निर्देशक डेविड धवन को कॉमेडी फिल्में बनाने में महारत हासिल है ये बात किसी से नहीं छुपी है लेकिन 6 अक्टूबर 2011 को प्रदर्शित हुई 'रॉस्कल' फिल्म में एक ही तरह के ऊबाउ कॉमेडी को दर्शकों ने नकार दिया.
30 सितंबर 2011 को प्रदर्शित हुई तिंग्माशू धूलिया की फिल्म 'साहब, बीवी और गैंगस्टर' अपने हॉट दृश्यों के चलते काफी चर्चा का विषय बनीं, जिसका फायदा फिल्म की ओपनिंग को मिली. फिल्म का विषय पुराना होने के बावजूद तिंग्माशू धूलिया ने अच्छी कोशिश की.
आरक्षण एक ऐसा मुद्दा है जिस पर हर उम्र और वर्ग के लोगों के पास अपने-अपने तर्क हैं. वर्षों से इस पर अंतहीन बहस चली आ रही है. इसी मुद्दे को निर्देशक प्रकाश झा ने 12 अगस्त 2011 को प्रदर्शित हुई अपनी फिल्म 'आरक्षण' के जरिये भुनाने की कोशिश की. सबसे पहले तो उन्होंने फिल्म का नाम ही आरक्षण रखा, जिसकी वजह से यह पिछले कुछ माहों से लगातार चर्चा में रही.
बैचलर पार्टी, रोड ट्रिप, एडवेंचर स्पोर्ट्स, स्कूल-कॉलेज के दोस्तों के साथ गप्पे हांकना ऐसी बाते हैं जो हर उम्र और वर्ग के लोगों को पसंद आती है. कुछ उस दौर से गुजर रहे होते हैं और कुछ को बीते दिन याद आ जाते हैं. इसी को आधार बनाकर 15 जुलाई 2011 को प्रदर्शित हुई जोया अख्तर ने ‘जिंदगी ना मिलेगी दोबारा’ बनाई लेकिन यह फिल्म दर्शकों को सिनेमाघरों तक खींचने में नाकामयाब रही.
1 जुलाई 2011 को प्रदर्शित हुई फिल्म 'बुढ्डा होगा तेरा बाप' में अमिताभ बच्चन ने अपनी ही छवि को ढली उम्र में भी चुस्ती के साथ निभाया. भारतीय सिनेमा में और कोई अभिनेता 68 की उम्र में कमर्शियल फिल्मों के घिसे-पिटे फार्मूले में इस कदर तल्लीन नहीं दिखता. यह फिल्म वैसे तो बाक्स आफिस पर पिट गई लेकिन इस फिल्म में अमिताभ के अभिनय की काफी तारीफ की गई.
फिल्म के नाम में ही डबल जोड़ लेने से सब कुछ डबल नहीं हो जाता है, इसकी मिसाल है 24 जून 2011 को प्रदर्शित हुई ‘डबल धमाल’. यह सिंगल ‘धमाल’ जैसा मजा नहीं देती है. ऊँटपटाँग, मूर्खतापूर्ण हरकतें ‘धमाल’ में भी थी, लेकिन उनको देख हँसी आती थी. ‘डबल धमाल’ में भी ऐसी हरकतें हैं, लेकिन यहाँ ज्यादातर वक्त हँसने के बजाय चुपचाप बैठे रहने में गुजर जाता है। कलाकार चीखते हैं, चिल्लाते हैं, लेकिन उनकी हँसाने की कोशिश साफ नजर आती हैं.
इंसानी फितरत के कारण हमारी निर्देशक सागर बेल्लारी से उम्मीदें बहुत ज्यादा बढ गई थीं. वजह थी चार साल पहले आई उनकी निर्देशकीय क्षमता में निकली पहली फीचर फिल्म भेजा फ्राई जिसने अपने सहज हास्यजनक परिस्थितियों के कारण दर्शकों को गुदगुदाया था. 17 जून 2011 को प्रदर्शित हुई सागर बेल्लारी की 'भेजा फ्राई-2' दर्शकों को प्रभावित करने में कामयाब नहीं हो पाई. इसकी वजह रही कमजोर और ढीली पटकथा, फिल्म के दृश्यों का लम्बा और ऊबाउ होना.
कहानी पर गौर किया जाए तो 13 मई 2011 को प्रदर्शित हुई 'रागिनी एमएमएस' रामसे ब्रदर्स की सी-ग्रेड फिल्मों की तरह लगती थी. उनकी फिल्मों में भी वीकेंड मनाने के लिए सुनसान हवेलियों को चुना जाता था और फिर हवेली के भूत और चुड़ैल प्यार करने वालों को परेशान करते थे लेकिन रागिनी एमएमएस में इस कहानी का प्रस्तुतिकरण तकनीकी रूप से बहुत सशक्त था. शॉट टेकिंग, एडिटिंग, बैकग्राउंड म्यूजिक और चरित्र ऐसे जो आम जिंदगी से उठाए गए हो इस फिल्म को रामसे ब्रदर्स की फिल्मों से अलग करते थें. कुलमिलाकर एक साधारण कहानी की अच्छी तरह पैकेजिंग की गई थी.
हॉरर फिल्म को यदि थ्री-डी तकनीक का सहारा मिल जाए तो डर पैदा करने वाले दृश्यों का असर और गहरा हो जाता है. 6 मई 2011 को प्रदर्शित हुई ‘हॉन्टेड’ देखते समय यह बात महसूस होती है, लेकिन डरना तब और अच्छा लगता है जब कहानी और स्क्रीनप्ले में दम हो. हॉरर फिल्मों की कहानी वैसे भी काल्पनिक होती हैं. भूत-प्रेत और आत्मा पर सभी भरोसा नहीं करते हैं लेकिन कल्पना में दम हो तो यकीन ना होने के बावजूद मजा आता है.
29 अप्रैल 2011 को प्रदर्शित हुई 'चलो दिल्ली' एक रोड मूवी थी. एक ऐसी यात्रा है जिसके दो यात्री सोच, विचार, पहनावे और पेशे से बिलकुल विपरीत थे. इस फिल्म में लारा दत्ता और विनय पाठक की जोड़ी को दर्शकों ने एक सिरे से खारिज कर दिया.
रोहन सिप्पी ने उस दौर की कहानी को चुना है जब उनके पिता रमेश सिप्पी फिल्में बनाया करते थे. उस जमाने में हर दूसरी-तीसरी फिल्म में चोर-पुलिस की लुकाछिपी चला करती थी. 22 अप्रैल 2011 को प्रदर्शित हुई फिल्म 'दम मारो दम' में भी चोर-पुलिस हैं और पृष्ठभूमि में गोवा, जहाँ इन दिनों ड्रग्स माफियाओं ने अपने पैर पसार लिए हैं. गोवा को इसलिए चुना गया है ताकि रियलिटी का आभास हो.
8 अप्रैल 2011 को प्रदर्शित हुई निर्देशक अनीस बज्मी की फिल्म ‘थैंक्यू’ में तीन बीवियां मिलकर एक जासूस की सेवाएं लेती हैं, ताकि अपने धोखेबाज पतियों की करतूतों का खुलासा कर सकें. इस फिल्म को दर्शकों ने एक सिरे से खारिज कर दिया.
थ्रिलर और मर्डर मिस्ट्री फिल्म बनाना हर किसी के बस की बात नहीं है. राज खुलने तक दर्शक को बाँधकर रखना और कातिल के चेहरे से परदा हटने के बाद दर्शक को संतुष्ट करना कठिन काम है क्योंकि सभी को अपने प्रश्नों का ठोस उत्तर चाहिए. इसके लिए कसी हुई स्क्रिप्ट और चुस्त निर्देशन की आवश्यकता होती है. 1 अप्रैल 2011 को प्रदर्शित हुई ‘गेम’ इन कसौटियों पर खरी नहीं उतरती और एक उबाऊ फिल्म के रूप में सामने आई.
हॉलीवुड फिल्म ‘एक्सेप्टेड’ और बॉलीवुड फिल्म ‘3 इडियट्स’ से प्रेरणा लेकर ‘फालतू’ बनाई गई. 1 अप्रैल 2011 को प्रदर्शित हुई इस फिल्म के निर्देशक रैमो डिसूजा का कहना था कि इसकी कहानी उनके जीवन से प्रेरित है क्योंकि कम नंबर लाने के कारण कॉलेज लाइफ में उन्हें फालतू किस्म का इंसान माना जाता था.
11 फरवरी 2011 को प्रदर्शित हुई निर्देशक निखिल आडवाणी की फिल्म 'पटियाला हाउस' एक ऐसी कहानी पर बनी फिल्म थी, जिस पर यकीन करना मुश्किल था. स्क्रीनप्ले कुछ इस तरह लिखा गया कि फिल्म पूरी तरह से बाँधकर नहीं रख पाई. निश्चित रूप से फिल्म में कुछ ‘टचिंग मोमेंट्स’ थें, कुछ बेहतरीन दृश्य थें, लेकिन ठोस कहानी के अभाव में ये असरदायक साबित नहीं हो पई.
18 फरवरी 2011 को प्रदर्शित हुई विशाल भारद्वाज की फिल्म ‘सात खून माफ’ रस्किन बांड द्वारा लिखी कहानी ‘सुजैन्स सेवन हस्बैंड्स’ पर आधारित थी. इस फिल्म में प्रियंका चोपड़ा (सुजैन) सात शादियाँ करती हैं और अपने आधा दर्जन पतियों को मौत के घाट उतार देती है.
21 जनवरी 2011 को प्रदर्शित हुई फिल्म 'धोबीघाट' हिट रही या फ्लॉप इस बारे में निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता पर मुख्या धारा के मनोरंजन प्रेमी दर्शको को ये निराश अवश्य कर गई. एक कलात्मक फिल्म की तरह शुरू होती है. दर्शको की भावनाओं के साथ खिलवाड़ करती है और अंत मे उसे साहित्य की कल्पनापरक गलियों के अंत की तरह धुखांत-सुखांत के भंवर में डालकर समाप्त हो जाती है.
मधुर भंडारकर मुद्दों पर फिल्में बनाते रहे हैं. चांदनी बार से लेकर जेल तक उन्होंने ज्वलंत विषयों को चुना और उन पर सराहनीय फिल्में बनाईं. 28 जनवरी 2011 को प्रदर्शित हुई फिल्म 'दिल तो बच्चा है जी' में उन्होंने मुंबई शहर के तीन युवकों के प्रेम की तलाश को हल्के-फुल्के अंदाज में पेश किया.
'नाम बड़े और दर्शन छोटे' एक बार फिर ये कहावत साबित हो गई 14 जनवरी 2011 को प्रदर्शित हुई फिल्म 'यमला पगला दीवाना' के बहाने. धर्मेंद्र, सनी और बॉबी देओल को लग रहा था कि उन तीनों की तिकड़ी कुछ कमाल कर जाएगी और ऐसा ही कुछ देओल फेन्स को भी लग रहा था लेकिन उन्हें फिल्म से निराशा हुई.