फिल्म रिव्यू: शाहिद
एक्टर: राज कुमार, जीशान अय्यूब, प्रभलीन संधू, बलजीत कौर, केके मेनन (गेस्ट अपीयरेंस), तिग्मांशु धूलिया (गेस्ट अपीयरेंस)
डायरेक्टर: हंसल मेहता
ड्यूरेशन: 123 मिनट
पांच में से 4.5 स्टार
एक वकील है, जो अदालत में जिरह कर रहा है. आतंकवाद के एक मामले में बाइज्जत रिहा होकर आया है वो और नए सिरे से जिंदगी की सिम्तें संवारने के क्रम में वकालत कर रहा है. अदालत में शोर से संचालित तथाकथित देशभक्त वकील उनके बीते हुए कल का जिक्र करती हैं. जेल में रहने का जिक्र करती हैं. वकील भड़क जाता है. कहता है, तो फिर आपके हिसाब से जो वहां रहा गुनहगार है. शिवा जी, भगत सिंह...सब गुनहगार थे. उसका गुस्सा जो बेहद कम मौकों पर इतना निर्दोष और जायज होता है, जेहन को सुलगा देता है. फिर जब वो बाहर आता है, तो कुछ तथाकथित राष्ट्रभक्त मां की गाली देते हुए उसके चेहरे पर कालिख मल देते हैं. उन्हें गुस्सा है कि उसने शिवाजी से तुलना कैसे की. वह भी मुंबई जैसे शहर में. जिसके परचम तले पनपते हुक्मरान अपने उदार राजनैतिक विचारों के लिए चर्चित हैं.
मगर ठहरिए, ये कालिख मेरे आपके चेहरे पर स्याह क्यों हो रही है. ये फिल्म हममें क्यों खौफ भर रही है. तलाशिए जवाब, क्योंकि फिल्म शाहिद तेज आवाज में बात तक नहीं करती. बस अपना बयान पूरी तफसील के साथ पढ़ती है और हम अपने जमीर, जमीन और जिंदगी के तंग मायनों में उसके सामने गुनहगार से ठहरने लगते हैं.
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हमें याद आने लगती हैं वो सारी तजवीजें, जिनके बिना पर पुलिस द्वारा पकड़े गए हर शख्स को हम मुजरिम मान लेते हैं. हम ये याद रखने की जहमत नहीं उठाते कि महीनों-सालों की यातना के बाद जब वे कोर्ट में बाइज्जत बरी किए जाते हैं, तो बस कहने को यह होता है कि उनकी इज्जत बहाल हो गई. जबकि उसके छितरे अतीत की सूखी साखों पर कतरा-कतरा फड़फड़ा रहे होते हैं.
फिल्म शाहिद जरूर देखिए. अपनी सोच की धूल साफ करने में मदद हासिल होगी. एक्टर राजकुमार ने वो क्या कहते हैं, अपना जिगर निकाल कर रख दिया वकील और मानवाधिकार कार्यकर्ता शाहिद सिद्दीकी के रोल में. मगर तारीफ की वजह यहीं नहीं ठहरती. फिल्म की कहानी. इसकी बुनावट, इसके संवाद, एक-एक एक्टर का अपने किरदार को जज्ब करने का तरीका, हमें बार-बार पहलू बदलने और आखिर में गहरी सांस के साथ इस पूरी दास्तान को अपने भीतर दफ्न करने और उस पर नई उदार सोच के फूल खिलाने के यकीन से भर देता है.
ये कहानी है एक लड़के की, जो जब दंगों में अपनों को झुलसता देखता है, तो एक रवानी में आतंकवादी बनने की ट्रेनिंग के लिए पाकिस्तान चला जाता है. मगर वहां उसे समझ आया है कि ये उसका रास्ता नहीं. फिर वापसी के बाद पुलिस के हत्थे चढ़ता है और वहां उसे खुद को जेहादी कहने वाले घेरने लगते हैं. मगर हर जगह कुछ हरियाली है, वाली तर्ज पर उसे समझाने वाले भी मौजूद हैं. तब उसे समझ आता है कि अगर सिस्टम से शिकायत है, तो इसके भीतर रहकर काम करना होगा. वो वापस आता है, बरी होकर और नए सिरे से सब कुछ शुरू करता है. इस सफर में उसका भाई आरिफ बरगद की तरह छांह और सहारा मुहैया कराता है.
फिर शाहिद एक नए जेहाद में शामिल होता है. बेगुनाहों को इंसाफ दिलाने के लिए. इसी दरमियान मुहब्बत भी होती है और निकाह भी. यहां भी एक बच्चेदार तलाकशुदा का साथ निजी जिंदगी के भी प्रगतिशील मायने साफ करता है. मगर लोगों को, कुछ लोगों को, जो इतना चिल्लाकर बोलते हैं, मानो पूरी नस्ल की आवाज हों, ये पसंद नहीं. ये पसंद नहीं कि एक मुसलमान वकील ये भी कहे कि आतंकवाद सबके लिए हराम है और साथ में बेगुनाह मुसलमानों को पुलिस के शिकंजे से छुड़ाने के लिए अदालत में दमदार दलीलें भी दे. और इसी क्रम में एक त्रासदी तारी होती है अंत में. मगर उसका और उसके साथ इस सफर में फिल्म देखने के दौरान हो चले हमारा और आपका मंसूबा कमजोर नहीं पड़ता. यहीं फिल्म अपनी महानता को प्राप्त होती है. शुक्रिया डायरेक्टर हंसल मेहता, इस फिल्म को बनाने के लिए, इतनी हिम्मत के साथ बनाने के लिए.
राजकुमार की मां के रोल में बलजिंदर कौर, बीवी मरियम के रोल में प्रभलीन संधु और भाई आरिफ के रोल में जीशान अय्यूब ने उस बेचारगी भरे हौसले को नए मायने दिए हैं, जो शाहिद की जिंदगी का अंदरूनी कोना अपने अपने तईं रौशन करते हैं. फिल्म की लोकेशन, इसके चुस्त संवाद और कसा हुआ स्क्रीनप्ले हर वक्त एक सुस्त रफ्तार बनाए रखते हैं. फिल्म ठहरती भी है, तो भी कहानी को आगे बढ़ाती हुई सी और ये भी बस कुछ पलों के लिए.
शाहिद जरूर देखिए. आखिर अच्छी फिल्में नहीं देखेंगे, तो हम आप भी तो गुनहगार होंगे.