भारत के गौरवशाली इतिहास पर कई फिल्में बनाई गई हैं. आशुतोष गोवारिकर ने इस डिपार्टमेंट में अब तक अपना बेहतरीन योगदान दिया है. संजय लीला भंसाली ने भी बाजीराव मस्तानी और पद्मावत के जरिए दर्शकों तक इतिहास की कुछ अनकही गाथाएं पहुंचाई हैं. अब बारी चाणक्य बन दर्शकों के दिल पर राज करने वाले निर्देशक चंद्रप्रकाश द्विवेदी की है. उन्होंने 18 साल की मेहनत के बाद सम्राट पृथ्वीराज बनाई है. फिल्म में अक्षय कुमार को कास्ट किया गया है, मानुषी छिल्लर का भी पदार्पण हो रहा है. ट्रेलर देखने के बाद फिल्म को लेकर ज्यादा उम्मीद नहीं थी.....हम गलत थे या सही...ये जानने का वक्त आ गया है.
किन घटनाओं पर आधारित फिल्म?
सम्राट पृथ्वीराज चौहान कोई कहानी नहीं हैं. वे तो भारत के इतिहास के एक ऐसे शेर हैं जिन्होंने अपनी मातृभूमि की रक्षा के लिए, महिलाओं के सम्मान के लिए और धर्म को सुरक्षित रखने के लिए अपने प्राणों की आहुति लगा दी थी. ऐसे में फिल्म सम्राट पृथ्वीराज में सिर्फ इतिहास की कुछ घटनाओं को रेखांकित किया गया है. फिल्म की पृष्ठभूमि में सुल्तान मोहम्मद गोरी (मानव विज) और सम्राट पृथ्वीराज चौहान (अक्षय कुमार) का युद्ध है. पृथ्वीराज को धोखा दे सुल्तान का साथ देने वाले जय चंद (आशुतोष राणा) की साजिशें हैं और अपने प्यार के लिए पिता जय चंद को भी त्यागने वाली एक वीरांगना संयोगिता (मानुषी छिल्लर) की वीरगाथा है. इतिहास की इन तमाम घटनाओं को चंद्रप्रकाश द्विवेदी ने किस अंदाज में दर्शकों के बीच परोसा है, यहीं हमारी समीक्षा का आधार है.
शुरुआत-अंत सही...बीच में ट्रैक से उतरी फिल्म
अंग्रेसी में एक कहावत कही जाती है- First Impression is the Last Impression. अब सम्राट पृथ्वीराज देखने के बाद इस कहावत को थोड़ा सा बदलना पड़ेगा क्योंकि इस फिल्म का पहला इंप्रेशन काफी अच्छा है. पहले इंप्रेशन से मतलब फिल्म के शुरुआती सीन्स हैं जिसके आधार पर आगे की पृष्ठभूमि तैयार की गई है. लेकिन उसके बाद फिल्म जिस अंदाज में आगे बढ़ती है, आपका कनेक्शन कई बार टूटता है, कुर्सी पर बैठे रहना मुश्किल लगता है और कुछ गानों में दिखाए गए सीन्स वास्तविक्ता से ज्यादा बनावटी दिखाई पड़ते हैं. इसका सबसे बड़ा उदाहरण पृथ्वीराज और संयोगिता की शादी के बाद दिखाए गए गाने 'मखमली' को देखने के बाद लगता है. उस गाने में बड़ा सा रेगिस्तान है...दो ऊंटों को अपनी-अपनी जगह पर बैठा दिया गया है और बीच में अक्षय और मानुषी की केमिस्ट्री चल रही है. यहां पृथ्वीराज और संयोगिता का नाम इसलिए नहीं लिया क्योंकि इस एक सीन में वे दोनों किरदार से काफी दूर जाते दिखाई पड़ते हैं.
खैर उस गाने के बाद फिल्म आगे बढ़ती है और ट्रैक महिला अधिकारों की ओर शिफ्ट हो जाता है. दरबार में संयोगिता को उचित स्थान दिलाने के लिए पृथ्वीराज धर्म का सहारा लेते हैं, समान अधिकारों की पैरवी करते हैं और समाज को एक संदेश देने का प्रयास. इस सीन को सही तरीके से फिल्माया गया है और इसी सीन में मानुषी छिल्लर कुछ हद तक निखरकर सामने आई हैं. उसके बाद बीच-बीच में फिल्म फिर थोड़े गोते लगाती है और आप ऊबने लगते हैं. जब आपका मन कहने लगता है कि फिल्म कब खत्म होगी....तभी क्लाइमेक्स का आगाज होता है, 300 करोड़ बजट का असर दिखता है और कुछ शानदार दृश्य स्क्रीन पर परोस दिए जाते हैं. ऐसे में पहले इंप्रेशन के बाद ये आखिरी इंप्रेशन यानी की आखिर के कुछ सीन्स आपके मन में कैद रह जाते हैं.
अक्षय औसत, मानुषी ठीक-ठाक, बाकी का कैसा काम?
सम्राट पृथ्वीराज का ट्रेलर देखने के बाद हम नहीं सोशल मीडिया की दुनिया ने भी ये तय कर लिया था कि अक्षय कुमार इस किरदार में फिट नहीं बैठे हैं. कहते हैं कि किताब को उसके कवर से जज नहीं करना चाहिए. लेकिन यहां हम लोगों ने ऐसा किया और सही किया क्योंकि अक्षय कुमार का काम खराब नहीं है, उनकी मेहनत में भी कोई कमी नहीं है. लेकिन ये किरदार शायद उनके लिए नहीं था. कुछ सीन्स में जरूर उनकी डायलॉग डिलीवरी ने प्रभावित किया, क्लाइमेक्स में भी उनका काम दमदार रहा, लेकिन जब पूरी फिल्म देखने के बाद उनकी समीक्षा करते हैं, तो वे औसत ही कहे जा सकते हैं. मानुषी छिल्लर जो अपना डेब्यू कर रही हैं, उनके लिए ये एक बड़ा मौका था जो उन्होंने गंवाया तो नहीं, लेकिन सही तरीके से भुनाया भी नहीं. कुछ सीन्स में ही वे दर्शकों को अपनी अदाकारी से खुश कर पाएंगी, बाकी अभी उनका लंबा करियर है, आगे कैसे किरदार निभाती हैं, सभी की नजर रहेगी.
मोहम्मद गोरी के रोल में मानव विज का काम बेहतरीन रहा है. वे फिल्म के एकलौते ऐसे कलाकार लगे जिन पर उनका किरदार 100 प्रतिशत फिट बैठा. बड़ी बात ये है कि उन्हें कोई ज्यादा डायलॉग नहीं दिए गए, लेकिन उनकी स्क्रीन प्रेजेंस कमाल की थी. इसी तरह जयचंद बने आशुतोष राणा भी निराश नहीं करते हैं. काका कन्ह के किरदार में संजय दत्त का काम औसत रह गया है. इतिहास के पन्नों में जरूर उनकी एक अहम भूमिका है, लेकिन इस फिल्म मे वो दर्शकों तक सही तरीके से नहीं पहुंचती. लंबे समय बाद बड़े पर्दे पर वापसी करने वाले सोनू सूद को पृथ्वी चंद भट्ट का रोल दिया गया था. वे ठीक-ठाक काम कर गए हैं, लंबे समय तक याद रखे जाएंगे, ऐसा प्रतीत नहीं होता.
18 साल की मेहनत, लेकिन चूक कहां पर हुई?
निर्देशक चंद्रप्रकाश द्विवेदी की मेहनत की तारीफ करनी बनती है. उन्होंने इतिहास को समझा भी है और उसी आधार पर अपनी फिल्म को बनाया है. चूक सिर्फ ये हुई है कि वे अपनी इस पेशकश के जरिए दर्शकों को झकझोर नहीं पाए हैं. ऐसी फिल्में देखने के बाद रोंगटे खड़े होना सामान्य रहता है, देशभक्ति की भावना भी बढ़ जाती है. लेकिन यहां ऐसा नहीं हुआ है. वो असर सिर्फ कुछ सीन्स तक सीमित दिखा. फिल्म के टाइटल ट्रैक हरि हर को भी उन्हीं प्रभावशाली सीन्स में गिना जा सकता है.
ऐसे में अक्षय कुमार के स्टारडम के दम पर ये फिल्म जरूर बॉक्स ऑफिस कुछ कमाल करती दिख सकती है...लेकिन उम्मीदों के इस बाजार में सम्राट पृथ्वीराज सिर्फ एक औसत फिल्म है जिसके दम पर बॉलीवुड फिर अपने पुराने रंग में आने के सपने नहीं देख सकता है.