आज से एक दशक पहले नॉर्वे में रह रहे एक दंपती के केस ने पूरे देशभर में मीडिया की अटेंशन पाई थी. केस के अनुसार नॉर्वे के चाइल्ड वेलफेयर सर्विस ने उस कपल के बच्चों को अपनी कस्टडी में लेते हुए पैरेंट्स पर आरोप लगाया था कि वे अपने बच्चों की परवरिश ठीक से नहीं कर रहे हैं. बच्चों को जबरन छीने जाने पर एक मां ने ऐसा शोर मचाया कि ग्लोबल लेवल पर यह केस चर्चा में बना रहा. अब उसी केस को फिल्म मिसेज चटर्जी वर्सेज नॉर्वे के रूप में सिल्वर स्क्रीन पर रिलीज किया जा रहा है. यह फिल्म क्रिटिक्स के मानकों पर कितनी खरी उतरती है, जानने के लिए पढ़ें ये रिव्यू...
कहानी
नार्वे कंट्री में पिछले चार साल से अपने पति संग रह रही सागरिका चैटर्जी (रानी मुखर्जी) की जिंदगी में उस वक्त भूचाल आ जाता है, जब उसके दो छोटे बच्चों को वहां की गर्वनमेंट के चाइल्ड वेलफेयर सोसायटी द्वारा उठाकर ले जाया जाता है. वेलफेयर सोसायटी का यह आरोप है कि सागरिका अपने बच्चों की देखभाल करने में असमर्थ हैं, वो मानसिक रूप से स्टेबल नहीं हैं. वहीं दूसरी ओर बच्चों को एक नार्वे की दंपत्ति अडॉप्ट कर लेती है. जहां सागरिका अपने बच्चों की कस्टडी हासिल करने में ऐड़ी-चोटी की जोर लगा देती है. लगभग चार साल तक चलने वाले इस हाई प्रोफाइल केस के दौरान आखिर सागरिका किस तरह के ट्रॉमा से गुजरती है. बच्चों की कस्टडी वापस लेने के लिए क्या पापड़ बेलने पड़ते हैं. सत्य घटना पर आधारित इस केस में सागरिका का पक्ष क्या है. इन सबको डिटेल में जानने के लिए आपको सिनेमाघर की ओर रुख करना होगा.
डायरेक्शन
अशिमा छिब्बर ने डायरेक्शन की कमान संभाली है. आशिमा ने इस फिल्म के जरिए एक ऐसे इमोशन को रिप्रेजेंट करने की जिम्मेदारी उठाई है, जो यूनिवर्सल है. 'मां' के इमोशन और उसकी स्ट्रगल जैसी कहानियों ने हमेशा से दर्शकों के दिलों के तार को छुआ है. लेकिन आशिमा के इस खूबसूरत से सब्जेक्ट में एक्सीक्यूशन के लेवल पर कई कमियां दिखती हैं. इस फिल्म का सबसे कमजोर पक्ष इसका स्क्रीनप्ले रहा है. राइटिंग के लेवल पर कहानी बहुत ही ढीली नजर आती है. ऐसा प्रतीत होता है, मानों सोशल मीडिया पर हाईप्ड हुए केस को बिना प्रॉपर रिसर्च के स्क्रीन पर ला दिया गया हो. खासकर कुछ किरदारों की डिटेलिंग पर काम नहीं होने की वजह से स्क्रीन पर वे कंफ्यूज्ड से लगते हैं. इन कमियों की वजह से एक इमोशनल सब्जेक्ट होते हुए भी फिल्म आपके दिल को छू नहीं पाती है. 2 घंटे 24 मिनट की इस फिल्म के फर्स्ट हाफ में कम समय लेते हुए सागरिका के बैकड्रॉप को स्टैबलिश कर दिया गया है. वहीं सेकेंड हाफ में कुछ हिस्सों में कहानी का स्ट्रेच साफ नजर आता है.
हो सकता है रानी का लाउड बंगाली बोलना या उनके ड्रेसिंग सेंस पर कम्यूनिटी की महिलाओं को आपत्ति भी हो. सेकेंड हाफ में कुछ डायलॉग्स व सीन इमोशनल हैं, जिसे देखकर आपकी आंखों में नमी जरूर आएगी. खासकर एक सीन जहां रानी गुस्से में आकर चावल संग दूध को मिलाकर उसे खाती है, वहां रानी इंपैक्ट जरूर छोड़ती है. यह सीन दिल धड़कने दो के दौरान शेफाली शाह के चॉकलेट खाते हुए सीन की याद दिलाता है. इन दोनों सीन्स में समानता यही है कि बिना कुछ कहे ही, वहां एक महिला की बेबसी, गुस्से, फ्रस्ट्रेशन को सटल तरीके से दिखाया गया है. पति से थप्पड़ मिलने के रिएक्शन में जिस तेजी से रानी का थप्पड़ चलता है, वो सीन भी काफी नैचुरल है. इसके अलावा अपनी महीनेभर की बेटी के लिए रानी का ब्रेस्टफीडिंग करता वो सीन, एक केयॉटिक माहौल में भी बच्चे के प्रति मां के केयर को खूबसूरती से रिप्रेजेंट करता है. आखिर के सीन्स में रानी द्वारा बोले गए मोनोलॉग को ज्यादा अग्रेसिव न रखते हुए उसे एक बेबसी की तरह प्रेजेंट करना काबिल ऐ तारीफ है. ओवरऑल रानी की परफॉर्मेंस इस फिल्म में दमदार रही है लेकिन डायरेक्शन के मामले फिल्म थोड़ी सी उन्नीस साबित होती है.
टेक्निकल एंड म्यूजिक
फिल्म सिल्वर स्क्रीन पर विजुअली खूबसूरत लगती है. सिनेमैटोग्राफर Alvar Kõue (एल्वर कोय) ने नॉर्वे से लेकर कोलकाता को फ्रेम दर फ्रेम स्क्रीन पर दर्शाया है. एडिटिंग टेबल पर एडिटर नम्रता फिल्म को थोड़ा और क्रिस्प बनाने में अपना योगदान दे सकती थीं. खासकर सेकेंड हाफ में कुछ अनवांटेड सीन्स काटे जा सकते थे. फिल्म एक थ्रिल के पेस पर चलती है, जहां बैकग्राउंड म्यूजिक का प्रभाव उतना समझ नहीं आता है. अमित त्रिवेदी ने म्यूजिक में बेशक अपना बेहतरीन कंट्रीब्यूशन दिया है लेकिन गानों को ढंग से प्रमोशन न मिलने की वजह से दर्शकों के बीच उसका इंपैक्ट नहीं दिख पाता है. हो सकता है, आगे चलकर गाने आपकी प्ले लिस्ट में जगह बना लें.
एक्टिंग
फिल्म के टाइटल से ही साबित होता है कि फिल्म का पूरा भार रानी मुखर्जी के कंधे पर है. रानी ने अपने किरदार के साथ पूरी तरह इंसाफ किया है. इमोशन के वैरिएशन को उन्होंने बखूबी पकड़ा है. बंगाली डायलॉग हो या उसका रहन-सहन रानी कहीं से भी अलहदा नहीं दिखती हैं. इनफैक्ट फिल्म के कुछ मिनट बाद ही आप रानी के प्रभाव को कम और मिसेज चैटर्जी की मौजूदगी को ज्यादा महसूस करेंगे. रानी के पति के रूप में अनिर्बन भट्टाचार्य का काम भी अच्छा रहा है. नीना गुप्ता कम समय के लिए ही सही लेकिन अपनी मौजूदगी दर्ज करा जाती हैं. वकील के रूप में जिम सरभ के किरदार ने जिस तरह से प्रभावशाली एंट्री ली थी, क्लाइमैक्स तक आते-आते उनका कंफ्यूजन दिखने लगता है. आखिर तक जिम अपना प्रभाव बरकरार रखने में असफल नजर आते हैं.
क्यों देखें
मां का इमोशन यूनिवर्सल होता है. कहा जाता है मां के आगे सबकुछ पूर्ण विराम.. एक मां अपने बच्चों के लिए किस हद तक जा सकती है, उसकी सच्ची कहानी को दिखाया गया है, इसे एक मौका तो जरूर देना चाहिए. उस पर से रानी की दमदार परफॉर्मेंस सोने पर सुहागा है. रानी के फैंस उनके इस नए अवतार से बिलकुल भी निराश नहीं होंगे. फैमिली फिल्म है, तो पूरे परिवार के साथ इसका लुत्फ उठाया जा सकता है. हां, खासकर अपनी मां या बच्चों को वीकेंड में इस फिल्म को दिखाकर ट्रीट दे सकते हैं.