
2017 में रिलीज हुई 'बाहुबली 2' ने बॉक्स ऑफिस पर ऐसा इतिहास रचा कि बड़े- बड़े फिल्म बिजनेस एक्सपर्ट हैरान रह गए. तेलुगू से डब होने के बावजूद ये पहली फिल्म बनी जिसने हिंदी में 400 करोड़ का माइलस्टोन पार किया. इस बात को अभी एक दशक भी पूरा नहीं हुआ और 2024 के अंत में आई 'पुष्पा 2' तो फायर ही साबित हो गई.
अल्लू अर्जुन की फिल्म ने हिंदी बॉक्स ऑफिस पर छप्पर फाड़ कमाई कर डाली और हिंदी फिल्मों की कमाई की लिमिट 800 करोड़ तक खींच दी. बॉलीवुड के बड़े-बड़े स्टार देखते रह गए और पुष्पा भाऊ ने मुशायरा लूट लिया. इस हफ्ते विक्की कौशल की 'छावा' रिलीज हो रही है और एडवांस बुकिंग के ट्रेंड कहते हैं कि ये बॉक्स ऑफिस पर छा जाने के लिए तैयार है.
बॉक्स ऑफिस की बात निकलेगी तो ये भी देखा जाएगा कि साउथ से आ रहीं पैन इंडिया फिल्में, हिंदी में कमाई के रिकॉर्ड बना रही हैं. ये चर्चा होगी तो बहुत सारे फैन्स साउथ बनाम बॉलीवुड की होड़ छेड़ देंगे और फिर से बॉक्स ऑफिस आंकड़ों की जंग शुरू हो जाएगी. पिछले कुछ वक्त में कई फिल्ममेकर्स इस बात से खफा होने लगे हैं कि लोग अचानक बॉक्स ऑफिस पर इतनी बातें क्यों करने लगे हैं? जबकि अधिकतर फिल्ममेकर्स अपनी फिल्म के हर बॉक्स ऑफिस माइलस्टोन की अनाउंसमेंट शेयर करना नहीं भूलते.
आखिर फिल्मों की कामयाबी को बॉक्स ऑफिस कलेक्शन से नापने का ये सिलसिला शुरू कैसे हुआ? इस बॉक्स ऑफिस में कौन सा 'बॉक्स' है और कौन सा 'ऑफिस'? इसका इतिहास क्या है और शेक्सपियर जैसे अंग्रेजी के महानतम नाटककारों से इसका क्या कनेक्शन है? आइए आज बॉक्स ऑफिस की इस पूरी आभा में गोता लगते हैं...
शेक्सपियर से क्या है बॉक्स ऑफिस का कनेक्शन?
अंग्रेजी के महानतम लेखक कहे जाने वाले विलियम शेक्सपियर जिस कंपनी के लिए नाटक लिखा करते थे, वो लंदन के ग्लोब थिएटर में परफॉर्म करती थी. ये बात 16वीं सदी की है. इतिहास कहता है कि शेक्सपियर ने ग्लोब थिएटर में जाने से पहले अपने शुरुआती दो नाटक लंदन के ही रोज थिएटर के लिए लिखे थे.
मॉडर्न दौर में जब इन दोनों थिएटर्स के अवशेष मिले तो वहां एक तरह की गुल्लक के भी अवशेष मिले, जिसे इंग्लिश में 'ट्यूडर मनी बॉक्स' कहा जाता है. थिएटर के बाहर एक आदमी को खड़ा किया जाता था, जो नाटक देखने आए लोगों से इस बॉक्स में पैसे कलेक्ट करता था, जो थिएटर कंपनी के खर्च में इस्तेमाल होते थे.
ये बॉक्स, थिएटर के ऑफिस में जमा हो जाते थे जहां बाद में पैसे गिने जाते थे. माना जाता है कि थिएटर्स में बॉक्स और ऑफिस का ये संयोजन ही कई सालों बाद जुड़कर 'बॉक्स-ऑफिस' बन गया और गुल्लकों में जमा रकम नाटक की पॉपुलैरिटी और ऑडियंस का प्यार नापने का पैमाना बनी.
हालांकि, ऑक्सफोर्ड डिक्शनरी 'बॉक्स ऑफिस' शब्द का इस्तेमाल पहली बार 1741 में मानती है. इसके हिसाब से, थिएटर्स में खास दर्शकों और शाही ऑडियंस के लिए, दर्शक दीर्घा में ऊपर की तरफ अलग से बॉक्स होते थे, जहां वो आम जनता की भीड़ से अलग हटकर नाटक देख सकते थे.
ऐसे बॉक्स की टिकट जिस ऑफिस से मिलती थी, उसे बॉक्स ऑफिस कहा गया और तभी परफॉरमेंस को रेवेन्यू या टिकट बिक्री से जोड़कर देखा गया. एक ऐसी हरकत, जो हमारे दौर तक आते-आते सोशल मीडिया पर फिल्म स्टार्स के फैन क्लबों के लड़ने-उलझने की वजह बन गई!
कैसे शुरू हुई बॉक्स ऑफिस रिपोर्टिंग?
न्यू यॉर्क, यूएस में एक जगह है ब्रॉडवे. वहां यूएस के कुछ सबसे आइकॉनिक थिएटर्स हैं. थिएटर्स की शुरुआत नाटकों के लिए हुई थी, धीरे-धीरे यहां फिल्में भी दिखाई जानें लगीं. यूएस में नई फिल्में सबसे पहले यहीं दिखाई जाती थीं. 1922 में फिल्म ट्रेड मैगजीन, वैरायटी ने थिएटर्स के हिसाब से फिल्मों के कलेक्शन की रिपोर्ट्स छापनी शुरू कीं. ब्रॉडवे पर नई फिल्म की कमाई से उसकी पॉपुलैरिटी जज की जाती, और फिर दूसरे शहरों के थिएटर्स अपने यहां फिल्म चलाने का फैसला करते.
धीरे-धीरे ये दायरा बढ़ा और ब्रॉडवे के बाहर, दूसरे शहरों के थिएटर्स से भी बॉक्स ऑफिस रिपोर्ट्स छपने लगीं. 30s में ऐसी इनफॉर्मेशन गाइड छपने लगीं जिनमें बीते साल की सबसे कमाऊ फिल्मों की लिस्ट, टॉप फिल्मों वगैरह की लिस्ट निकलने लगीं. यूएस में 60 का दशक आते-आते बॉक्स ऑफिस कलेक्शन का आंकड़ा कंप्यूटर्स के जरिए तैयार किया जाने लगा.
70 के दशक में वहां पहली कंपनी मार्केट में आ गई जिसने एक सेंट्रलाइज्ड तरीके से, फिल्म स्टूडियोज से बॉक्स ऑफिस डाटा जुटाना शुरू किया. इसका नाम था EDI (एंटरटेनमेंट डाटा इंक) और 1991 तक यूएस के सभी स्टूडियो EDI को फिल्मों का बॉक्स ऑफिस डाटा देने लगे थे. फिर ये कनाडा, जर्मनी, स्पेन और दूसरे देशों में भी फैली. धीरे-धीरे कई और कंपनियां भी इस काम में उतरने लगीं. फिर मैगजीन्स और अखबारों में बॉक्स ऑफिस डाटा के हिसाब से अच्छी चलने वाली और खराब कमाई करने वाली फिल्मों पर बातें होने लगी. इस तरह फिल्मों की परफॉरमेंस मापने का पैमाना बॉक्स ऑफिस कलेक्शन बन गया. आज कॉमस्कोर या बॉक्स ऑफिस मोजो जैसी कंपनियां इंटरनेशनल बॉक्स ऑफिस का डेटा रिपोर्ट करती हैं.
भारत में कैसे शुरू हुई बॉक्स ऑफिस रिपोर्टिंग?
भारतीय फिल्म इंडस्ट्री में पहले फिल्मों की कामयाबी, थिएटर्स में ज्यादा दिनों तक चलने से नापी जाती थी. यहीं से सिल्वर जुबली (25 हफ्ते), गोल्डन जुबली (50 हफ्ते) या प्लेटिनम जुबली (75 हफ्ते) की बात शुरू हुई. फिल्मों की कमाई के आंकड़े, इंडस्ट्री से जुड़े लोगों तक ही सीमित थे. उस समय फिल्मों पर बेस्ड मैगजीन्स और अखबार तो बहुत थे, मगर इनमें कहीं छोटा सा जिक्र केवल इस बात का होता था कि कौन सी फिल्में अच्छी चल रही हैं, कौन सी नहीं. ज्यादा फोकस फिल्मों के कंटेंट, एक्टर्स के इंटरव्यू वगैरह पर ही होता था. हिंदी फिल्मों की बॉक्स ऑफिस रिपोर्टिंग का इतिहास, आज के दौर में दो चर्चित ट्रेड एक्सपर्ट्स से भी जुड़ा है.
आज बॉक्स ऑफिस के आंकड़ों में दिलचस्पी लेने वाले लोगों को ट्रेड एक्सपर्ट तरण आदर्श का नाम जरूर पता होगा. तरण के पिता, बी. के. आदर्श ने 50 के दशक में फिल्म डिस्ट्रीब्यूटर के तौर पर इंडस्ट्री में कदम रखा था और फिल्ममेकिंग में हाथ आजमा चुके थे. वैसे तो बी. के. का सरनेम नाहटा था. वो लिखते भी थे और अपनी राइटिंग के लिए उपनाम 'आदर्श' इस्तेमाल करते थे, जिसे बाद में उन्होंने सरनेम की तरह इस्तेमाल करना शुरू कर दिया. 1954 में उन्होंने ‘ट्रेड गाइड’ नाम की मैगजीन शुरू की जो फिल्मों के बिजनेस और बॉक्स ऑफिस पर फोकस करने वाली अपने तरह की पहली सबसे पॉपुलर मैगजीन बनी. तरण ने अपना करियर इसी मैगजीन से स्टार्ट किया.
बी. के. साथ फिल्ममेकिंग में उनके साथ उनके छोटे भाई रामराज नाहटा ने भी कदम रखा था. रामराज ने 1973 में एक नई ट्रेड मैगजीन ‘फिल्म इन्फॉर्मेशन’ की शुरुआत की, जिसे उनके निधन के बाद उनके बेटे कोमल नाहटा ने संभाला, जो खुद आज जानेमाने फिल्म ट्रेड एक्सपर्ट हैं.
70-80 और 90 के दशक के शुरुआती सालों में फिल्म इंडस्ट्री लगातार बढ़ रही थी. ट्रेड गाइड और फिल्म इन्फॉर्मेशन इस दौर में नामी ट्रेड मैगजीन बन गईं. अब जहां हर साल ज्यादा फिल्में बनने लगी थीं, वहीं फिल्मों के लिए सिल्वर-गोल्डन जुबली मनाना मुश्किल होता जा रहा था. क्योंकि अब हर दूसरे हफ्ते एक नया और मजबूत कॉम्पिटिशन थिएटर्स में होता था. कॉम्पिटिशन बढ़ने के साथ, प्रचार में आगे रहना भी जरूरी था और इसलिए केवल हिट-फ्लॉप बताने से आगे बढ़कर धीरे-धीरे बॉक्स ऑफिस आंकड़ों में खुद को बड़ा दिखाने की जरूरत भी पैदा होने लगी. क्योंकि ग्लोबलाइजेशन की शुरुआत हो चुकी थी और 90s के अंतिम सालों में ‘मार्केटिंग-ब्रांडिंग-इनवेस्टमेंट’ जैसे शब्द फिल्म इंडस्ट्री का भी हिस्सा बनने लगे थे. अब सिर्फ कामयाब दिखना काफी नहीं था, बिजनेस का स्केल दिखाना भी जरूरी था.
1997 में ‘इंडिया एफ एम डॉट कॉम’ शुरू हुआ जिसने डिजिटल संसार में बॉलीवुड के बॉक्स ऑफिस आंकड़े शेयर करने शुरू किए. इंटरनेट की पॉपुलैरिटी ने इन आंकड़ों को ऑडियंस दिलाई. इसे 2000 में ‘हंगामा डॉट कॉम’ ने खरीदा और अब इसकी नई शक्ल बॉलीवुड हंगामा कहलाती है. 2003 में बॉक्स ऑफिस इंडिया की वेबसाइट शुरू हुई. तरण आदर्श और कोमल नाहटा के साथ अब ये दो वेबसाइट और कई नए खिलाड़ी भी बॉक्स ऑफिस नंबर्स रिपोर्ट करने लगे. लेकिन सबके अपने-अपने सूत्र और कॉन्टैक्ट थे. इसलिए आजतक हर जगह आपको फिल्म का कलेक्शन थोड़ा-बहुत अलग मिलता है.
हॉलीवुड की तरह भारत में कभी सेंट्रलाइज तरीके से बॉक्स ऑफिस नंबर ट्रैक नहीं किए गए और ना ही कभी स्टूडियोज ने इस काम के लिए एक एजेंसी बनाने पर जोर दिया. इंटरनेशनल बॉक्स ऑफिस आंकड़े रिपोर्ट करने वाले Rentrak (कॉमस्कोर की कंपनी) ने भी इंडिया में अपनी पैठ बनाने की कोशिश की, मगर इंडियन फिल्म बिजनेस के खिलाड़ी कभी खुलकर डाटा शेयर करना ही नहीं चाहते थे, इसलिए इस कंपनी को दूसरे देशों जैसी कामयाबी यहां नहीं मिली.
हिंदी फिल्मों के नामी डिस्ट्रीब्यूटर्स में से एक और खुद थिएटर चला रहे राज बंसल बताते हैं- प्रोड्यूसर ही नहीं, एक्टर्स भी फिल्म का असली कलेक्शन पब्लिक करने के फेवर में नहीं रहते. ‘एक्टर्स के अपने झगड़े होते हैं कि मेरी फिल्म ने इतना बिजनेस किया, तेरी फिल्म ने इतना... क्योंकि फिल्म के बिजनेस के हिसाब से एक्टर्स की मार्केट वैल्यू डिसाइड होती है. इसलिए वो भी प्रोड्यूसर्स से कहते हैं कि सच्चे आंकड़े मत शेयर करो, बढ़ा कर शेयर करो’
‘गजनी’ से शुरू हुआ असली क्रेज
2008 में आमिर खान की ‘गजनी’ 100 करोड़ कमाने वाली पहली फिल्म बन गई और उस ग्रेनेड का पिन निकल गया, जिसका धमाका हम आजतक सुन रहे हैं. बॉलीवुड में अब 100 करोड़ क्लब, सक्सेस का नया पैमाना बन गया. एक्टर्स के लिए 100 करोड़ कमाने वाली फिल्म देना अब एक चैलेंज था. सोशल मीडिया अपनी पॉपुलैरिटी की रफ्तार पकड़ चुका था और अबतक दिमागी उधेड़बुन में फंसे हर ओपिनियन को, बाहर निकलकर शोर मचाने का एक मंच मिलने लगा था. नए फिल्म फैन्स आए, फिल्मों पर नई बातें शुरू हुईं और उन्हें खाद-पानी देने के लिए नए-नए ट्रेड एक्सपर्ट्स भी तेजी से उगे. हिंदी फिल्मों में 100 से 200 करोड़, 300 करोड़ होते हुए अब मामला 800 करोड़ तक जा चुका है.
मगर अभी भी ट्रेड एक्सपर्ट्स के पास कलेक्शन के अलग-अलग आंकड़े होते हैं, इसलिए इंडियन बॉक्स ऑफिस रिपोर्टिंग में एक बहुत तगड़ा झोल लगता है. आजतक लोगों के मन में सवाल है कि क्या भारत में फिल्म कलेक्शन के आंकड़े गलत बताए जाते हैं? बॉलीवुड के बॉक्स ऑफिस कलेक्शन में गड़बड़ कहां है? बॉलीवुड और साउथ अलग-अलग तरीकों से कलेक्शन क्यों बताते हैं? साउथ फिल्मों के कलेक्शन में क्या गड़बड़ी है? इन सवालों का जवाब, भारत में बॉक्स ऑफिस कलेक्शन के तरीके में छुपा है.
इंडिया में कैसे जुटाए जाते हैं बॉक्स ऑफिस आंकड़े?
एक ट्रेड एक्सपर्ट का रूटीन काम है मार्केट से सेल के आंकड़े जुटाना. इंडिया का फिल्म बिजनेस एरिया के हिसाब से अलग-अलग हिस्सों या ‘सर्किट’ में बंटा है. ये सर्किट आजादी से पहले भारत की रियासतों के हिसाब से चले आ रहे हैं. 1930 में 6 सर्किट बांटे गए थे. जैसे 'बॉम्बे सर्किट' में आज की मुंबई के अलावा महाराष्ट्र के कुछ हिस्से, दादरा और नगर हवेली, दमन और दीव, गोवा और कर्नाकट के कुछ हिस्से आते थे. यानी वो इलाके जो आजादी से पहले के बॉम्बे स्टेट और पुर्तगालियों कॉलोनियों में आते थे.
आज की सुविधा के हिसाब से करीब 14 सर्किट गिने जाते हैं- मुंबई (बॉम्बे सर्किट वाले क्षेत्र), दिल्ली / यूपी, ईस्ट पंजाब (चंडीगढ़,हरियाणा, हिमाचल प्रदेश,जम्मू कश्मीर, लद्दाख और पंजाब), सेन्ट्रल इंडिया (नॉर्थ और वेस्ट मध्य प्रदेश), सीपी बरार (महाराष्ट्र का विदर्भ क्षेत्र, साउथ और ईस्ट मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़), बिहार, राजस्थान, निजाम (आंध्र प्रदेश, तेलंगाना और कर्नाटक के कुछ हिस्से), पश्चिम बंगाल, तमिलनाडु, मैसूर (कर्नाटक के कुछ हिस्से), केरला, उड़ीसा और आसाम.
हर सर्किट के रिप्रेजेंटेटिव सुबह अपने सर्किट के थिएटर्स से सेल्स के आंकड़े जुटाते हैं. ये आंकड़े प्रोड्यूसर या ट्रेड एक्सपर्ट को भेजे जाते हैं जो फिल्म का टोटल कलेक्शन बताते हैं.
कैसे आती है बॉक्स ऑफिस रिपोर्ट?
भारत में बॉक्स ऑफिस कलेक्शन की रिपोर्टिंग अपने आप में एक भूल भुलैया है, इसलिए इसे समझने के लिए धैर्य चाहिए. हमारे यहां कलेक्शन के नाम पर सबसे पहला कन्फ्यूजन होता है नेट और ग्रॉस का. इंटरनेशनल लेवल पर कलेक्शन हमेशा ग्रॉस फिगर्स में दिए जाते हैं, 'ग्रॉस' यानी टिकट बिकने से फिल्म की कितनी कमाई हुई. जबकि बॉलीवुड इंडस्ट्री में अधिकतर नेट कलेक्शन में आंकड़े बताने का ट्रेंड रहा है. नेट यानी ग्रॉस कलेक्शन में से टैक्स घटाने के बाद मिला नंबर. उदाहरण के लिए- सैकनिल्क के अनुसार, शाहरुख खान की ब्लॉकबस्टर 'जवान' का ग्रॉस इंडिया कलेक्शन था 760 करोड़ (भारतीय रुपये में) और नेट इंडिया कलेक्शन था 640 करोड़.
अगला कन्फ्यूजन है तीन तरह आंकड़े- इंडस्ट्री के हिसाब से कलेक्शन, इंडिया कलेक्शन और वर्ल्डवाइड कलेक्शन. 'जवान' एक पैन इंडिया फिल्म थी जो हिंदी-तमिल-तेलुगू में रिलीज हुई थी. इसका कलेक्शन रिपोर्ट करने के कई लेवल हैं, जैसे- सैकनिल्क के अनुसार शाहरुख खान की 'जवान' का हिंदी कलेक्शन 582 करोड़ है. जबकि इंडिया कलेक्शन है 640 करोड़, क्योंकि इसमें हिंदी के साथ-साथ फिल्म के तमिल वर्जन का कलेक्शन 30 करोड़ और तेलुगू से आए 28 करोड़ भी जुड़ गए.
शाहरुख खान की फिल्म है तो दुनिया भर में रिलीज होगी ही, तो इंडिया के साथ-साथ विदेशों में फिल्म की कमाई का आंकड़ा कहलाएगा वर्ल्डवाइड कलेक्शन. जवान के लिए ये आंकड़ा था- 1160 करोड़. इसलिए कहीं भी किसी फिल्म का कलेक्शन देखने पर ये नोट करना जरूरी है कि ये कौन सा आंकड़ा है. उससे भी जरूरी ये नोट करना है कि ये कलेक्शन, प्रोड्यूसर का दिया आंकड़ा शेयर करने वाले ट्रेड एक्सपर्ट का है या ‘इंडिपेंडेंट’ यानी किसी स्वतंत्र ट्रेड एक्सपर्ट का.
साउथ में कैसे अलग होते हैं बॉक्स ऑफिस आंकड़े?
तमिल-तेलुगू-कन्नड़-मलयालम इंडस्ट्री की ऑडियंस विदेशों में भी खूब है और यही वजह है कि पिछले कुछ समय से साउथ में बॉक्स ऑफिस आंकड़े ग्रॉस कलेक्शन में रिपोर्ट किए जाने लगे हैं. साउथ की बॉक्स ऑफिस रिपोर्ट्स में अक्सर फिल्म के कलेक्शन के डिस्ट्रीब्यूटर से मिली मिनिमम गारंटी, या एडवांस को जोड़ दिया जाता है. ये इसलिए गलत है कि बॉक्स ऑफिस कलेक्शन का मतलब ही है टिकट बिकने से हुई कमाई.
फिल्मों की कलेक्शन रिपोर्ट करने के लिए साउथ में एक और ट्रेंड बहुत पॉपुलर है- डिस्ट्रीब्यूटर शेयर. ये क्या बला है, इसे पहले समझ लेते हैं. फिल्म बिजनेस की सबसे बेसिक कड़ी में तीन लोग होते हैं: प्रोड्यूसर - डिस्ट्रीब्यूटर - फिल्म प्रदर्शक (थिएटर्स). फिल्म बनाने और उसकी मार्केटिंग जो खर्च हुआ, उसके ऊपर अपना प्रॉफिट जोड़कर प्रोड्यूसर एक अमाउंट तय करता है.
डिस्ट्रीब्यूटर या तो खुद फिल्म (फिल्म के थिएट्रिकल राइट्स) खरीदता है या मिनिमम गारंटी के साथ कमीशन के आधार पर फिल्म को थिएटर्स तक पहुंचाता है. जिन फिल्मों में रिस्क होता है, उनमें डिस्ट्रीब्यूटर बिना किसी मिनिमम गारंटी केवल कमीशन बेसिस पर भी काम करते हैं. डिस्ट्रीब्यूटर, थिएटर्स तक फिल्म लेकर जाते हैं और टिकट पर होने वाली कमाई में अपना हिस्सा रखते हैं. ये शेयर फिल्म के पहले हफ्ते, दूसरे हफ्ते और आगे के हिसाब से कम होता चला जाता है.
यानी अगर राइट्स डिस्ट्रीब्यूटर के पास हैं तो पहले हफ्ते फिल्में जो बड़ी कमाई जुटाती हैं, उसमें थिएटर्स और डिस्ट्रीब्यूटर का हिस्सा बराबर होता है. उसके बाद हर हफ्ते डिस्ट्रीब्यूटर का हिस्सा कम होता जाता है, थिएटर्स का ज्यादा. और अगर डिस्ट्रीब्यूटर केवल कमीशन ले रहा है तो टिकट से हुई कमाई प्रोड्यूसर-थिएटर में बंट रही है, डिस्ट्रीब्यूटर का केवल कमीशन है.
राइट्स खरीदने वाले हिसाब से सबसे बड़ा रिस्क डिस्ट्रीब्यूटर उठाते हैं. वो प्रोड्यूसर को एक मिनिमम कमाई का वादा करते हैं और ऐसे में अगर फिल्म नहीं चली तो नुक्सान उन्हें भुगतना पड़ता है. इस फॉर्मूले को आधार मानकर साउथ के कई पोर्टल, ट्रेड एक्सपर्ट्स और वेबसाइट, कलेक्शन को डिस्ट्रीब्यूटर शेयर के रूप में पेश करते हैं. इसे कई बार रेवेन्यू भी कहा जाता है. मगर इसके लिए दो चीजें पता होना बहुत जरूरी है- डिस्ट्रीब्यूटर ने प्रोड्यूसर से फिल्म कितने में खरीदी और फिल्म की सही कमाई कितनी है. और ये जानकारी सभी के पास नहीं होती.
आंकड़ों के बदले अपनापन दिखाने का लालच
प्रोड्यूसर्स जिन लोगों से या सोर्सेस से कलेक्शन के आंकड़े खुद शेयर करते हैं, उनके अपने नेटवर्क और हित होते हैं. उन्हें भी एक्टर्स के इंटरव्यू, नई फिल्मों से जुड़ी एक्सक्लूसिव जानकारी और सबसे पहले अंदर की खबरें चाहिए. क्योंकि उन्हें भी अपने चैनल, पोर्टल और सोशल मीडिया हैंडल कमाऊ बनाने हैं. और ये सब मिलता उन्हीं लोगों से है, जो फिल्म पर काम कर रहे हैं. इसलिए अक्सर साउथ ही नहीं, हिंदी के भी ‘इंडिपेंडेंट’ ट्रेड एक्सपर्ट्स और चैनल्स के पास फिल्मों के कलेक्शन अलग-अलग दिख सकते हैं. एक ही फिल्म को एक जगह हिट बताया जा रहा होता है, दूसरी जगह फ्लॉप. लेकिन अब बॉक्स ऑफिस कलेक्शन के आंकड़े एक हथियार बन चुके हैं, जिससे एक्टर्स और इंडस्ट्रीज के फैन क्लब एक दूसरे पर हमले करते रहते हैं.
इस सिचुएशन पर फिल्म बिजनेस एक्सपर्ट गिरीश जौहर कहते हैं, ‘सबके अलग-अलग रिसोर्स हैं, प्रोड्यूसर अपने नंबर बताते हैं, कुछ लोग अपने अलग नंबर बताते हैं. कोई वेरीफाईड सोर्स नहीं है, इसीलिए सब अपनी-अपनी ऑडियंस के हिसाब से (नंबर देते हैं),... कुछ लोग अपनी ऑडियंस बढ़ाने के लिए ज्यादा नंबर बताते हैं. कुछ लोग कम बताते हैं क्योंकि नेगेटिविटी तो आप जानते ही हैं, कितनी तेजी से पॉपुलैरिटी दिलाती है, ये लोग खुद को सही दिखाने के लिए कहते हैं कि प्रोड्यूसर नंबर बढ़ा के बता रहे हैं.’
लॉकडाउन से ठीक पहले के सालों में एक वेबसाइट, सैकनिल्क इंडिया, लगातार बॉक्स ऑफिस रिपोर्टिंग के मामलों में मीडिया और जनता दोनों के लिए थोड़ा भरोसा लेकर आई है. लेकिन फिल्म बिजनेस के खेल का सामना इसे भी करना पड़ा है. सैकनिल्क इंडिया के फाउंडर सचिन जांगीर बताते हैं- ‘इंडस्ट्री से हमें भी कॉल आते हैं. कई बार कॉल आए हैं कि डाटा (कलेक्शन का आंकड़ा) बढ़ा दो. लीगल केस की धमकी भी दी है. लेकिन हमारे पास तो असल में अपना प्रॉपर डाटा है. इसलिए हम इन सब बातों को सीरियसली नहीं लेते’.
बॉक्स ऑफिस आंकड़ों को भरोसेमंद बनाते नए खिलाड़ी
30 साल के आई.आईटी. ग्रेजुएट सचिन जांगीर बताते हैं कंप्यूटर साइंस से ग्रेजुएशन करने के बाद वो एक न्यूज वेबसाइट शुरू करना चाहते थे. लेकिन उन्हें बॉक्स ऑफिस आंकड़ों में बहुत दिलचस्पी थी और उन्हें इंडिया की बॉक्स ऑफिस रिपोर्टिंग में कुछ 'मिसिंग' लगा. ये चीज थी एक्यूरेसी. 2016 में सचिन ने एक प्रोग्राम बनाया जो ऑनलाइन टिकट बुकिंग के आंकड़ों को ट्रैक करता है.
अब अधिकतर इंडियन थिएटर्स किसी न किसी ऑनलाइन प्लेटफॉर्म के जरिए बुकिंग स्वीकार करते हैं, ऐसे में ये तरीका उन्हें कारगर लगा. लेकिन इस तरीके में भी एक गैप था. राज बंसल ये गैप समझाते हुए कहते हैं, 'दिक्कत ये है कि अभी भी ग्रामीण और कस्बाई इलाकों में सैकड़ों ऐसे थिएटर्स हैं जो ऑफलाइन मोड में चलते हैं. उनकी बुकिंग का ऑनलाइन डाटा या तो होता नहीं है, या गड़बड़ होता है. इसलिए ऐसी ट्रेकिंग से आए आंकड़े, रियल आंकड़ों से थोड़े कम होते हैं.'
शायद इसीलिए प्रोड्यूसर या तरण आदर्श के आंकड़ों में और सैकनिल्क के आंकड़ों में थोड़ा सा अंतर नजर आता है. हालांकि, सचिन का कहना है कि ज्यादा से ज्यादा थिएटर्स के ऑनलाइन आने से उनकी एक्यूरेसी बढ़ी है. सचिन बताते हैं, 'दिल्ली मुंबई और बाकी शहरी क्षेत्रों के लिए हमारे आंकड़े 95% से 100% तक सटीक होते हैं. नॉन अर्बन सेंटर के मामले में हमारी एक्यूरेसी 85% से 90% तक है.' लेकिन एक छोटे शहर के बिल्कुल नॉन-फिल्मी बैकग्राउंड से आने वाले सचिन फिल्म डिस्ट्रीब्यूटर्स या प्रोड्यूसर्स से फिल्मों के कलेक्शन के लिए कोई संपर्क नहीं रखते. उनका कहना है, 'हम फिल्म इंडस्ट्री से कोई कनेक्शन नहीं रखते शायद इसीलिए एक्यूरेट बचे हैं.'
सैकनिल्क समेत कुछ और नए लोग इंडियन फिल्मों की बॉक्स ऑफिस रिपोर्टिंग को लॉजिकल और भरोसेमंद बनाने में लगे हुए हैं. जनता इनके दिए बॉक्स ऑफिस आंकड़ों का जिक्र करते हुए सोशल मीडिया पर फिल्मी चर्चाओं का हिस्सा बनने लगी है. लेकिन आजकल एक और सवाल बहुत तेजी से उठ रहा है... क्या आम दर्शक को बॉक्स ऑफिस पर चर्चा करनी चाहिए? क्या टिकट खरीदकर फिल्म देखने वाले दर्शकों को बॉक्स ऑफिस कलेक्शन से कोई लेनादेना होना चाहिए? क्या बॉक्स ऑफिस आम दर्शकों की जिज्ञासा का मुद्दा होना चाहिए? हमने इन सवालों का जवाब खोजने की भी कोशिश की है. मगर उसके लिए आपसे थोड़े सब्र की गुजारिश है, अगले हफ्ते 'सिनेमा को समझो' की दूसरी कड़ी में मिलते हैं इन सवालों के जवाब के साथ.