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मीरा का भजन गाकर नय्यारा नूर को मिली पहचान, ताउम्र एक तलाश में रहीं पाकिस्तान की बुलबुल

भारत में जन्मी और पाकिस्तान का हो कर रह गईं गायिका नय्यारा नूर का 21 अगस्त को निधन हो गया. पाकिस्तान की बुलबुल, इस खित्ते की बाकमाल आवाज़, जिन्होंने किसी की शागिर्दगी में संगीत और गायन नहीं सीखा. बल्कि, उन्होंने सिर्फ़ और सिर्फ़ जी लगाकर आलातरीन फ़नकारों को सुना और रियाज़ किया. वे कहतीं थी कि सुनना भी अपने आप में एक कला और इल्म है.

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नय्यारा नूर
नय्यारा नूर

पिछले दिनों पाकिस्तान के सिंगर अली सेठी और शाय गिल का कोक स्टूडियो के लिए गाया हुआ गाना 'पसूरी' सुपरहिट हुआ. अब तक 339 मिलियन से ज्यादा लोग इसे देख चुके हैं लेकिन सोशल मीडिया ख़ासकर इंस्टाग्राम पर शाय गिल को चाहने वाले जिस एक कवर सॉन्ग के लिए उन्हें जानते हैं, वो है 'कहां हो तुम चले आओ…'

हालांकि, इस गाने को अपनी पहचान अब से अरसे पहले उस सिंगर की आवाज़ में मिली थी जिसने फ़ैज़, ग़ालिब से लेकर कई अज़ीम शायरों की रचनाओं को गुनगुनाया था. भारत में जन्मी और पाकिस्तान का हो कर रह गईं इस गायिका का नाम था, नय्यारा नूर. जिनका कल, 21 अगस्त को निधन हो गया.

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गाने का नहीं, सुनने का शौक़ था…

पाकिस्तान की बुलबुल, इस खित्ते की बाकमाल आवाज़, जिन्होंने किसी की शागिर्दगी में संगीत और गायन नहीं सीखा. बल्कि, उन्होंने सिर्फ़ और सिर्फ़ जी लगाकर आलातरीन फ़नकारों को सुना और रियाज़ किया. वे कहतीं भी कि सुनना अपने आप में एक कला और इल्म है. नय्यारा उस्तादों को ग़ौर से सुनतीं और उनकी अदायगी, सुर अपने भीतर जज़्ब करने की कोशिश करतीं. 

बहुत ही चुनिंदा लोगों को नय्यारा ने इंटरव्यू दिया और कहती रहीं कि टीवी के लिए काम करने वाले पत्रकार तैयारी के साथ बात करने के लिए नहीं आते. शायर फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ की बेटी और पाकिस्तानी ब्रॉडकास्टर मोनीज़ा हाशमी से एक बातचीत के दौरान नय्यारा कुछ ऐसा कहती हैं जिससे आप उनकी मनःस्थिति को समझ सकते हैं. 

वे कहती हैं, 'जब आप अपने अंदर की दुनिया को समझ लेते हैं, जान लेते हैं, उस में चलने फिरने की समझ-बूझ आपको आ जाती है और आप जानते हैं कि आपके अंदर कौन है और आप ख़ुद कौन हैं, तो फिर बाहर की जो बज़ाहिर बहुत मुश्किल चीज़ें होती हैं, उनसे सामना करने का सलीका आपको आ जाता है'

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और ये सलीका नय्यारा नूर को ज़िन्दगी की और पारिवारिक पेचीदगियों के बीच धीमे-धीमे आया. बचपन में दिन भर खेलना, आसमान सर पर उठा घर वालों की नाक में दम कर देने वाली नय्यारा उम्र के साथ संज़ीदा होती चली गईं. 

ताउम्र कुछ ढूंढती रहीं…

वे कहती हैं कि 'बचपन से मैं कुछ ढूंढती रहती थी…' टहलते-घूमते 'कोई सुर सही पकड़ में आ जाए अगर तो मैं वहीं खड़ी हो जाती थी…' उनकी गायकी में ये ढूंढने की तलब, एक छटपटाहट, बेक़रारी, इक तलाश ताउम्र नज़र आती है.

नय्यारा ने अपनी गायन में बहुतायत संजीदा कलाम और ग़ज़लों का ही चयन किया. 'ऐ इश्क़ हमें बर्बाद न कर…' या फिर 'उन्हें जी से मैं कैसे भुलाऊँ सखी…' गाते हुए नूर की वो तलाश, विरह के उस मक़ाम पर ले जाकर आपको पटक देती हैं, ऐसा लगता है शायर अख़्तर शिरानी ने ये कलाम नय्यारा के लिए ही लिखा होगा कि किसी दिन वे इसे गा दें, बस.

नय्यारा नूर, उनका बचपन और परिवार 

तकनीक की नित नई ऊंचाइयों और सूचनाओं की बेहतर पहुंच के बावज़ूद हम कई चोटी के फ़नकारों को तब जान पाते हैं, जब उनकी आवाज़ ख़ामोश हो जाती है. 3 नवम्बर 1950 को आज़ाद हिंदुस्तान के गुवाहाटी में जन्मी नय्यारा नूर का शुरुआती बचपन गुवाहाटी ही में खूबसूरत पहाड़, पेड़ और प्रकृति के बीच बीता. 

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छुटपन में वे कानन देवी, कमला झरिया के भजन और बेग़म अख़्तर की ग़ज़लों और ठुमरियों को सुना करतीं. हालांकि, इनके अलावा घर का माहौल ऐसा था जहां के एल सहगल, पंकज मलिक से लेकर और कई ख्यातिबद्ध गायकों का कलेक्शन मौजूद था जिन्होंने नय्यारा की संगीत की समझ को पुख़्ता किया. 

उनके पिता ऑल इंडिया मुस्लिम लीग के सक्रिय कार्यकर्ता थे और वरिष्ठ पत्रकार आसिफ़ नूरानी लिखते हैं कि जब मोहम्मद अली जिन्ना का असम दौरा हुआ तो उनकी अगुवानी करने वालों में शामिल थे. 

वैसे तो नय्यारा के परिवार का तालुल्क अमृतसर से था लेकिन सम्भवतः व्यापार के सिलसिले में वे असम में रच-बस गए थे. बंटवारे के लगभग 10 साल बाद 1957-58 में नय्यारा मां और भाई-बहनों के साथ पाकिस्तान चली गईं और कराची में रहने लगीं. 

मीरा का वो भजन जिससे नय्यारा नज़रों में आईं

लाहौर के नेशनल कॉलेज ऑफ आर्ट्स की एक शाम के बग़ैर नय्यारा नूर की कहानी अधूरी होगी. कॉलेज में संगीत का एक कार्यक्रम होना था. जो मुख्य गायक थे, उनका इंतज़ार हो रहा था. खाली समय को भरने के लिए नय्यारा से गाने को कहा गया. उन्होंने 'जो तुम तोड़ो पिया…' भजन गाना शुरू किया. 

मीरा बाई का लिखा और गाया हुआ ये भजन जिसे बाद में लता मंगेशकर ने भी गुनगुनाया, नय्यारा गा ही रहीं थी, इसी बीच उन पर नज़र पड़ी इस्लामिया कॉलेज के प्रोफेसर असरार साहब की जो अपने आप में बड़े संगीतज्ञ और संगीत की गहरी समझ रखने वाले पारखी व्यक्ति थे. असरार साहब ने नय्यारा की प्रतिभा को पहचाना और उन्हें गाने के लिए प्रोत्साहित किया. 

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फ़ैज़ की रचना और नय्यारा की आवाज़ जब साथ आई

ऐसे समय में जब नूर जहां और फरीदा ख़ानम हर जगह सुनी और गाई जा रहीं थीं. नय्यारा के लिए अपनी एक अलग पहचान बनाना बहुत मुश्किल था. उन्होंने शुरुआती गाने रेडियो के लिए गाएं. और फिर 1976 में फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ के जमन्दिन पर एक एलम्ब आया. फ़ैज़ की रचनाओं का वो कलेक्शन जिसे पाकिस्तान की रिकॉर्डिंग कम्पनी ईएमआई और फ़ैज़ साहब के दामाद ने प्रड्यूस किया था, नय्यारा की आवाज़ में रिलीज़ हुई और उन्हें बतौर गायक स्थापित कर गयी. फ़ैज़ के चाहने वाले आज तलक नय्यारा नूर की उस रिकॉर्डिंग के ज़रिए उन्हें गुनगुनाते हैं. 

लाइव स्टेज परफॉर्मेंस और फिल्मों के लिए गानें

हालांकि, इसके अलावा नूर की एक अहम पहचान वो लाइव स्टेज परफॉर्मेंस भी थी जिनकी बदौलत उन्हें ख़ूब शोहरत मिली. टीवी को उन्होंने अपेक्षाकृत अधिक समय दिया. फिल्मों के लिए उनके गाए हुए गाने भले संख्या के लिहाज़ से कम हैं लेकिन सब के सब मोती हैं. 

फिल्मों से अपना नाता टूटने पर वो दो बातें कहती हैं. पहला, फिल्मों की जो मांग थी, जो एक बाध्यता थी, उसके बीच वे तालमेल नहीं बिठा पाईं. दूसरा, अगर रोबिन घोष (जिनकी लयकारी में बना गाना 'रूठे हो तुम, तुमको कैसे मनाऊं पिया…' बहुत मशहूर हुआ) पाकिस्तान के बंटवारे के बाद बांग्लादेश नहीं जाते तो वे कुछ और गानों को फिल्मों के लिए गातीं. 

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हाज़िरजवाबी और नकल में उस्ताद नय्यारा

उनकी आलोचना करने वाले कहते हैं कि उन्होंने सिर्फ और सिर्फ बड़े शायरों को ही गाया. हालांकि, नय्यारा गाहे-बगाहे कहा करती थीं कि वे उन गजल, गीत, नज़्म को गुनगुनाती हैं जिनमें कुछ तत्व हो. नय्यारा नूर को करीब से जानने वाले आसिफ़ नूरानी लिखते हैं कि उनकी हाज़िरजवाबी कमाल थी. साथ ही, वो लोगों की नकल करने में भी उस्ताद थीं. 

बहरहाल, चाहें वे स्टेज पर लाइव गा रहीं हों या फिर फिल्मों के लिए बतौर प्लेबैक सिंगर उनका काम, निजी जिंदगी में भी अपने बच्चों का पालन पोषण, पढ़ाई लिखाई और उन सब के बीच रियाज़, इन सब को बड़ी संज़ीदगी के साथ उन्होंने पूरी उम्र साधा. ये कहते हुए कि… कुछ और बेहतर करने की तलाश जारी है.

 

 

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