'दफन से पहले नब्ज जांच लेना साहब...कलाकार उम्दा है कहीं किरदार में न हो..' जहीन कालाकारों के बारे में अक्सर इस तरह के कसीदे पढ़े जाते रहे हैं. और कुछ ऐसे ही कलाकारों को गढ़ता है 'रंगमंच'. एक आर्टिस्ट कला की एबीसीडी थिएटर के स्टेज पर ही जाकर सीखता है. आज हम उन कलाकारों से बातचीत कर रहे हैं, जिन्होंने बेशक फिल्मों के जरिए दौलत शौहरत कमाई हो, लेकिन उन्हें सांस मिलती है, थिएटर के स्टेज पर परफॉर्म करके. इन एक्टर्स की जिंदगी में रंगमंच की अहमियत इस कदर है कि उन्हें फिल्में छूटने तक का मलाल नहीं होता है. 'वर्ल्ड थिएटर डे' के मौके पर पेश है ये खास रिपोर्ट.
झाड़ू-पोछा, चाय बांटना, सबकुछ किया थिएटर के लिए - पंकज त्रिपाठी
पंकज त्रिपाठी भले आज बॉलीवुड इंडस्ट्री के सबसे मशगूल एक्टर्स की कैटिगरी में आते हों, लेकिन थिएटर के प्रति उनके प्यार से हर कोई वाकिफ है. पंकज गाहे-बगाहे अपने इंटव्यूज में थिएटर से जुड़े कई किस्सों को शेयर कर चुके हैं. इनफैक्ट कपिल शर्मा के शो में पंकज ने एक छोटा सा म्यूजिकल एक्ट परफॉर्म कर सबका दिल जीत लिया था.
वर्ल्ड थिएटर डे पर जब हमने पंकज से जानना चाहा कि उनके लिए थिएटर के क्या मायने हैं? तो जवाब में पंकज कहते हैं, 'ये तो बहुत बड़ा सवाल है. मेरे जीवन में रंगमंच के यही मायने है कि अगर एक देहात का लड़का आज अभिनय को समझ पाया है और उससे कुछ सीख पाया है, तो इसका श्रेय उसी स्टेज को जाता है. अभिनय में खड़े कैसे हुआ जाता है, यह भी रंगमंच ने सीखाया है. मेरे लिए थिएटर सबकुछ है.'
बिहार में रहकर थिएटर की दुनिया से कैसे जुड़ाव हुआ?
इसके जवाब में पंकज कहते हैं, 'बिहार का थिएटर बहुत ही समृद्ध है, उसमें व्यवसायिकता तनिक भी नहीं है. पटना में हमलोग रंगमंच को बड़ी ही गंभीरता से किया करते थे. वहां केवल नाटक ही नहीं होते हैं, बल्कि कई नाटकों पर पांच-छ दिन का सेमिनार भी आयोजित किया जाता है. पटना में एक संग्राहलय है, जहां के शोज का मैं नियमित दर्शक था. रोजाना थिएटर देखते-देखते लगाव पैदा हुआ और लगा कि यार मुझे भी ये करना चाहिए. मैं इतना नियमित दर्शक बन गया था कि मेरे टिकट भी माफ हो गए थे. आयोजकों का कहना था कि हमें तुम्हारी तरह का दर्शक चाहिए. वहां के एक सुनील भाई ने मुझे एक ग्रुप से मिलवाया, मैं शुरुआत में उस ग्रुप के छोटे-मोटे काम किया करता था. कभी स्टेज पर झाड़ू मारना हो, या फिर चाय पिलाना हो, ये सबकुछ थिएटर के लिए किया. इस बीच जब कोई एक्टर नहीं आया, तो मुझे साइडर बनाकर खड़ा कर दिया जाता था. फिर मैं लाइन्स बोलने लगा.'
'अनुराधा कपूर ने मुझे एक प्ले में देखा था. उन्होंने मुझे पटना से बुलवाया और कहा कि आओ मेरे साथ काम करो. उनके नाटक के लिए हम टोक्यो थिएटर फेस्टिवल में पहुंचे थे. वो मेरी पहली कमाई और पहली विदेश यात्रा थी, मुझे 15 हजार मिले थे. एनएसडी से पहले मैं एक मैच्यॉर एक्टर हुआ करता था, कोई परंपरागत ट्रेनिंग नहीं मिली थी. वहां तीन साल की जबरदस्त ट्रेनिंग हुई.'
हिंदी थिएटर की फ्यूचर पर पंकज कहते हैं, 'हिंदी थिएटर व्यवसायिक नहीं है. जिस दिन थिएटर में करियर में बनने लग जाए, तो उस दिन थिएटर में बहुत सी दुकानें लगनी शुरू हो जाएंगी. आप मराठी, उड़ीसा, असम, गुजरात में जाकर देखें, यहां थिएटर प्रोफेशनल लेवल पर काम करती हैं. वहीं हिंदी थिएटर प्रोफेशनल न होकर एक्सपेरिमेंटल तक सीमित होकर रह गया है.'
अपने अंदर के थिएटर एक्टर को जिंदा रखने के लिए क्या करते हैं?
पंकज कहते हैं, मैं अब ज्यादा कुछ कर नहीं पाता हूं. जब समय मिलता है, तो थिएटर देख आता हूं या कुछ पढ़ लेता हूं. प्रसन्न जी मेरे टीचर हैं, उन्हें पिछले नवंबर ही मैंने मुंबई बुलवाकर एक नाटक किया था. मेरे साथ और पंद्रह एक्टर थे. हमने लंबी वर्कशॉप की. मैंने जो लाइव परफॉर्मेंस दी थी, उसे लगभग 6 से 7 साल हो गए हैं. आने वाले भावी एक्टर्स को मैं सजेस्ट करूंगा, कि आपके शहर में जो भी नाटक हो रहा है, उसे जाकर देखें.
थिएटर में ऐसा खोया कि परिवार पीछे छूटता चला गया: पीयूष मिश्रा
नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा से पढ़ाई करने के बाद एक्टर पीयूष मिश्रा ने अपनी जिंदगी का एक बड़ा दिल्ली के थिएटर्स में झोंक दिया था. पीयूष ने उन दिनों म्यूजिकल प्ले को काफी कूल बना दिया था. पीयूष कहते हैं, 'ड्रामा स्कूल के बाद मैं एक्टवन थिएटर ग्रुप से जुड़ा. एक्ट वन बड़ा ज्वलंतशील ग्रुप था, वो चिंगारी था. इस थिएटर से जुड़ने के बाद मेरे अंदर बहुत आग भर गई थी, खुद को क्रांतिकारी मानने लगा था. जब एक मिजाज के लोग मिलते हैं, तो चिंगारी आग बन ही जाती है. उस वक्त कम्यूनिज्म अपनी उफान पर था. मैंने भी खुद को झोंक लिया था. उस वक्त हम एक ऑडनरी पार्टी बन गए थे. हमने ड्यू के कॉलेजों के लिए बहुत काम किया था. हम इंकलाबी लोग कहीं भी बेफिक्री से निकल पड़ते थे. 1991 में पंजाब जब जल रहा था, हम वहां भी चल दिए. हमें तो पुलिस अधिकारियों ने कहा भी था कि आप लोगों पर हमला हो सकता है. हमें डर ही नहीं लगता था, कहीं भी चले जाया करते थे. उस वक्त फ्यूचर को लेकर दिमाग में कुछ नहीं था. हम सभी उस मोमंट में ही जी रहे थे. बहुत सारा काम किया था, प्ले 'वेस्टसाइड स्टोरी', 'फिलर ऑफ द रूफ' और कई म्यूजिकल प्ले भी बनाए. फिर मैं अस्मिता से जुड़ा, वहां खुद का तीन घंटे का प्ले किया करता था.'
'उस दौरान काम करते करते एहसास हुआ कि लेफ्ट में बहुत ही फेक लोग हैं. ये लोग लोअर कैडर के लोगों को कुत्ते की तरह काम कराते हैं. इनकी अपर कैडर तो काम करती ही नहीं थी. मुझे तो यह तक लगने लगा था कि ये सड़े हुए लोग हैं, मैं कहां इनके चक्करों में फंसा हुआ था. इनके चक्कर में पैरेंट्स, बीवी बच्चों तक को भूल गया था. बेशक हम समाज के लिए काम कर रहे थे, हमारा परिवार भी तो समाज के अंदर ही आता है न. इन्होंने कभी नहीं कहा कि परिवार पर ध्यान दो. बल्कि इन्हें तो ये कहने में गर्व होता था कि पीयूष मिश्रा घर तब जाता है, जब हम परमिशन देते हैं. उसका वक्त तो हमारा है. वो घर तब जाएगा, जब हम पैसे देंगे. बहुत ही बुरा व्यवहार किया था, उनकी असलियत जानकर मेरा तो मोह भंग हो गया था. मैं वहां से निकलकर बॉम्बे चला गया. इत्तेफाक की बात यह है कि जब मैं इनसे मूव ऑन हो रहा था, तो बॉम्बे से ऑफर आने लगे थे.'
थिएटर मेरे लिए जुनूनियत ही है, नशा है, देखो इससे कुछ हासिल तो होता नहीं है. हम लोगों के लिए यह एक किक है. मेरे ख्याल से ये अनासक्त कर्म का सबसे बड़ा उदाहरण है ये. ये ऐसा कर्म है, जिसमें आप इवॉल्व नहीं होते हैं बल्कि आपका परिवार छूटता है, दोस्त खिलाफ हो जाते हैं, पैसे नहीं मिलते हैं, खाने के लाले पड़ जाते हैं, सिक्यॉरिटी नहीं है, फिर भी इससे लगाव है. थिएटर ने कभी किसी को कुछ दिया नहीं है.
'उन्होंने पूछा नाटक से कितने पैसे मिलेंगे, मैंने कहा मिलेंगे नहीं, जेब से जाएंगे' - कुमुद मिश्रा
कुमुद मिश्रा थिएटर को अपने जीवन का अभिन्न हिस्सा मानते हैं. कुमुद के अनुसार स्कूल के दिनों से लेकर अभी तक वो लगातार रंगमंच से जुड़े हैं. फिल्म, ओटीटी और थिएटर तीनों में सक्रिए रहें कुमुद बताते हैं, 'मैंने थिएटर को अपना जीवन माना है, जाहिर सी बात थिएटर में काम करना मेरे लिए सर्वोपरि है. हालांकि इस बात से बिलकुल भी इनकार नहीं है कि सिनेमा,ओटीटी मुझे रोजी-रोटी देते हैं और इन्हीं की बदौलत मैं थिएटर कर पाता हूं. आज की तारीख में इनका मेरा थिएटर कर पाने में बहुत बड़ा हाथ है. हालांकि मेरा पहला प्यार थिएटर ही हमेशा रहेगा.'
एनएसडी के 1994 बैच के रहे कुमुद मिश्रा कहते हैं, 'ड्रामा स्कूल में गुजारे वो तीन साल को मैं कभी परिभाषित नहीं कर सकता हूं. मैं उस वक्त खुद की तलाश में रहा. उस संस्थान का सबसे बड़ा योगदान ही यही रहा कि हम जैसे लोग अपने अंदर की कमियां, अच्छाईयों को समझ पाए हैं. एक हैरानी की बात है, कि मुझे उन दिनों की कोई घटना याद ही नहीं है. आज भी जब कोई मित्र कॉलेज के उन दिनों की बातें मेरे बारे में बताते हैं, तो मैं सोचता हूं कि ऐसा तो कभी नहीं हुआ ही नहीं. मैंने ड्रामा स्कूल में आने से पहले जो नाटक किया था, उसका नाम रॉसमंदो था. जिसपर कविता नागपाल जी ने मेरे बारे में एक रिव्यू लिखा था. वो रिव्यू आज भी मैंने सहेजकर रखा है. हालांकि उसके बाद बहुत तारीफें मिलीं, बुराईयां भी बताई गईं लेकिन वो मेरे रिव्यू मेरे जेहन में कहीं बस गया था. जिस तरह से उन्होंने परफॉर्मेंस को लेकर बातें लिखी थी, तो एहसास हुआ कि कई बार आपकी परफॉर्मेंस को आपसे ज्यादा दर्शक समझ पाते हैं.'
'मुंबई आते ही एहसास हो गया, ये शहर मुझसे कभी छूटेगा नहीं'
कुमुद दिल्ली के थिएटर दिनों को याद कर कहते हैं, 'दिल्ली के तो आबो हवा में थिएटर्स है, वहां जगह-जगह नाटक हुआ करते थे. हम लोगों के लिए थिएटर आर्टिस्ट्स सिनेमा स्टार से भी बड़े हुआ करते थे. वो जब शो कर वापस लौटते थे, तो हम उनसे बात करने के लिए उत्साहित होते थे. एक अलग क्रेजीनेस हुआ करता था. मैं दिल्ली में नाटक कर बहुत खुश था, मैं मुंबई जाना ही नहीं चाहता था. मुझे इस शहर आना ही नहीं था. पता नहीं उस वक्त एक फिल्म के लिए मैं मुंबई आया, और आते ही एहसास हो गया कि अब ये शहर मुझसे कभी छूटेगा नहीं. कुछ ऐसा जादू था, इस शहर में, तो यहीं रुक गया. हालांकि मैं उस वक्त सिनेमा को समझ नहीं पा रहा था. मेरे अंदर अलग कौतूहल था क्योंकि सिनेमा तो करना ही नहीं था. मैं थिएटर पर ही फोकस करना चाहता था. रही बात रोजी-रोटी की, तो इतना समझ लिया था कि टेलिविजन से काम चल जाएगा.'
'हालांकि फिल्मों में आने के बाद नाटक करने का संघर्ष ज्यादा बढ़ा है. पहले जब नाटक करता था, तो ये सोचता भी नहीं था कि बैंक में कितना पैसा है. अब जब नाटक का सोचता हूं, तो जानता हूं कि नाटक एक कमिटेड समय मांगता है. उस समय जब नाटक को देता हूं, तो पता है कि सिनेमा नहीं कर सकता हूं. रिहर्सल में जाहिर है बहुत वक्त लग जाता है. हालांकि यह संघर्ष मेरा खुद का है. हर लड़ाई दिलों की नहीं होती है, कई बार आर्थिक स्तर पर भी चीजें आपको परेशान करती हैं. मैंने ज्यादातर वक्त नाटक को ही तवज्जों दिया है. इस बीच कोई फिल्म ऑफर होते थे, तो उसे मना करना पड़ता था. मैंने कितनी फिल्में नाटकों की वजह से छोड़ी है.'
'मुझे याद है बेंगलूर रगल में मेरा एक नाटक होना था, जिसके लिए मैं डेट्स कमिट कर चुका था. उसी बीच फिल्म का ऑफर आया था, तो मैंने उन्हें थिएटर शेड्यूल के बारे में बता दिया था. प्रोडक्शन वालों ने अश्योरिटी दी थी कि फिल्म उससे पहले ही खत्म हो जाएगी. पता नहीं क्या हुआ फिल्म खिसकते हुए उसी डेट पर जा पहुंची, जब मुझे बेंगलूूर जाना था. मुझे मना करना पड़ा, फिल्म वाले बेचारे सदमें में थे. उन्होंने पूछा कि तुम्हें कितना पैसा मिलेगा नाटक से, मैंने कहा मिलेगा नहीं, बल्कि मेरी जेब से जाएगा. उन्होंने ज्यादा पैसे ऑफर भी देते हुए कहा कि नाटक पोस्टपोन कर दें, मुझसे नहीं हो पाया और आखिरकार वो फिल्म हाथ से छूट गई.'
'यूथ से कहना चाहूंगा कि वे नाटक का सुख कभी टेलिविजन, मोबाइल, यू-ट्यूब पर नहीं भोग सकते हैं. मैं अपना ही नाटक डिजिटल पर देख ही नहीं सकता हूं. मैं मानता हूं कि ये माध्यम ही अलग है. ज्यादा से ज्यादा नाटक देखने की आदत डालनी चाहिए, नाटक पढ़नी चाहिए.'
'तुगलक प्ले ने बदली जिंदगी, शो के मिले थे पांच लाख रुपये' - यशपाल शर्मा
यशपाल शर्मा एक ऐसे एक्टर हैं, जिन्होंने थिएटर और बॉलीवुड, टीवी के बीच अच्छा बैलेंस बना लिया है. फिल्मों में लगातार सक्रिय होने के बावजूद आज भी यशपाल थिएटर शोज को पूरी कमिटमेंट के साथ निभाते हैं. थिएटर की शुरुआत में वे गुलजार साहब, नादिरा बब्बर और मकरंद देशपांडे जैसे लोगों संग भी जुड़े रहे. यशपाल कहते हैं, गुलजार, 'नादिरा बब्बर और मकरंद देशपांडे जैसे दिग्गजों संग काम करने को मैं अपनी जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि मानता हूं. मैंने गुलजार साहब से बात सीखी है, वो ये है कि सरल कैसे होते हैं. सरल और सहज होना आज के दौर में मुश्किल है.'
थिएटर को परिभाषित करते हुए यशपाल बताते हैं, 'मेरे लिए थिएटर एक्टिंग की सर्विसिंग करने जैसा है. मुझे थिएटर से कभी पैसे की उम्मीद रही ही नहीं, न ही मैंने कभी पैसे के लिए थिएटर किया है. मुझे गजब लेवल की संतुष्टि मिलती है. यकीन मानों, जब थिएटर के रिहर्सल चलते हैं, तो मैं तीन-चार महीनों में दुनिया को भूल जाता हूं. मैं फोन तक से खुद को दूर रखता हूं. खुद को झोंक कर काम करता हूं.'
'स्टेज पर जो गलतियां हो जाती हैं, तो मैं खुद को माफ नहीं कर पाता हूं'
'मैंने थिएटर के शुरुआती दौर में बहुत सी गलतियां करी है. एनएसडी के दिनों तो बहुत सारे ब्लंडर्स किए हैं. मुझे याद है 'दूसरा अध्याय' नाम का एक नाटक था, जिसे रामगोपाल बजाज जी ने डायरेक्ट किया था. मैं और प्रतीक गांधी दो ही कैरेक्टर थे. उसकी रिहर्सल भी हमने जमकर की थी. हालांकि मैं इस बीच बीमार भी पड़ गया था. शो वाले दिन स्टेज पर अचानक से ब्लैंक पड़ गया, लाइन्स भूल गया था. हालांकि जो 30 सेकेंड मुझे उसे संभालने में लगे, वो जिंदगीभर याद रहेंगे. मेरे साथ ऐसा है कि स्टेज पर जो गलतियां हो जाती हैं, तो मैं खुद को माफ नहीं कर पाता हूं. उस दिन तो मुझे रातभर नींद नहीं आई और खाना भी ढंग से खा नहीं पाया था. मैंने खुद को डांटा था, कहा कि ये कोई बाहना नहीं चलेगा. उस गलती को मैं जिंदगी का सबसे बड़ा भूल मानता हूं.'
यशपाल अपने पसंदीदा थिएटर के बारे में कहते हैं, 'डायरेक्टर ने मुझे अंधा युग के लिए अश्वाथामा के रोल का ऑफर दिया था, मैंने उसे मना कर दिया था. फिर उन्होंने मुझे तुगलक ऑफर की. मैंने इसे भी यह कह कर मना किया कि मैं कैसे ये रोल कर पाऊंगा, कहां से मैं तुगलक वाली पर्सनैलिटी लाऊंगा. जग हसाई न हो जाए.'
उन्होंने कहा कि अरे भाई तुमको हम करवाएंगे, तुम चिंता मत करो. फिर मैंने कहा कि चलो मैं कल सुबह आपको बताता हूं. मैं घर आया, चारों तरफ तुगलक नाटक की स्क्रिप्ट ढूंढी. चारों तरफ से निराश होकर मैं सोफे पर बैठ गया. उस सोफे पर बैठते हुए जेहन में आया कि इसके अंदर भी तो कुछ किताबें हैं. मैंने वो सोफा को खोलकर देखा, तो पहले ही छोर में तुगलक की जुड़ी चार किताबें मुझे दिखीं. मैं रातभर में उन नाटकों को पढ़ गया. अंदर एक अलग सा चैलेंज नजर आया, जैसे ही वो किताब खत्म हुई मैंने देर रात 3 बजे के करीब उन्हें कॉल किया उन्होंने नहीं उठाया. फिर मैसेज छोड़ते हुए मैंने लिखा कि मैं यह किरदार कर रहा हूं. फिर उसके बाद पीछे मुड़कर नहीं देखा. मैंने उस किरदार में खुद को झौंक दिया. बहुत बड़ा प्रॉडक्शन था, चार करोड़ का बजट था. तुगलक किले में ही उसका भव्य स्टेज बनाया गया. यह मेरा लाइफटाइम अचीवमेंट रहा, ये मेरा ड्रीम रोल था. ओमशिवपूरी और मनोहर सिंह जैसे लेवल पर मैंने ही उस नाटक को किया, जिसका मुझे गर्व है. मुझे उस किरदार के लिए भी अच्छे पैसे मिले थे, मुझे 5 लाख रुपये के करीब फीस मिली थी.