आदित्य रॉय कपूर पहली बार एक्शन फिल्म करने जा रहे हैं. बॉलीवुड के आशिक अब मार-धाड़ कर अपना स्वैग दिखा रहे हैं. जब अहमद खान ने फिल्म 'राष्ट्र कवच ओम' का ऐलान किया था, साथ में आदित्य रॉय कपूर को भी नए अंदाज में लॉन्च करने का सपना दिखाया था. उनका वो सपना स्क्रीन पर कितना कारगर साबित हुआ है, ये बताने का काम हम करेंगे.
कहानी
दुनिया के ज्यादातर देशों के पास परमाणु शक्ति है. लेकिन उस परमाणु शक्ति से खुद की रक्षा कैसे की जाए, इसका जवाब ज्यादा के पास नहीं. बस उसी फॉर्मूले को बनाने और फिर उसे दुश्मनों से बचाने की पटकथा है फिल्म 'राष्ट्र कवच ओम'. कई साल पहले देव राठौर (जैकी श्रॉफ) ने देश को एक सपना दिखाया है, खुद का सुरक्षा कवच बनाने का. ऐसा कवच जो परमाणु हथियारों से देश की रक्षा करेगा. लेकिन फिर एक दिन देव गायब हो जाता है, जिस टीम के साथ वो उस कवच को बना रहा था, वो भी गायब हो जाती है.
ये मोटी-मोटी कहानी है, शक पैदा हुआ है कि देव राठौर गद्दार है. उसने कहने को देश के लिए सुरक्षा कवच बनाने की बात की, लेकिन अब वो खुद भी फरार है और वो फॉर्मूला भी अपने साथ ले गया है. फिल्म की आगे की कहानी उसी कवच को बचाने के इर्द-गिर्द घूमती है. मिशन में लीड रोल निभा रहे हैं ओम (आदित्य रॉय कपूर). टीम में उनके अलावा रॉ एजेंट मूर्ति (प्रकाश राज), जय राठौर ( आशुतोष राणा), काव्या (संजना संघी) शामिल हैं. इस मिशन में कई नाटकीय मोड़ आते हैं, विश्वास टूटता-जुड़ता रहता है और शक की सुई समय-समय पर सभी पर जाती है. बस सवाल ये है कि देश के कवच को सुरक्षित कैसे किया जाएगा. फिल्म इसी का जवाब अपने अंदाज में 135 मिनट के अंदर दर्शकों को ढूंढकर देती है.
कहां शुरू-कहां खत्म, बचकानी सी है कहानी
इस बार सोचकर गए थे कि फिल्म को और ज्यादा न्यूट्रल अंदाज में देखेंगे. समीक्षाएं तो पहले भी ईमानदारी से कीं, लेकिन इस बार बस ऐसा लगा कि कही हमारे रिव्यू बॉलीवुड मेकर्स की मेहनत पर पानी फेरना शुरू ना करें. लेकिन अफसोस इस बार फिर उनकी मेहनत पर पानी फिर गया है. गलती हमारी नहीं है, मेकर्स की ही है. बात कहानी की करते हैं. मोटी-मोटी थीम तो आपको हमने समझा दी है, देखना तो बस ये था कि उस थीम को मेकर्स जस्टिफाई कैसे करेंगे? इसी पहलू पर फिल्म फेल हो गई है. शुरुआत के आधे घंटे तो आपको पता ही नहीं चलने वाला है कि आखिर हो क्या रहा है? जब धीरे-धीरे चीजें समझ आती हैं, एक ही बाद दिमाग में कौंधती है- इससे ज्यादा बचकाना और क्या हो सकता था.
कुछ उदाहरण आपके सामने रखते हैं. पहला- आदित्य रॉय कपूर एक चेन से पूरे हेलिकॉप्टर को रोक लेते हैं. दूसरा- किसी प्लेन से आदित्य सीधे छलांग लगाते हैं और एक शिप पर आ गिरते हैं. तीसरा- जिस सुरक्षा कवच को ये सब बचाने की कोशिश करते हैं असल में वो एक खिलौना है ( कृष में दिखाया था कि कैसे एक मशीन भविष्य बता देती है, बस उसी टाइप का, लेकिन थोड़े और खराब ग्राफिक के साथ).
कहानी की एक और मजेदार बात बताते हैं. इसका क्लाइमेक्स ऐसा रखा गया है जहां पर आपको कई सारे ट्विस्ट दिखाए जाएंगे. आप कहेंगे कि ये तो अच्छी बात है. बिल्कुल तारीफ तो बनती है, लेकिन सवाल ये है कि जो नाटकीय मोड़ आप दिखा रहे हैं, क्या पूरे फिल्म के दौरान आपने कही भी उसके तार कहानी से जोड़े थे. जवाब है नहीं, मतलब मेकर्स फिर फेल हो गए.
एक्टिंग डिपार्टमेंट पर एक नजर
एक्टिंग पर आते हैं. आदित्य रॉय कपूर ने कुछ नया ट्राई किया है. आशिकी वाले रोल से बाहर निकल एक सोल्जर बन गए हैं. अच्छी बात है, एक्सपेरिमेंट किया है, रिस्क लिया है, तो इस बात के पूरे नंबर दिए जाएंगे. बॉडी भी उन्होंने काफी तगड़ी बनाई, मेकर्स ने उन्हें शर्टलेस दिखाकर इसे प्रूव भी कर दिया ( जरूरत नहीं थी दिखाने लेकिन कोई नहीं बॉलीवुड है). लेकिन इस सब के बीच में वो किरदार कही खो सा गया. ऐसा लगा कि बस आदित्य को पूरी फिल्म में एक्शन करने के लिए बुलाया गया है. हम एक बार भी ना ओम की उलझन समझ पाए और ना ही देश के प्रति उसकी देशभक्ति.
संजना संघी के लिए भी ये कहना पड़ेगा कि उन्होंने एक्शन सही किया है. पूरी फिल्म में एक सीन है जहां पर वे दो मिनट का एक्शन करती हैं. वो हाइलाइट है. बाकी उनको वहीं ट्रीटमेंट दिया गया है, जो अभिनेत्रियों को ज्यादातर बॉलीवुड फिल्में देती दिख जाती हैं. प्रकाश राज पर आते हैं, काबिल अभिनेता हैं, सब जानते हैं, लेकिन उनसे एक बेहतर किरदार का इंतजार थोड़ा लंबा रहने वाला है. मेजर फिल्म में ट्रेलर तो दिखा था, लेकिन उनकी शानदार अदाकारी का लुत्फ 'राष्ट्र कवच ओम' नहीं दे पाएगी. आशुतोष राणा फिर भी अपने किरदार में थोड़े रमे नजर आए हैं. ठहराव है, गहराई है और उनकी नेचुरल एक्टिंग ने स्क्रीन पर उन्हें अच्छा दिखाया है. जैकी श्रॉफ का किरदार इंटरवल के बाद फिल्म में आता है, लिहाजा स्क्रीन स्पेस कम है. अब कम टाइम में कुछ बड़ा दमदार कर गए हैं, नहीं कह सकते हैं. उनका किरदार ही औसत गढ़ा गया था, इसलिए अदकारी भी ज्यादा नहीं उठा सकती थी.
खराब VFX और कमजोर डायरेक्शन की भेंट
फिल्म का डायरेक्शन कपिल वर्मा ने किया है. बतौर निर्देशक ये उनकी पहली फिल्म है, एक्शन सीन्स शूट करने में माहिर माने जाते हैं, ऐसे में उनसे उम्मीदें तो बंधी थीं. लेकिन कहानी क्योंकि किसी भी मोड़ पर दर्शकों को अपने साथ नहीं जोड़ पाती है, ऐसे में तमाम एक्शन सीन्स भी थोपे हुए से नजर आते हैं. इसके ऊपर खराब VFX ने मजे को काफी किरकिरा करने का काम किया है. फिर चाहे वो ब्लॉस्ट वाले सीन हों या फिर फायरिंग के, कोई शानदार टेक्नोलॉजी दिखाने की बात रही हो या फिर कुछ और, इस डिपार्टमेंट में फिल्म काफी कमजोर साबित हुई है.
अगर आपको सलमान खान की फिल्म रेस 3 या कह लीजिए राधे पसंद आई थीं, तो एक बार आप आदित्य की ये फिल्म भी देख सकते हैं. लेकिन अगर आपका टेस्ट थोड़ा भी लॉजिक से प्रेरित रहता है, उचित दूरी बनाना जरूरी है.