करियर ढलान पर चल रहा हो....फिल्में लगातार फ्लॉप हो रही हों....सारे एक्सपेरिमेंट फेल साबित हो रहे हों....ऐसे में कुछ नहीं करना, बॉलीवुड के पास इसका फुल प्रूफ प्लान है....'वॉर फिल्म'. अच्छी कहानी के साथ अगर दमदार कलाकार मिल गए तो ऐसी फिल्मों को धुंआधार कमाई करने से कोई नहीं रोक सकता. कुछ ऐसा ही सपना देखा है सिद्धार्थ मल्होत्रा ने जो हिट फिल्म की दरकार में हमारे बीच शेरशाह लेकर आए हैं. शहीद विक्रम बत्रा की कहानी है और करगिल की शौर्यगाथा बतानी है. कितना सफल हुए, हम बताते हैं.
कहानी
शेरशाह सत्य घटनाओं से प्रेरित है और करगिल युद्ध में कैप्टन विक्रम बत्रा के पराक्रम को दर्शाती है. मोटी-मोटी कहानी तो सभी को पता है. हर कोई जानता है कि विक्रम बत्रा ने करगिल युद्ध में निर्णायक भूमिका निभाई थी. फिल्म ने बस इतना कर दिया है कि हमे विक्रम बत्रा की पूरी कुंडली बता दी है. उनके जन्म से लेकर IMA में ट्रेनिंग तक, उनके सपनों से लेकर उन्हें पूरा करने की दिलेरी तक, सबकुछ बताया गया है. कैसे बचपन में आर्मी में जाने का सपना देखा और फिर खुद को 13 जम्मू कश्मीर राइफल्स के साथ जोड़ा. डिंपल चीमा संग विक्रम की प्रेम कहानी की भी झलक मिलती है जो परवान तो चढ़ी लेकिन कभी पूरी नहीं हो पाई. तो बस सवाल ये है कि क्या विक्रम बत्रा के जीवन को डायरेक्टर विष्णु वर्धन बेहतरीन अंदाज में कहानी में पिरो पाए हैं या नहीं?
शेरशाह की सबसे बड़ी कमजोरी
बॉलीवुड की कमजोरी कह लीजिए या एक ऐसी आदत जिससे अब तक पार नहीं पाया जा रहा है. हर फिल्म में गाना डालना जरूरी नहीं होता है. हर फिल्म में जरूरत से ज्यादा किसी की लव स्टोरी पर फोकस करना भी जरूरी नहीं है. शेरशाह एक लाजवाब फिल्म साबित हो सकती थी अगर गानों के जरिए उसकी गति पर लगातार ब्रेक नहीं लगाया जाता. ये फिल्म एक गजब की वॉर मूवी साबित होती अगर यूं फाइट सीन के बीच में प्यार की कहानी को नहीं पिरोया जाता. लेकिन क्योंकि ये सब गलती हुईं इसलिए शेरशाह बेहतरीन की जगह औसत फिल्म बनकर रह गई.
सिद्धार्थ मल्होत्रा के लिए गेम चेंजर
अब फिल्म की वो मजबूत कड़ी जिसकी वजह से सिद्धार्थ मल्होत्रा के गर्दिश में चल रहे सितारे बुलंदियों को छू सकते हैं. सिद्धार्थ ने शेरशाह से जैसी उम्मीद की थी, उन्हें रिटर्न में वो मिल गया है, 'एक बेहतरीन आगाज'. पूरी फिल्म विक्रम बत्रा पर बनी है और इस रोल में सिद्धार्थ मल्होत्रा ने चार चांद लगा दिए हैं. ऐसी अदाकारी कि आप इसे एक्टिंग नहीं असल जिंदगी कहेंगे. ऐसा जुनून कि आप इसे कलाकार नहीं असल फौजी कहेंगे. ये सब सिद्धार्थ ने कर दिखाया है. कोई बहुत देशभक्ति वाले डायलॉग नहीं मिले हैं, लेकिन कम में भी कमाल कर गए हैं.
विक्रम की लव लाइफ डिंपल के रोल में कियारा भी अच्छी लगी हैं. लेकिन क्योंकि फिल्म में विक्रम की प्रेम कहानी ही थोपी हुई सी लगी, ऐसे में कियारा का रोल भी ज्यादा प्रभाव नहीं छोड़ सका. फिल्म में आर्मी के जितने भी जवान और ऑफिसर दिखाए गए हैं, फिर चाहे वो शिव पंडित हों या फिर शतफ फिगार, सभी ने करगिल युद्ध को जीवित किया है और अपने किरदार के साथ पूरा न्याय. विक्रम के परिवार के रोल में पवन चोपड़ा, अंकिता गोराया और विजय मीनू का काम भी बढ़िया कहा जाएगा.
औसत रह गया डायरेक्शन
शेरशाह की कहानी और डायरेक्शन वाला पहलू भी समझना जरूरी है क्योंकि इसी वजह से ये फिल्म आला दर्जे की बनने से चूक गई. डायरेक्टर विष्णु वर्धन ने फिल्म को वास्तविकता के काफी करीब रखा है, ये तारीफ करने वाली बात है. लेकिन अगर रियलिटी की वजह से इंटेनसिटी ही कम हो जाए, तो ये गड़बड़ है. शेरशाह के साथ ये हुआ है. करगिल युद्ध के जितने भी सीन दिखाए गए हैं, सबकुछ काफी फ्लैट सा लगता है. एक युद्ध वाली फीलिंग मिसिंग रही है. जैसे ही थोड़ा मूड बनता है तभी या तो गाना आ जाता है या फिर कोई फ्लैशबैक फ्लो को तोड़ देता है. फिल्म के आखिरी कुछ पल जरूर आपको भावुक कर सकते हैं क्योंकि वहां पर कोई मेलो ड्रामा नहीं है, सिर्फ भावनाएं हैं जो आपके दिल को छू जाएंगी.
अब अगर आप ये फिल्म सिद्धार्थ मल्होत्रा के शुभचिंतक के रूप में देखेंगे तो बोल उठेंगे- बंदे का करियर चमकने वाला है. लेकिन अगर सिर्फ फिल्म की तरह देखेंगे तो कहेंगे- मजा तो आया लेकिन काफी कुछ अधूरा रह गया.