'कर्म से डकैत.. धर्म से आजाद' ये लाइन्स आपको बॉलीवुड की उस काल्पनिक दुनिया में लेकर जाता है, जो आज के मशीनों से भरे वर्ल्ड में कहीं गुम सी हो गई है. ये है बॉलीवुड के मसाला फिल्मों की दुनिया.. जहां एक हीरो बीस से पच्चीस लोगों को मारता है.. विलेन गर्लफ्रेंड को अगवा कर लेता है.. डकैती व चोरी को जस्टिफाई किया जाता है.. इसी को तो एंटरटेनमेंट कहते हैं. रणबीर कपूर की शमशेरा आपको इस कन्टेम्प्ररी वक्त से कहीं दूर डाकूओं की दुनिया में लेकर जाता है. अब आप वहां कितने सहज या असहज होते हैं, आईए जानते हैं इस रिव्यू में...
कहानी
फिल्म का बैकड्रॉप इंडिया की आजादी से पहले के दौर पर स्थापित किया गया है. उस समय मुगलों के शासन के बाद खमेरा ट्राईब पर कई तरह की दिक्कतें आनी शुरू हो गई. अंग्रेजों के आने के बाद खमेरा जाती की दिक्कतें और भी शुरू हो गई थीं. इस जाती के सरदार शमशेरा(रणबीर कपूर) अपनी कम्यूनिटी को बचाने के लिए अंग्रेजों से सौदा करता है लेकिन यहां शमशेरा को धोखा मिलता है. उनकी पूरी कम्यूनिटी को काजा के किले में कैद कर उनपर अत्याचार किया जाता है. इनमें उनका साथ देता है शुद्ध सिंह(संजय दत्त). ऊंची जाती का होने की वजह से शुद्ध सिंह ने खमेराओं पर जुल्म किए हैं, जानवरों की तरह बर्ताव करता था. कैसे खमेरा जाती अपनी आजादी की लड़ाई लड़ती है और इस लड़ाई में शमशेरा का क्या योगदान होता है. इसकी कहानी जानने के लिए आपको थिएटर जाना होगा.
डायेक्शन
करण मल्होत्रा की इस फिल्म को देखने के दौरान आपके मन में कई सवाल आते हैं. पहला सवाल क्या डाकूओं की कहानी आज के लोगों को डायजस्ट होगी. करण की फिल्म बेहद भव्य है, इसकी सिनेमैटोग्राफी आपको प्रभावित करेगी और बैकग्राउंड म्यूजिक तो इसमें सोने पर सुहागा जैसी है. लेकिन, कहानी? कहानी के पक्ष में फिल्म बहुत ही कमजोर रही. वही घिसी-पिटी स्टोरी. इमोशनल सीन्स पर आप खुद को कनेक्ट नहीं कर पाते हैं, मसलन शमशेरा की दर्दनाक मौत आपको बिलकुल भी नहीं रूलाती है, कैदी के रूप में जुल्म झेल रहे खमेरा जाती का दर्द भी स्क्रीन पर ऊभर कर नहीं आता है. बल्कि कुछ सीन्स आपको ऊबाऊ लगते हैं, जैसे सोना(वाणी) का बच्चे को जन्म देना, वहां भी कोई इमोशन पैदा नहीं कर पाते हैं. इसके अलावा कौवों का अटैक! लाइक सीरियलसी? सिनेमैटिक लिबर्टी पर अटैक जरूर कह सकते हैं. अगर फिल्म में आप किसी किरदार से जुड़ते नहीं हैं, तो वहीं फिल्म पीछे छूटती चली जाती है. फिल्म की शुरूआत से अंत तक कुछेक ऐसे सीन्स हैं, जहां आपको मजा आता है लेकिन आप ये समझ नहीं पाते हैं कि पहला हाफ बेटर था या सेकेंड हाफ. रणबीर कपूर, संजय दत्त का पावरपैक्ड परफॉर्मेंस भी इस फिल्म को बचा नहीं पाता है. क्लाइमैक्स सीन दर्शकों के लिए एक ट्रीट की तरह है. वहीं चलती ट्रेन में बली(रणबीर) का मुकूट चुराने का अंदाज हीरोईक लगता है.
टेक्निकल ऐंड म्यूजिक
फिल्म का तकनीकी पक्ष बहुत मजबूत है. जिस तरह से शमशेरा को विजुअली फिल्माया गया है, उसे आप बड़े स्क्रीन पर ही देखेंगे, तो इसकी अहमीयत समझ आएगी. सिनेमैटोग्राफर अनय गोस्वामी ने अपना काम उम्मीद से बेहतर किया है. बैकग्राउंड म्यूजिक इस फिल्म की जान है. हर सीन को मजबूती देता है. फिल्म हद से ज्यादा लंबी है, पौने तीन घंटे की फिल्म को एडिट टेबल पर काटकर इसे क्रिस्प किया जा सकता था. गानों की बात करें, तो एक दो सॉन्ग छोड़, आपको बाकी गानें चिकनी चमेली जैसा ही फील देंगे. एक चीज रणबीर की मां बनीं त्रिधा चौधरी स्क्रीन पर कई बार बहू सोना से ज्यादा यंग लगती हैं. सोना का मेकअप भी उस दौर का नहीं महसूस होता है. ये कुछ कमियां जो फिल्म के दौरान आपको खलती हैं.
एक्टिंग
चार साल बाद स्क्रीन पर आ रहे रणबीर कपूर को एक्शन करता देख उनके फैंस सरप्राइज होंगे. रणबीर ने इस किरदार में खुद को झौंक दिया है. हां, कुछ जगहों पर उनके डायलॉग्स में पकड़ थोड़ी ढीली नजर आती है, जिसे नजरअंदाज किया जा सकता है. इस फिल्म की जान हैं, संजय दत्त. शुद्धी सिंह के किरदार में बॉलीवुड को एक और विलेन मिल गया है. करण की पिछली फिल्म अग्निपथ में कांचा चीना के बाद संजय शुद्धी के किरदार में एक भयावह फनी विलेन को साकार करते नजर आते हैं. वाणी कपूर इस फिल्म के लिए मिसफिट लगी हैं. फिल्म में उनका प्रेजेंस ने कोई मैजिक नहीं किया है. रोनित रॉय, सौरभ शुक्ला की मौजूदगी फिल्म का मजबूत पक्ष है.
क्यों देखें
एक लंबे समय बाद बॉलीवुड में मसाला फिल्म आई है. आपको देखनी चाहिए. फिल्म वन टाइम वॉच है. रणबीर कपूर के फैंस के लिए ट्रीट है क्योंकि वे अपने फेवरेट एक्टर को चार साल बाद स्क्रीन पर देखेंगे. रणबीर की परफॉर्मेंस पर आप सीटी बजा सकते हैं. संजय दत्त और रणबीर की जुगलबंदी आपको एंटरटेन करेगी. इस फिल्म को एक मौका देना तो बनता है.