एक स्पोर्ट्स ड्रामा फिल्म है....बहुत गंभीर मुद्दा है और सालों से चलता आ रहा एक विवाद. तापसी पन्नू स्टारर फिल्म रश्मि रॉकेट की कहानी इन्हीं पहलुओं के इर्द-गिर्द घूमती दिखेगी. कास्ट तो मजबूत है ही....तापसी है, अभिषेक बनर्जी है और मिर्जापुर वाले प्रियांशु पैन्यूली भी. सवाल तो बस ये है कि इस बार फिल्ममेकर ने कोई मजबूत स्टैंड लिया है या नहीं? क्या सिर्फ एक मुद्दे को छू 'न्यूट्रल' गेम खेला गया है? पढ़ते चलिए...इसी पर रोशनी डालते हैं
कहानी
गुजरात के कच्छ में रहती है रश्मि (तापसी पन्नू). लड़की है लेकिन शौक सारे लड़कों वाले. हमारी भाषा में इसे 'टॉम बॉय' कहा जा सकता है. लेकिन किसी गांव में चले जाइए तो इस टॉम बॉय वाली कैटेगरी को अलग ही नजरिए से देखा जाता है. रश्मि के साथ भी यही होता रहता है. टैलेंट भरपूर है, लेकिन अंदाज ऐसा कि तरह-तरह के ताने सुनने को मजबूर होना पड़ता है. रश्मि की मां भानु बेन (सुप्रिया पाठक) कई बार अपनी बेटी को समझाती है, लेकिन साथ कभी नहीं छोड़ती. यही साथ रश्मि को ताकत देता है और वो अपने सफर पर निकल पड़ती है. बचपन से ही भाग-दौड़ करती है तो हर कोई 'रश्मि रॉकेट' बुलाने लगता है.
अब कहानी का दूसरा सेगमेंट यहीं से शुरू होता है. मुलाकात होती है एक आर्मी मेजर से....नाम है गगन (प्रियांशु पैन्यूली). प्रेम कहानी...नोक-झोंक, आप फिल्म देख समझ सकते हैं, मुद्दे की बात ये है कि मेजर गगन ही रश्मि को देश के लिए दौड़ने के लिए प्रेरित करता है. कहानी का अगला पड़ाव- रश्मि का पहले गुजरात और फिर देश के लिए दौड़ने का सिलसिला शुरू हो जाता है. इतना अच्छा भागती है कि शक उठने लगता है कि कही कुछ गड़बड़ तो नहीं. कोई स्पॉयलर नहीं है...ट्रेलर में ही एक खिलाड़ी बोलती है- आज नहीं तो कल सच सामने आना ही था, ये लड़की कम लड़का ज्यादा लगती है.
तो बस आगे की पूरी कहानी इसी सेगमेंट पर चलती है. मुद्दा है जेंडर का, मुद्दा है एक महिला की पहचान का, उसके अस्तित्व का. एक टेस्ट के जरिए घोषित कर दिया जाता है कि रश्मि 'फीमेल' नहीं है. अब कोर्ट में केस लड़ा जाता है. वकील इश्रित (अभिषेक बनर्जी) साबित करना चाहता है कि ये जेंडर टेस्ट किसी को बैन करने का आधार नहीं बन सकता. दूसरी तरफ खड़ी है स्पोर्ट्स फेडरेशन जो कुछ नियमों के दम पर रश्मि के बैन को सही बता रही है. अब किसकी जीत किसकी हार, फिल्म देख आपको पता चल जाएगा.
फिल्म का सबसे मजबूत पहलू
रश्मि रॉकेट का निर्देशन आकर्ष खुराना ने किया है. सीधे तारीफ करते हैं. बहुत बहादुर फिल्ममेकिंग है ये. कोई डर नहीं, स्टैंड लेने में कोई हिचक नहीं...खुद को 'बॉयस' बताने का गम नहीं. स्पष्ट रुख रखा है- जेंडर टेस्ट गलत है. इसके जरिए किसी के करियर को चौपट करना गलत है. जीत-हार आप फिल्म देख समझ जाएंगे, लेकिन आकर्ष अंत तक अपने स्टैंड पर कायम रहे हैं.
कमी कहा रह गई?
स्क्रीनप्ले पर भी बात कर लेते हैं. पहला हाफ थोड़ा सुस्त दिखाई पड़ता है. इसलिए नहीं कि किसी ने कमजोर एक्टिंग की है या कोई तकनीकी खामी है. लेकिन वहीं बॉलीवुड की पुरानी बीमारी..मूड बनते ही एक 'तड़कता-भड़कता' गाना डाल दिया जाता है और फ्लो टूट जाता है. जो रश्मि के ट्रेनिंग सीन्स है...वो भी थोड़े कम इंटेनसिटी वाले रह गए हैं. जैसा मूड 'भाग मिल्खा भाग' या 'सूरमा' बनाती है, इस मामले में रश्मि रॉकेट थोड़ा पीछे है.
एक्टिंग अच्छी या बहुत अच्छी?
अब भरपाई कैसे की गई ये भी बता देते हैं. एक्टिंग डिपार्टमेंट ने गदर मचा दिया है. तापसी के ट्रेनिंग के चर्चे तो पहले से ही चल रहे थे, अब फिल्म देख कह सकते हैं- काम भी बहुत बढ़िया किया है. एक्टिंग अच्छी है...फिजीक को किरदार के मुताबिक ढाल लिया है. कोई कमी नहीं है...एकदम फिट बैठी हैं. मिर्जापुर वाले प्रियांशु काफी 'चार्मिंग' दिखाई पड़े हैं. अब यहां पर बात सिर्फ उनके शारीरिक कद-काठी की नहीं हो रही...उनकी एक्टिंग में भी नजाकत है. बड़ा सिंपल स्टाइल है, लेकिन पसंद आता है.
वकील बने अभिषेक बनर्जी उम्दा...शानदार...गजब, शब्द कम पड़ सकते हैं लेकिन तारीफ लगातार करनी होगी. उनका जलवा सेकेंड हाफ में शुरू होता है और फिल्म के अंत तक जारी रहता है. जज की भूमिका में अनुभवी सुप्रिया पिलगांवकर भी बड़ा सटीक काम कर गई हैं. सुप्रिया पाठक भी अपने गुजराती अंदाज में धूम मचा रही हैं. सहकलाकारों में मंत्रा, वरुण बडोला, कृतिका भारद्वाज और मिलोनी झोंसा का काम भी सही रहा है.
मतलब डायरेक्शन अच्छा है, एक्टिंग दमदार है, एक मजबूत स्टैंड भी है. हिट फिल्म वाली सारी सामग्री मौजूद है. गानों को नजरअंदाज कर दीजिए, देखने लायक फिल्म कही जाएगी.