फिल्मः तेवर
एक्टरः अर्जुन कपूर, सोनाक्षी सिन्हा, मनोज वाजपेयी, राज बब्बर
राइटरः शांतनु श्रीवास्तव
डायरेक्टरः अमित शर्मा
ड्यूरेशनः 2 घंटा 39 मिनट
रेटिंगः 5 में 3 स्टार
बात मथुरा की है. बड़े भइया नेता हैं. छोटा भाई गुंडा. गुंडे का एक गोरी पर दिल आ जाता है. मगर गोरी शरीफ है. दुत्कार देती है. गुंडा क्या करेगा- गुंडई. शरीफ क्या करेंगे- सहेंगे. मगर शोषक और शोषित के बीच आ जाता है आगरे का लौंडा. लौंडा गोरी की मदद करता है. गुंडे पीछे पीछे आते हैं. भाग-दौड़, मार-तोड़. और इस दौरान गोरी को छोरे से प्यार भी हो जाता है. तो अब भागना नहीं है. रुकना है. रायता समेटना है. तेवर तरेरते हुए. और अंत में. हमेशा की तरह. सत्य, प्यार और सिनेमा की जीत.
फिल्म तेवर सलमान खान मार्का 'दबंग टाइप सिनेमा' का नया अवतार है. इसमें यार दोस्त हैं. मोहल्ले की लोफड़ई और गुंडई हैं. तेरे नाम के राधे भइया टाइप पिंटू भइया हैं. भाई बहन का मनोरंजक और असल झगड़ा हैं. बिगड़ैल पुलिसिया पापा हैं. ममतामयी मां हैं. फिर ट्विस्ट के लिए एक जोशीला और अप्रत्याशित ढंग से कुटिल 'सेंस ऑफ ह्यूमर' रखने वाला गुंडा है. दबाकर फाइट है. हर बार हीरो ही विजेता बनकर उभरता है. डांस है. रोमांस है. मगर जैसा कि जाहिर है. ऐसा पहले भी हो चुका है. तो कहानी में ताजगी का अभाव है. इसके अलावा फिल्म दूसरे हाफ में खिंचती है तो ऐसे जैसे जूते में सस्ती वाली च्यूइंगम चिपककर अटक गई हो. दो तीन गाने जबरन ठेल दिए गए हैं. Film Review: ‘तेवर’ पुराने हैं
फिल्म में अर्जुन कपूर की एक्टिंग अच्छी है. इशकजादे के परमा का एक नया विस्तार है आगरा का पिंटू. वह मजाक, मार और मुहब्बत, तीनों में जमे हैं. सोनाक्षी सिन्हा अरसे बाद लुभावनी लगीं. बिना मेकअप के वह यूं दिख रही थीं गोया मां ने मकर संक्रांति के पहले उड़द की दाल धोकर डलिया में रख धूप में सूखने को रख दी हो. सोनाक्षी अपने चर्चित राधिका वाले गाने में लिपी पुती और बोझिल नजर आईं. बाकी उनके रोल में ज्यादा गुंजाइश नहीं थी.
मनोज वाजपेयी राजनीति के वीरेंद्र सिंह की याद दिलाते हैं. यहां उनका नाम गजेंद्र हैं. सनकी युवा बाहुबली बने हैं. उनकी तीखी संवाद अदायगी में जब त्वरित कॉमेडी का कट लगता है, तो जमुना जी की कसम, गजब हो जाता है. एसपी शुक्ला का रोल राज बब्बर से बेहतर कौन निभाता. आगरा के हैं, वहां से सांसद रहे हैं, तेवरों से वाकिफ हैं. ये फिल्म में भी एक जगह चरम पर नजर आते हैं. जब बेटे पिंटू को खोज रहे गुंडों को दरेरते हुए बब्बर बोलते हैं. गुंडई मत करना. उसका बाप हूं मैं. फिल्म में बाकी कलाकार भी यथायोग्य सम्मान के पात्र हैं. अपनी एक्टिंग के लिए.
गाने कुछ अच्छे हैं, कुछ औसत. ‘मैं तो सुपरमैन’ बालकों को पसंद आएगा. ‘बनी मैं तेरी जोगनिया’ दिलजलों को सोने से पहले सिगरेट, शराब के साथ कुछ पल मुहैया कराएगा. इसकी लाइनों को शायरी के रूप में ट्यूशन वाले रजिस्टर में भी लिखे जाने का योग दिखता है मुझे.
फिल्म की ताकत हैं शांतनु श्रीवास्तव के जबर डायलॉग. खालिस खुर्राट और खरखरे. बिल्कुल ताजे डाल के टूटे. मसलन, पहलवाल गुंडी की गीदड़ भभकी पर पिंटू का ये कहना, जो चने खाते हैं, वो बादाम की पाद नहीं मारते. शांतनु हमेशा वनलाइन की खोज में भटकते नहीं. डाइनिंग टेबल पर परिवार की बातचीत हो या फिर दोस्तों का छज्जा तोड़ प्यार. सब जगह सरस सलिल संवाद रस पैदा करते हैं.
यह फिल्म तेलुगु में साल 2003 में आई 'ओक्काडु' का रीमेक है. इसलिए फर्स्ट टाइम डायरेक्टर अमित शर्मा के पास कहानी के मामले में ज्यादा छूट नहीं थी. मगर फिल्म को जिस सघनता और सांद्रता के साथ शूट किया गया है, वह उनके बारे में उम्मीद जताता है. पर उन्हें एडिटिंग टेबल पर ज्यादा मेहनत करनी चाहिए थी. साथ ही गानों की पॉपुलेशन पर कंट्रोल के लिए भी कुछ करना था.
सिंगल स्क्रीन थिएटर वालों को फिल्म जाबड़ लगेगी. मल्टीप्लेक्स में भी 'इंगलिस' के असर से बचे बच्चे ज्यादा मजा करेंगे. फैमिली के बजाय फ्रेंड्स के साथ जाएंगे तो ज्यादा एंजॉय करेंगे. वन टाइम वॉच है तेवर.