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Taali Review: नहीं गूंजी 'ताली', फीके पड़े सुष्मिता के तेवर, दमदार कहानी की डायलॉग्स ने बचाई लाज

गौरी की लड़ाई एक प्रेरणा देने वाली कहानी है. ये कहानी ही इसलिए बन पाई है, क्योंकि ये आसान नहीं है. इससे एक इतिहास जुड़ा है. सुप्रीम कोर्ट में थर्ड जेंडर को मान्यता दिलवाने वाली गौरी, महाराष्ट्र इलेक्शन कमेटी की ब्रांड एम्बैसेडर बनने वाली पहली ट्रांसजेंडर गौरी की आपबीती बयां करना असल में मुश्किल काम है. ऐसे में डायरेक्टर कितना सफल हो पाए हैं, पढ़ें हमारा रिव्यू और जानें.

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ताली रिव्यू: सुष्मिता सेन
ताली रिव्यू: सुष्मिता सेन
फिल्म:ड्रामा
2.5/5
  • कलाकार : सुष्मिता सेन, निशा राठौड़, अंकुर भाटिया
  • निर्देशक :रवि जाधव

बड़े होकर क्या बनोगे? 'मुझे मां बनना है. गोल गोल चपाती बनानी है. सबका ख्याल रखना है.' इस तरह के सवाल पर जब एक पुलिस वाले का बेटा ऐसा जवाब दे तो बच्चों के बीच हंसी का पात्र बनना तो तय है. आप भी यही सोच रहे होंगे. लेकिन जवाब अगर एक ऐसा बच्चा दे, जो अपनी मूल पहचान से जूझ रहा है, तो आप क्या कहेंगे? एक ऐसा मानव शरीर जिसने जन्म तो लड़के के रूप में लिया है, लेकिन उसकी अंतर-आत्मा उसे चीख-चीख कर लड़की होने का एहसास दिला रही है. ऐसी ही एक कहानी को उजागर करती है, सुष्मिता सेन की हालिया रिलीज वेब सीरीज 'ताली'. तो चलिए आपको बताते हैं, कैसी है ये सीरीज, करते हैं रिव्यू.

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ताली का ओवरव्यू

सबसे पहले बात करते हैं 'ताली' सीरीज की कहानी की. ताली एक बायोग्राफिकल ड्रामा है, जो कि ट्रांसजेंडर एक्टीविस्ट श्रीगौरी सावंत की जिंदगी पर आधारित है. सीरीज दावा करती है कि इसमें श्रीगौरी के जीवन के हर जरूरी पहलुओं को दिखाया गया है. सीरीज में उनके ट्रांस का पता होने से लेकर बनने तक की पूरी स्टोरी को दिखाया गया है. गौरी यानी गणेश 13-14 साल की उम्र में घर से भाग गया था, क्योंकि वो अपने पिता के लिए ताउम्र शर्मिंदगी का कारण नहीं बनना चाहता था. यहीं से गणेश के गौरी बनने का सफर शुरू होता है. गौरी ने जिंदगी की हर मुश्किल का सामना किया, हमेशा हालातों से लड़ीं लेकिन कभी ना तो भीख मांगी, ना ही कभी सेक्स वर्कर बनने की राह चुनी. गौरी ने खुद एक इंटरव्यू में बताया था, इसकी वजह उनका सुंदर ना होना है शायद. ना तो वो गोरी हैं, ना ही इतनी सुंदर की किसी को लुभा सकें, इसलिए शायद वो बच भी पाईं. 

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और ताली सीरीज यहीं पर पहली बार चूक कर जाती है. मेकर्स गौरी की इस मेन बात पर ही रिसर्च करना शायद भूल गए. क्योंकि सीरीज में असली गणेश के लुक से इतर दिखने वालीं एक्ट्रेस कृतिका देओ हैं. हालांकि कृतिका ने अपने रोल से पूरा जस्टिफाई किया है, लेकिन आप उसे गणेश से रिलेट करन पाने में असहज महसूस करेंगे. जैसा कि बॉलीवुडिया सिनेमा में अक्सर गोरी रंगत को लेकर एक ऑब्सेशन देखा गया है, वो यहां भी दिखाई पड़ता है. एक व्यूअर के तौर पर ये बहुत अखरता है. क्योंकि गणेश यानी गौरी का बचपन ऐसी छरहरी काया-गोरी रंगत वाला नहीं था, जैसा कि पोट्रे कर दिया गया है. ऐसे में आपकी सोच रिएलिटी से परे हो जाती है. 

श्रीगौरी सावंत के साथ सुष्मिता सेन

किस रफ्तार से बजी ताली

पहला एपिसोड शुरू होता है गौरी के बचपन गणेश से...जहां वो मां के आंचल में खुद को सुरक्षित महसूस करता है. उनके जैसे बनने के सपने देखता है, लेकिन पिता की धिक्कारती नजरें उससे बर्दाश्त नहीं होती है. हालांकि बड़ी बहन का साथ मिलता है. पर अचानक हुई मां की मौत के बाद अकेला पड़ा गणेश उस घर को छोड़कर भाग जाता है, और शुरू करता है अपना सफर- ट्रांसजेंडर बनने का. सीरीज में गौरी की तीन लड़ाई को दिखाने की पुरजोर कोशिश की गई है. पहली लड़ाई- आईडेंटिटी की, दूसरी लड़ाई- सर्वाइवल की, तीसरी लड़ाई- इक्वालिटी की. लेकिन इक्वालिटी की लड़ाई दिखाने के चक्कर में गणेश के गौरी बनने की कहानी कहीं अपना दम तोड़ती नजर आती है. 

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गणेश का अपनी जिंदगी को अपने तरीके से जीने की सोच और ट्रांस कम्यूनिटी की तरफ झुकाव को बखूबी दिखाया गया है. लेकिन परिवार का साथ ना मिल पाने का अफसोस और वो शर्मिंदगी, जो समाज के ना अपनाने से मिलता है, उसे ऑडियन्स को फील ना करा पाने की चूक जरूर हो गई है. आर्या में दमदार एक्टिंग की छाप छोड़ चुकीं सुष्मिता सेन भी कहीं कहीं ढीली पड़ती नजर आई हैं. मसलन, सेक्स चेंज ऑपरेशन का सीन हो या किन्नर की जिंदगी से इन्फ्लुएंस होने का, सुष्मिता हल्की सी लगीं. खासकर उनके आदमी बने रहने का लुक, बहुत ओवरहाइप्ड लगता है. लेकिन वहीं कई डायलॉग सीरीज के ऐसे हैं, जिन्हें जब वो बोलती हैं तो लगता है बस यहीं ये कहानी रुक जाए. जैसे इसी का तो इंतजार था.  

सब्जेक्ट से हुआ इन्जस्टिस

गौरी की लड़ाई एक प्रेरणा देने वाली कहानी है. ये कहानी ही इसलिए बन पाई है, क्योंकि ये आसान नहीं है. इससे एक इतिहास जुड़ा है. सुप्रीम कोर्ट में थर्ड जेंडर को मान्यता दिलवाने वाली गौरी, महाराष्ट्र इलेक्शन कमेटी की ब्रांड एम्बैसेडर बनने वाली पहली ट्रांसजेंडर गौरी की आपबीती बयां करना असल में मुश्किल काम है. ये हम और आप जैसे लोगों के लिए समझना उतना ही मुश्किल है, जितना कि एक बच्चे को पढ़ना लिखना सिखाना. क्योंकि सब कुछ शुरू से जो शुरू करना होता है. ऐसे में ताली के डायरेक्टर रवि जाधव ने एक बड़ा बीड़ा उठाते हुए इस सीरीज का निर्माण किया. उनके कंधों पर इस पूरी कम्यूनिटी का भार था, जिसे वो पूरी तरह से सही मुकाम तक पहुंचा नहीं पाए. सीरीज में बहुत सी जगह ऐसी है, जहां आपको लगेगा कि कोई ड्रामेटिक सीन देखने को मिलेगा, तो आप निराश महसूस करेंगे. फिर आप ऐसे में सोचेंगे कि शायद डायरेक्टर ने सेंसिटिव सब्जेक्ट देखते हुए ऐसा किया होगा, पर आपको वो भी होता दिखाई नहीं देता है.  फिर आप किसी दमदार सीन के इंतजार में पूरे एपिसोड को खत्म कर डालेंगे. यकीन मानिए चार एपिसोड तो हमने ही उबासी मारते हुए निकाले हैं. 

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सुष्मिता सेन के साथ श्रीगौरी सावंत

सीरीज में वो आपाधापी, असमंजस जरूर दिखाए गए हैं, जिससे एक ट्रांस कम्यूनिटी गुजरती है. लेकिन उसे दर्शाने का तरीका थोड़ा लचर है. आप विक्टिम से ज्यादा बगल के लोगों से अपने आप को कनेक्ट कर लेंगे. एक आम आदमी होने के नाते आप सोच पड़ेंगे कि हां हमारे घर में होता तो हम भी वही सलूक करते या ऐसा ही तो होता. कौन इतनी जल्दी एक्सेप्ट कर पाता है. वहीं जिस सीन का आपको बेहद बेसब्री से इंतजार रहता है, वो है गणेश के गौरी बनने का. उस सीन को इतने आराम से निकाल दिया गया है कि आप उसका इम्पैक्ट दूर दूर तक फील नहीं कर पाएंगे. एक सेमिनार के दौरान अपनी ही कम्यूनिटी से बेइज्जत होने के बाद गणेश डिसाइड करता है कि वो सेक्स चेंज ऑपरेशन करवाएगा. लेकिन उसके इस फैसले का आप पर कोई असर नहीं पड़ेगा, क्योंकि वहां ना तो बैकग्राउंड म्यूजिक ऐसा कमाल का है कि आपकी नजर टिक जाए और ना ही सुष्मिता के डायलॉग में दम है. 

लोकल ट्रेन की तरह गुजरते सीन

कई जगह आपको रिसर्च की भी कमी खलती है. आपके मन में कई सिंपल से सवाल उठने लगेंगे कि अगर गौरी इतनी गरीब है कि एक छोटी सी खोली यानी कमरा लेकर किराए पर रह रही है. गुजारा करने के लिए होटल में वेटर की नौकरी कर रही है, तो उसके पास बेहद महंगा सेक्स चेंज ऑपरेशन कराने के पैसे कहां से आए? और अगर एक NGO उसकी हेल्प कर रहा है तो क्यों और कैसे? सिर्फ एक पर इतना मेहरबान क्यों? वहीं एक और सीन है, जिसे देखकर आप कहेंगे, अरे हो गया, इतना ही था? दरअसल, गौरी को आता है यूएस का बुलावा, जहां एक यूनिवर्सिटी में जाकर उसे स्पीच देनी है. पहली बार होगा कि कोई भारतीय ट्रांसजेंडर विदेश में स्पीच देगी. इसे देख आपको लगेगा कि गौरी की कोई दमदार स्पीच दिखाई जाएगी, लेकिन नहीं......यहां भी आप निराश होंगे. क्योंकि आपको फ्लाइट का एक कॉमेडीनुमा सीन दिखाकर बात ही काट दी जाएगी.

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सुष्मिता सेन

सुष्मिता के भाव और पंच

सीरीज में दम आता है और जाता है. इकलौती चीज जो बेहद अच्छी है, वो है बीच-बीच में आने वाला पंच. कई डायलॉग्स ऐसे हैं जो सही मायने में आपके जहन में उतरते हैं. जैसे - 'इस देश को यशोदा की बहुत जरूरत है', 'ताली बजाउंगी नहीं बजवाउंगी', 'अगर आप मर्द या औरत नहीं तो जिंदा नहीं, जो गलत है उसे तो बदलना पड़ेगा', 'मुझे स्वाभिमान, सम्मान और स्वतंत्रता तीनों चाहिए. भारत एक पुर्लिंग शब्द है, फिर भी हम उसे मां बुलाते हैं और मां अपने बच्चों में कोई फर्क नहीं देखती है.' ऐसे डायलॉग्स को सुनकर आपको लगता है कि नहीं इस सीरीज में अब भी जान बाकी है. हालांकि सीरीज का एक हिस्सा और है जो बेहद दमदार है. वो है इंटरव्यू का, जहां गौरी समानता के अधिकार पर बात करती है. यहां ना सिर्फ गौरी एकंर्स की बोलती बंद करती है, बल्कि अपनी बातों से सही मायने में ऐसा इम्प्रेस करती है कि चैनल में ट्रांस जेंडर्स के लिए दो सीट आरक्षित करवा कर निकलती है. 

गणेश के रोल के लिए कृतिका देव को कास्ट किया गया है, वहीं गौरी सावंत का चेहरा सुष्मिता सेन हैं. इसमें कोई दोराय नहीं कि सुष्मिता गौरी के रूप में एक सशक्त चेहरा जरूर लगती हैं. उनकी ताली और आंखें आपको बेहद इम्प्रेस करती हैं. लेकिन अगर स्क्रीनप्ले और बैकग्राउंड म्यूजिक पर कायदे से ध्यान दिया गया होता तो इससे बेहतर सब्जेक्ट और सीरीज और कोई नहीं हो सकती थी. गौरी सावंत की लाइफ से जनता को रूबरू कराने का इससे अच्छा जरिया डायरेक्टर के पास नहीं हो सकता था. कहानी जबरदस्त है, लड़ाई भी दमदार है, पंच भी धांसू हैं लेकिन फिर भी ये सीरीज आपके दिल पर दस्तक देने में नाकामयाब साबित होती है. और हां बिग बॉस के फैंस के लिए खास खबर, आपके फेवरेट वॉइस ओवर आर्टिस्ट विजय विक्रम सिंह इस सीरीज में वकील का रोल निभाते दिखेंगे. रोल छोटा है, लेकिन स्क्रीन पर वो अच्छे लगे हैं.

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