हम सभी किसा ना किसी चीज के गुलाम हैं. उड़ने की चाह रखते हैं, लेकिन किसी पिंजरे में कैद होने को मजबूर हैं. जिसने समय रहते ये पिंजरा तोड़ दिया, वो उस गुलामी से आजाद और जो पिंजरे में कैद रह गया वो सिर्फ एक गुलाम.अब इस गुलामी-आजादी के चक्रव्यूह को समझाएंगी प्रियंका चोपड़ा. उनकी फिल्म द व्हाइट टाइगर रिलीज हो गई है.
कहानी
बॉलीवुड की कोई भी आर्ट फिल्म उठा लीजिए, अगर कहानी गरीबी या उसके इर्द-गिर्द घूमने वाली रहेगी तो हमेशा नरेशन कुछ ऐसा होता है- यहां एक नहीं दो भारत बसते हैं. एक वो जो अमीर है, तो दूसरा वो जहां सुविधाओं का भी आभाव है. द व्हाइट टाइगर भी इसी पहलू से शुरू होती है. फिल्म शुरू होते ही अपनी थीम पर फोकस करती है. हमें बता दिया जाता है कि बलराम (आर्दश गौरव) एक होनहार और समझदार इंसान है, लेकिन गरीबी और कुछ कमाने की चाह ने गुलाम बना दिया है.
बलराम एक नौकर की तरह काम जरूर करता है, लेकिन दिमाग घोड़े से भी तेज. उसे लगता है कि किसी बड़े इंसान के यहां अगर नौकर भी बन गया तो उसे ये गुलामी का पिंजरा तोड़ने का एक मौका तो जरूर मिल जाएगा. अब उसे वो मौका मिलता भी है जब उसकी मुलाकात अशोक (राजकुमार राव) से होती है. अशोक का थोड़ा बैकग्राउंड बता देते हैं. ये जनाब खुद तो न्यूयॉर्क से पढ़कर आए हैं, लेकिन इनके पिता ठेठ स्वभाव के हैं और यहीं पर छोटी जात के लोगों पर अपना दमखम दिखाते हैं.
सबसे बड़ा टर्निंग प्वाइंट
अब कहानी आगे बढ़ती है और किसी तरह से बलराम, अशोक का ड्राइवर बन जाता है. वो अशोक का इतना वफादार रहता है कि उस पर शक करने का सवाल नहीं उठता. लेकिन जब बलराम,अशोक को ही अपना परिवार मानने लगता है, तब आता है बड़ा ट्विस्ट. अशोक की पत्नी पिंकी (प्रियंका चोपड़ा) तेज स्पीड में गाड़ी चलाती है और एक बच्चे को टक्कर मार देती है. बच्चे की मौत का जिम्मेदार बलराम बन जाता है.
यही से वो गुलामी और उससे आजाद होने का खेल शुरू होता है. बलराम को एक तरफ अपने मालिक को बचाना है, लेकिन क्योंकि गलत केस में फंसाया गया है तो बदला भी लेना है. तो क्या बलराम गुलामी का पिंजरा तोड़ पाएगा? खुद को निर्दोष साबित करेगा या मौके का फायदा उठा कुछ बड़ा? द व्हाइट टाइगर इन सवालों का जवाब देगी.
ज्ञान की मात्रा जरूरत से ज्यादा?
रामिन बहरानी के निर्देशन में बनी द व्हाइट टाइगर आपको बार-बार आपको अहसास कराएगी कि आप गुलाम हैं और अगर जिंदगी का मालिक बनना है, तो पिंजरा तोड़ना है. दो घंटे पांच मिनट तक आदर्श गौरव का किरदार आपको यहीं समझाता रहेगा. कभी आपको लगेगा कि सही बोल रहा है तो कभी लगेगा कि बोर कर रहा है. यही द व्हाइट टाइगर की सच्चाई है- ज्ञान तो दिया है लेकिन मात्रा जरूरत से ज्यादा है.
आदर्श गौरव की जोरदार दहाड़
इतनी गहरी बात समझाने के लिए ऐसे कलाकार की जरूरत थी जो इतना तेज दहाड़े कि बाकी सब छोड़ आप भी सिर्फ उसे ही सुनना चाहे. आर्दश गौरव ने ये कर दिखाया है. इतने कमाल के अभिनेता हैं कि हर सीन पर उन्हीं का राज हैं और वे दर्शकों को अपने इशानों पर घुमाते रहेंगे. फिल्म में राजकुमार की एक्टिंग भी बढ़िया कही जाएगी. मालिक का रुतबा वे पूरी फिल्म में कायम रखते हैं. प्रियंका चोपड़ा का काम भी सही रहा है. रोल छोटा है, लेकिन अपना काम कर जाता है.
देखनी चाहिए क्या?
द व्हाइट टाइगर का डायरेक्शन भी कहानी के लिहाज से अच्छा कहा जाएगा. कहने को रामिन बहरानी अमेरिकी डायरेक्टर हैं, लेकिन उनके कैमरे ने भारत का गांव भी कैद किया है और शहर की चका-चौंद भी दिखा दी है. बस थोड़ी फिल्म की लेंथ पर काम कर लेते तो और मजा आ जाता. सेकेंड हाफ में इस कहानी ने चकरी की तरह घुमाया है. महसूस होगा कि काफी खींचा जा रहा है. लेकिन फिर भी ये फिल्म आदर्श गौरव के टैलेंट की तारीफ करने के लिए देखी जा सकती है.