर आखिरी तक शर्ली का काम कहीं भी याद रखने लायक नहीं था. अगर वह इस फिल्म में नहीं भी होतीं, तो कोई फर्क नहीं पड़ता, उनका रोल इतना बेअसर और गैरजरूरी था. शिल्पा शेट्टी ने इस फिल्म में इतनी ढीली परफॉरमेंस दी है कि उसकी शिकायत करने में भी आलस आ रहा है. अगर अभिमन्यु दसानी ने ओवर एक्टिंग की है तो शिल्पा ने अंडर परफॉर्म किया है. इससे अच्छी एक्टिंग शिल्पा अपने रियलिटी शो में बतौर जज कर लेती हैं.
फिल्म के विलेन के रोल में अभिमन्यु सिंह नजर आए हैं. इससे पहले उन्हें बच्चन पांडे फिल्म में देखा गया था और इस फिल्म से लाख गुना अच्छा काम उन्होंने वहां किया था. क्योंकि इस फिल्म में अभिमन्यु सिंह सिर्फ चीख रहे हैं. उनका काम लोगों को मारना है और जब वो लोगों को नहीं मार रहे होते तो खुद की कनपटी पर बंदूक ताने खुद को मारने के लिए तैयार रहते हैं. फिल्म में समीर सोनी भी हैं, जिन्हें सिर्फ प्लॉट के लिए इस्तेमाल किया गया है और उनका कोई काम नहीं है. एक्टर विक्रम गोखले ने निकम्मा में एक छोटा सा रोल निभाया है और बस उन्हीं का काम ठीक रहा. बाकी फिल्म में इमोशनल ड्रामा और फालतू का भौकाल दिखाने की कोशिश की जा रही है.
डायरेक्शन
सब्बीर खान ने इस फिल्म को बनाया है और मैं सोच रही हूं आखिर उन्होंने इस प्रोजेक्ट को उठाते हुए क्या ही सोचा था. फिल्म में ना एक्टर्स ढंग की एक्टर कर पा रहे हैं और ना ही डायरेक्टर से अच्छा डायरेक्शन किया है. सब्बीर की फिल्म के डिस्क्रिप्शन को देखें तो उसमें लिखा है कि यह एक एक्शन कॉमेडी फिल्म है. कॉमेडी के नाम पर एक अच्छा जोक इसमें नहीं था. घूम-घूमकर फिल्म के किरदार रीजनल ट्रांसपोर्ट ऑफिस पहुंच जाते हैं. इसके अलावा अवनि और आदि अपने घर पर रहते हैं. दुनिया की तमाम चीजें फिल्म में इन्हीं दो जगहों पर हो रही हैं.
फर्स्ट हाफ झेलने के बाद आपका सेकंड हाफ देखने का मन ही नहीं करेगा. सेकंड हाफ पहले वाले से भी बकवास है और इसमें इतना भी कुछ खास नहीं होता जिसके लिए इसे देखा ही जाए. बहुत ही जाहिर सी चीजों को इग्नोर करते किरदारों को देखते हुए आपके मन में सिर्फ यही आता है कि 'मुझे अपने घर जाना है (आलिया भट्ट का राजी वाला मीम इमेजिन कर लो).'
और फिल्म में इतनी क्रिकेट रेफेरेंस किस खुशी में डाले गए हैं? हर कोई छक्का-चौका मारने की बात कर रहा है.
म्यूजिक भी है बेकार
ये फिल्म शुरू से लेकर अंत तक बोरिंग है. ओवर एक्टिंग, मेलोड्रामा, इमोशनल ड्रामा देखकर आपको इरीटेशन ही होती है. एक सीन में तो समीर सोनी ही कहती हैं कि इमोशनल ड्रामा ही करते रहोगे या आगे बढ़ोगे. इस फिल्म में छह गाने हैं और एक भी अच्छा नहीं है. ना कोई रोमांटिक सॉन्ग और पार्टी सॉन्ग. एक निकम्मा सॉन्ग का रीमेक फिल्म के एंड में आता है लेकिन इस फिल्म को देखकर आप इतना पक चुके होते हो कि उसे देखने और सुनने के लिए बिल्कुल नहीं रुकना चाहते.
तो कुल मिलाकर मेरी एक सुबह इस फिल्म पर खराब हो गई है, जो मुझे कभी वापस नहीं मिलेगी. अपनी जिंदगी के इस ढाई घंटे में मैं और भी बहुत कुछ देख और कर सकती थी, लेकिन अफसोस.