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Thar Movie Review: थार की कमजोर कड़ी हैं अनिल कपूर, नाकाम है हॉलीवुड रंग देने का जुगाड़

इसे थार का रिव्यू कम और फ़िल्म पर टिप्पणी ज़्यादा समझा जाए. रिव्यू का समय निकल चुका है. अभी समय है सफ़ाई से बात करने का. थार फ़िल्म राज सिंह चौधरी की बनायी हुई है. वो ख़ुद राजस्थान से आते हैं और अनुराग कश्यप द्वारा डायरेक्ट की गयी फ़िल्म गुलाल की कहानी इन्हीं के दिमाग से निकली थी. थार फ़िल्म में अनुराग कश्यप ने डायलॉग लिखे हैं और समझ में आ रहा है कि काम करते वक़्त उन्हें कितना मज़ा आया होगा.

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अनिल कपूर
अनिल कपूर
स्टोरी हाइलाइट्स
  • थार को हॉलीवुड टच देने की कोशिश की गई
  • कंफ्यूजिंग है फिल्म के कुछ किरदार

अगर आपने गूगल में थार रिव्यू (Thar review) डाला है और आप थार गाड़ी का रिव्यू पढ़ना चाह रहे थे तो माफ़ करें. यहां थार नामक फ़िल्म की बात हो रही है जो नेटफ़्लिक्स पर रिलीज़ हुई है. थार. विकीपीडिया के हिंदी पेज के अनुसार थार "भारतीय उपमहाद्वीप के पश्चिमोत्तरी भाग में विस्तारित एक शुष्क व मरुस्थल क्षेत्र है." शुष्क यानी रूखा, सूखा, कोमलता से रहित. दूसरे शब्दों में - हर्षवर्धन कपूर के चेहरे पर आने वाले भाव. हालांकि इसका एक फ़ायदा हुआ. फ़िल्म में इंटेंसिटी बढ़ गयी. थ्रिलर का लेवल एक पायदान ऊपर आ गया. अंग्रेज़ी में कहते हैं- ब्लेसिंग इन डिस्गाइस.

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यहां जो भी बताया जा रहा है, उसे रिव्यू कम और फ़िल्म पर टिप्पणी ज़्यादा समझा जाए. रिव्यू का समय निकल चुका है. अभी समय है सफ़ाई से बात करने का. 

थार फ़िल्म राज सिंह चौधरी की बनायी हुई है. वो ख़ुद राजस्थान से आते हैं और अनुराग कश्यप द्वारा डायरेक्ट की गयी फ़िल्म गुलाल की कहानी इन्हीं के दिमाग से निकली थी. थार फ़िल्म में अनुराग कश्यप ने डायलॉग लिखे हैं और समझ में आ रहा है कि काम करते वक़्त उन्हें कितना मज़ा आया होगा.

 

फ़िल्म के ट्रेलर ने माहौल बढ़िया बांधा था. शोले का रेफ़रेंस आया था, खून-खराबा दिखाया था, अनिल कपूर भागते दिखे थे, गोली चलती दिखी थी, पुलिस की गाड़ी में चेज़ सीक्वेंस भी था. राज सिंह चौधरी ने इस बीच इंटरव्यू भी दिए. बताया कि वो राजस्थान के किलों और रजवाड़ों आदि से इतर राजस्थान को स्क्रीन पर लाना चाहते थे. कह रहे थे कि वेस्टर्न काउबॉय फ़िल्मों जैसा कुछ फ़ील लाना था. फ़िल्म देखने के बाद मालूम देता है कि उनकी बात सही थी. वो फ़ील लाने की पूरी कोशिश की गयी है. फ़िल्म में भव्य महल और फ़िल्मी राजस्थान का पर्याय बन चुके ऊंट नहीं दिखते हैं. दिखता है तो ऐसा राजस्थान जिसकी आत्मा में शुष्की बस रही है. वो राजस्थान जिसके लिये कोई भी इंसान नहीं कहेगा - 'पधारो म्हारे देस.'

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थार में अनिल कपूर और सतीश कौशिक की जोड़ी दिखती है. अनिल कपूर इंस्पेक्टर सुरेखा सिंह का रोल निभा रहे हैं और कौशिक उनके नीचे काम कर रहे हैं. इन्हें देखकर हम दूरदर्शन के लाभार्थियों को मिस्टर इंडिया और हम आपके दिल में रहते हैं फ़िल्में याद आ जाती हैं. खैर, अनिल कपूर ही इस फ़िल्म की सबसे कमज़ोर कड़ी दिखते हैं. मुनाबो गांव में 30-35 साल के आस-पास का वक़्त गुज़ार चुका किरदार सलीक़े की राजस्थानी बोली नहीं बोल पा रहा है. सन 85 में आने वाली सस्ती और संभवतः फ़िल्टर-लेस सिगरेट वो ऐसे पीता है जैसे उसे महंगे सिगार पीने की आदत हो. तैयारी में कमी साफ़ दिखती है. सुरेखा सिंह से कहीं ज़्यादा सहज भूरे यानी सतीश कौशिक दिखते हैं.

फ़िल्म को हॉलीवुड की वेस्टर्न जैसा रंग-रोगन देने का पूरा जुगाड़ किया गया है. शून्य के बीच स्थित एक होटल, जिसका मालिक सस्पेंडर वाली पैंट पहने रहता है, इसका बहुत बड़ा सबूत है. लेकिन ऐसी वेस्टर्न फ़िल्मों की आदी हो चुकी जनता को मिलता क्या है? शून्य. उस होटल को किसी भी और शै से रीप्लेस किया जा सकता है और कहानी पर कोई ख़ास फ़र्क नहीं पड़ेगा. 

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फ़िल्म में संवादों के माध्यम से कई मौकों पर कुछ कहने की कोशिश की गयी है लेकिन वो मामला बस वहीं तक सीमित रहा है. इंस्पेक्टर सुरेखा सिंह और भूरे के बीच एक बातचीत है जिसमें शानदार लाल मांस पकाने वाला भूरे कहता है कि अगर उसने ढाबा खोल भी लिया तो उसका पकाया लाल मांस खाने कोई आएगा नहीं क्यूंकि वो नीची जाति का था. यहां आपको किरदार में एक मज़बूती आती दिखती है लेकिन समस्या ये है कि बात बस यहीं ख़तम हो जाती है और यूं लगता है कि बस कहने को ऐसा कह दिया गया. 

 

थार फ़िल्म में कई किरदार ऐसे हैं जो क्यूं हैं, समझ में नहीं आते. मसलन अपने प्रेमी से चोरी-छिपे मिलने गयी एक लड़की, जिसके मां-बाप को मार दिया जाता है. ये सब कुछ फ़िल्म शुरू होने के 15 मिनट के भीतर हो जाता है. मगर फ़िल्म ख़त्म होने तक उसका क्या हुआ, कुछ नहीं मालूम चलता. उस लड़की के मां-बाप को मारने वाले को सुरेखा सिंह गोली मार देता है. सुरेखा के पैर में भी गोली लगती है. लेकिन बाद में न सुरेखा को चोट लगी मालूम पड़ती है और न उस डकैत का कुछ पता लगता है. (सीक्वेल लाने का प्लान हो तो बात अलग है.)

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फ़िल्म में भयानक हिंसा दिखायी गयी है. कान काटने से लेकर पैरों में कील ठोंकने तक दिखाया गया है. कई मौकों पर आप आंखें बंद कर लेंगे. ऐसे दृश्यों के दौरान आपको समझ ही नहीं आएगा कि आख़िर अगला इंसान ऐसा कर क्यूं रहा है. उसके लिये आपको धीरज रखकर पूरी फ़िल्म देखनी होगी. ऐसे सारे जवाब फ़िल्म के अंतिम 20 मिनट में मिलते हैं. हो सकता है आपको दिख रही हिंसा जस्टिफ़ाईड भी मालूम दे. आख़िर थार बदले की ही कहानी है. इस पूरी हिंसा में हर्षवर्धन सहज दिखे हैं. ऐसा लगता नहीं है कि वो ज़बरदस्ती कुछ कर रहे थे. शुरुआत में कहा गया 'ब्लेसिंग इन डिस्गाइस' यहीं काम आता है. जब तक सारे पत्ते खुलते नहीं हैं, सस्पेंस बना रहा है और आप लगातार यही पूछते रहते हैं - क्यूं? 

फ़िल्म में दो-एक चीज़ें ऐसी हैं जो साथ रहती हैं. राजस्थान एक अलग रंग में सामने आता है. गांव के एक कोने में मरी पड़ी मोटी भैंस कहानी के पकने के साथ-साथ गलती जाती है और बार-बार सामने आते हुए याद दिलाती है कि कहानी और किरदार वाकई रॉ हैं. ये सब कुछ अच्छे कैमरा-वर्क और उड़ने वाले कैमरों के सहारे भी दोहराया गया है. फ़िल्म की महिला किरदार चेतना (फ़ातिमा सना शेख) के घर के बाहर बैठे 4 लफ़ंडर 'चार लोग देखेंगे तो क्या कहेंगे' को बहुत बारीक़ी के साथ सामने ले आते हैं.

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एक अच्छी बात ये भी है कि फ़िल्म में गाने टाइप कोई चीज़ नहीं है. म्यूज़िक के मामले में भी कई जगहों पर एकदम सन्नाटा पसरा रहता है जो सीक्वेंस की क्रूरता में इज़ाफ़ा ही करता है. कहानी की लय तोड़ते रैंडम गानों का मौजूद न होना इस फ़िल्म की एक सफ़लता है. जीतेंद्र जोशी (सेक्रेड गेम्स का काटेकर) को आप और देखना चाहते हैं. राजस्थानी लहज़ा और पूरा कैरेक्टर सबसे ज़ोरदार तरीक़े से उन्होंने ही पकड़ा है. जीतेंद्र जोशी इस फ़िल्म की दूसरी सफ़लता हैं. उन्हें आगे और भी देखने को मिलेगा, इस फ़िल्म ने ऐसा तय कर दिया है. 

एक वाक्य में बताना हो तो कहा जायेगा कि थार देख लें, लेकिन सभी एक्सपेक्टेशन किनारे रखकर. जो मिलता जा रहा है, लेते रहें. दिमाग़ कहीं और रखकर देखी जाने वाली फ़िल्मों में ये नहीं है लेकिन इसे बनाने वालों ने काफ़ी छूट ली है. फ़िल्म की कमज़ोरियों को ढांपने की भी ख़ूब कोशिश हुई है और इस तरह से एफ़र्ट के पूरे नंबर दिए जा सकते हैं. 
 

 

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