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Thai Massage Film Review: बुजुर्गों की इच्छाओं, सेक्स से जुड़ी समस्याओं पर बात करती है फिल्म

फिल्म देखने के बाद शायद आपके मन में आने वाले कई सवाल हल हो जाएं. फिल्म बुजुर्गों की इच्छाओं और सेक्स से जुड़ी समस्याओं पर भी बात करती है. हालांकि यह फिल्म अपने इस एक्स्पेरिमेंट में कितनी सफल हुई है, ये जानने के लिए पढ़ें रिव्यू.

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थाई मसाज
थाई मसाज
फिल्म:थाई मसाज
2.5/5
  • कलाकार : गजराज राव, दिव्येंदू शर्मा, सनी हिंदूजा, राजपाल यादव, एलिना जेशोबिना
  • निर्देशक :मंगेश हदावडे

सिनेमा और समाज का एक गहरा रिश्ता रहा है. समाज की सच को रिफलेक्शन के तौर पर दिखाने के साथ-साथ कई बार कुछ ऐसी फिल्में भी होती हैं, जो समाज को एक विषय पर सोचने को मजबूर करती है. डायरेक्टर मंगेश हदावडे की फिल्म 'थाई मसाज' भी बुर्जुगों को एक अलग नजरिए से देखने की बात करती है.

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कौन सी उम्र में क्या-क्या काम करना होता है, कौन तय करता है? इच्छा उम्र के अनुसार होती है? 60 के बाद बुजुर्गों को परिवार वाले खुद रिटायर कर देते हैं या फर्नीचर मान लेते हैं लेकिन उनकी इच्छाओं का क्या? शायद ही कभी हमारे जेहन में ऐसे सवाल आए हों और शायद फिल्म 'थाई मसाज' नहीं आती, तो इस पर भी हम सोचते भी नहीं. फिल्म बुजुर्गों की इच्छाओं और सेक्स से जुड़ी समस्याओं पर बात करती है. हालांकि यह फिल्म अपने इस एक्स्पेरिमेंट में कितनी सफल हुई  है, ये जानने के लिए पढ़ें रिव्यू. 

कहानी
उज्जैन की नगरी में रहने वाले आत्माराम दुबे(गजराज राव) कुछ ही दिनों में अपने 70वें जन्मदिन में प्रवेश करने वाले हैं. सरकारी बैंक में टाइपराइटर रहे आत्मराम अब रिटायरमेंट के बाद बच्चों को टाइपराइटर से स्केच बनाना सीखाते हैं. सबकी नजरों में आइडियल रहे आत्माराम का बर्थडे ग्रैंड सेलिब्रेशन होना है और उनका पूरा भरा परिवार इस मौके पर घर पर इक्ट्ठा है. इसी बीच बच्चों के खेलने के दौरान उनकी दिवंगत पत्नी का फोटोफ्रेम टूट जाता है और उस फ्रेम के पीछे मिलता है चिपका हुआ पासपोर्ट, जिसमें उनके तीन साल पहले उनकी थाइलैंड की यात्रा की डिटेल है और एक विदेशी महिला संग तस्वीर मिलती है. अब यहीं से कहानी में ट्वीस्ट आता है. बिना बताए आत्मराम को थाइलैंड जाने की जरूरत क्यों पड़ी? तस्वीर में वो विदेशी महिला कौन थी?इन सभी सवालों का जवाब आपको थिएटर में फिल्म देखने के दौरान मिल जाएगा.

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डायरेक्टर
संजय लीला भंसाली की मलाल के बाद मंगेश हदावडे की यह दूसरी कमर्शल फिल्म है. फिल्म के जरिए बेशक मंगेश ने एक बेहद अनोखा सब्जेक्ट उठाया है लेकिन उसकी ट्रीटमेंट में वो चूकते नजर आते हैं. इंट्रेस्टिंग सब्जेक्ट होने के बावजूद फिल्म एक पॉइंट पर आकर उबाऊ सी लगने लगती है. फिल्म का स्क्रीनप्ले बिखरा हुआ है. फर्स्ट हाफ में ही फिल्म इंटरवल तक बहुत लंबी लगने लगती है. वहीं सेकेंड हाफ में सिंगापुर की सीन्स के दौरान कुछ थ्रिल्स तो जगते हैं लेकिन कहानी अंत तक आते-आते आप इसके खत्म होने का इंतजार करने लगते हैं. गजराज के किरदार पर इतना फोकस किया गया है कि बाकी किरदारों का जस्टिफिकेशन दर्शकों पर छोड़ दिया गया हो. किरदार एक दूसरे से वो कनेक्शन स्टैबलिश नहीं कर पाते हैं. हालांकि फिल्म के कुछ सीन्स आपको झकझोरते हैं और आपका ध्यान कुछ ऐसे मुद्दों पर जाता है, जिस पर शायद ही कभी हमारा फोकस रहा होगा. जैसे आत्मराम का अपने बेटे से यह कहना कि कब मैं तुमसे डरने लगा पता ही नहीं चला.

यह डायलॉग समाज की उस सच्चाई को उजागर करता है कि कैसे रिटायरमेंट के बाद हम बुजुर्गों को फर्नीचर मान लेते हैं और कब जिम्मेदारी बेटे के कंधे पर आने के बाद एक बाप अपने बेटे से डरने लगता है. इसके अलावा बुजुर्ग अपनी सेक्सुअल डिजायर पर बात इसलिए करने से डरता है कि कहीं लोग उसे ठर्की न समझ लें. एक उम्र तक आने के बाद उन्हें अपनी इच्छाओं को मार, पूजा-पाठ करने की ठूंसी हुई नसीहत दी जाती है. वहीं इस फिल्म में दूसरी बात यह बेहतरीन है कि सेक्स, इरेक्टाइल डिसफंक्शन जैसे मुद्दों पर खुल कर बात करने के बावजूद फिल्म आपको कहीं से भी फूहड़ नहीं लगती है. मेकर्स ने फुहड़ता और सेंसुअलिटी के बीच की लाइन को बेहतरीन तरीके से तरीके समझकर परोसा है.

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टेक्निकल
फिल्म का सबसे बड़ा प्लस पॉइंट इसकी सिनेमैटोग्राफी रही है. फिल्म की शुरूआत में जिस तरह से उज्जैन को टुकड़ों में दर्शाया गया है, वो काबिल ए तारीफ है. स्क्रीन का हर फ्रेम उस शहर और सिचुएशन को पूरी तरह कन्विन्स करता है. एडिटिंग में फिल्म पर बहुत हद तक काम किया जाना चाहिए था. एक अच्छा सोशल मुद्दा फिल्म की लेंथ की वजह से सटीक तरीके से डिलीवर नहीं हो पाता है. फिल्म को क्रिस्प कर इसे ऐप्ट बनाया जा सकता था. फिल्म का म्यूजिक सटीक है और फिल्मों के बीच जिस तरह से प्लेस किया गया है, वो पूरी तरह से ब्लेंड होता है.

एक्टिंग
गजराज राव के कंधे पर पूरी फिल्म का भार था, तो जाहिर है उनपर प्रेशर होगा. हालांकि गजराव राव जितनी सहजता से अपनी बीमारी और कुछ लाइट मोमंट्स को स्क्रीन पर ले आते हैं, वो काबिल ए तारीफ है. लेकिन इमोशनल सीन्स में आप उनसे जुड़ नहीं पाते हैं, उनका रोना आपको नहीं रुलाता है. संतुलन के किरदार में दिव्येंदू शर्मा कहानी में एक नया रंग लेकर आते हैं. उनका लहजा इतना नैचुरल लगता है कि आप मान बैठते हो कि वो उज्जैन के ही किसी लड़के को कास्ट कर स्क्रीन पर दिखाया गया हो. हालांकि उनके कैरेक्टर स्केच को और बेहतर तरीके डिटेल में स्टैबलिश किया जा सकता था. राजपाल यादव जब स्क्रीन पर आते हैं, आपके चेहरे पर एक हंसी लाते हैं. बेटे के रूप में सनी हिंदूजा ने अपना काम डिसेंट किया है. रशियन ट्रैवलर बनीं एलिना जेशोबिना का किरदार जीवन से भरा और दिलचस्प है.

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क्यों देखें
फिल्म एक बेहतरीन मुद्दे पर बात करती है. एक अलग सब्जेक्ट के लिए इस फिल्म को एक मौका दिया जा सकता है.

 

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