पिछले करीब 25 साल में हिंदी फिल्मों का मिजाज तेजी से बदला है. यथार्थ के और करीब आई हैं वे. रूमानी और म्युजिकल फिल्मों का लोगों ने मजा तो लिया लेकिन किरदार और कलाकार वही याद रहे जो हांड़-मांस के बने, जज्बाती और सच के करीब थे.
नजर डालते हैं 25 साल में सिनेमा के पांच क्षेत्रों के कुछ अहम नामों पर. पहले पांच किरदार.
ऑरो (पा) 2009
कुशाग्र और करुण
ऑरो जिस तरह की दुर्लभ प्रोजेरिया बीमारी का शिकार है, उसी तरह से वह खुद भी हिंदी सिनेमा का एक विरला, हजारों में एक किस्म का कैरेक्टर है. 12 की उम्र में 80 का शरीर, वह भी विकृत और नितांत नाजुक.
पर उसकी बुद्धिमानी, जिंदादिली और हास्यबोध देखिए. कंप्यूटर पर पढ़ते वक्त मदद की पेशकश पर प्रसूतिरोग विशेषज्ञ मां को जवाब क्या देता है? ''यहां कोई बच्चा नहीं पैदा हो रहा है. हाउ कैन यू हेल्प?'' राष्ट्रपति भवन के सामने से, उसे देखे बिना ही तेजी से लौटता है. क्यों? ''अर्जेंटली पॉट्टी करना था और मैं रोक नहीं सकता था.'' आर. बाल्की ने गहरी मानवीय संवेदना के साथ, हास्यबोध में डूबा यह करुण किरदार खड़ा किया है, जो हमें अनायास अपने साथ ले लेता है.
लंगड़ा त्यागी (ओंकारा) 2006
क्लासिक त्रासदी का कल्पनाशील किरदार
ओथेलो के काले किरदार इयागो का यह भदेस भारतीय संस्करण हद दर्जे के हरामीपन और नीचता के साथ खलनायकी का नया मुहावरा गढ़ता है.
दारू-जर्दे का शौकीन, खूंटी-से बाल और गालियों से सनी जबान. शेक्सपियर के टेक्स्ट के सिनेमाई रूपांतरण के उस्ताद विशाल भारद्वाज ने क्लासिक त्रासदी के इस किरदार को हद दर्जे की कल्पनाशीलता से नितांत अपना-सा बना डाला.
बाबू भाई (हेराफेरी)
2000 देवा रे देवा
जेब वाली बंडी और धोती पहने, मोटा चश्मा लगाए बाबूभाई (परेश रावल) ने हमें किराये के लिए चिकचिक करते अपने ही मुहल्ले के खांटी मकान मालिकों की याद दिला दी.
निम्न मध्यवर्ग का, लालची लेकिन मजाकिया. हृषीकेश मुखर्जी और गुलजार की फिल्मों की याद दिलाता एक नितांत यथार्थवादी चरित्र.
भीखू म्हात्रे (सत्या) 1998
आईना निकला वक्ता का
''मुंबई का किंग कौन? भीखू म्हात्रे'' समंदर के किनारे पहाड़ी पर खड़े हो अकेले ही भीखू हिंदी फिल्मों के नए दौर का एंग्री यंगमैन था.
अभी गुस्से से बिलबिलाता, अगले ही पल हसंता, मनोविकृत गैंगस्टर, युवाओं के एक बड़े तबकों को उसमें अपना चेहरा दिखा. मनोज वाजपेई ने कलेजा काट कर उड़ेल दिया रह रोल में.
मुन्ना (मुन्नाभाई एमबीबीएस) 2003
बोले तो मसीहा-सा
मुन्नाभाई (संजय दत्त) ने जादू की झप्पी देकर न सिर्फ फिल्म के तमाम किरदारों के दिलों को हल्का किया बल्कि हिंदी सिनेमा के दर्शकों को बहुत बड़ी राहत दी. बोले तो, तनाव में जूझते-भागते लोगों के लिए मुफ्त की क्रोसीन.
मुन्नाभाई को राजकुमार हीरानी ने मानो आज के सामाजिक परिवेश के व्यापक अध्ययन के बाद गढ़ा हो. हर जगह डांट और चोट खाने वालों को गले लगा, प्यार कर दिल जीतने वाला एक जीते-जागते मसीहा जैसा. तभी तो वह गंभीर शोध का विषय बना.
अमिताभ बच्चन
मीलों आगे
विजय दीनानाथ चौहान (अग्निपथ, 1990) के रूप में बोले उनके लंबे-लंबे डायलाग लोग अब भी उन्हीं के सामने भावुक लहजे में दोहराते पाए गए हैं.
ब्लैक (2005) के टीचर देवराज सहाय को उनका अब तक का अव्वल अभिनय बताते हुए जब तक लोग बहस करें, वे छात्र ऑरो के किरदार में (पा, 2009) पीठ पर बैग लाद आ पहुंचते हैं. अभिनय का जम कर मजा लेने के उनके नजरिए की वजह से ही वे आज भी बाकियों से मीलों आगे.
अक्षय कुमार
टाइमिंग का खिलाड़ी
हिंदुस्तान में राष्ट्रमंडल खेलों से बहुत पहले ही हिंदी सिनेमा में उन्हें खिलाड़ियों के खिलाड़ी का मेडल मिल चुका था.
अक्ष्य हे हे हे ब्रांड कॉमिक किरदारों में अपनी टाइमिंग की वजह से वे पिछले 20 साल से हंसी का इंस्टैंट मसाला बने हुए हैं.
शाहरुख ख़ान
एक काम और बारह महीने
कुछ-कुछ तो दर्शकों को तभी होने लगा था जब बड़े-बड़े शहरों की छोटी-छोटी बातें ड्रामाई अंदाज में करते हुए वे दुल्हनिया जीत ले गए. वक्त बदला, वे भी. वैज्ञानिक मोहन भार्गव (स्वदेस) के रूप में वापसी कर गांव में बांध बनवाया और हॉकी की टीम खड़ी की (चक दे इंडिया).
साल में सिर्फ एक सशक्त फिल्म, 12 महीने चर्चा में रहने को काफी.
आमिर खान
एक खोज लगातार
सिनेमा के टिकट ब्लैक करते हुए आगे बढ़े रंगीला (1995) के इस मुन्ना को देखने के लिए चारों ओर मल्टीप्लेक्स के आज के दौर में भी टिकट ब्लैक में लेना पड़ा. खंडाला में घूमने-फिरने के बाद (गुलाम, 1998) उन्होंने भगत सिंह (रंग दे बसंती) का चोला पहना.
डिस्लेक्सिया के शिकार बच्चों को गणित पढ़ाया (तारे .जमीं पर) और प्रैक्टिकल करने निकल पड़े (3 इडियट्स). दिल से कहानियां कहने वाला अनूठा किस्सागो अभिनेता.
सलमान खान
वांटेड भी, दबंग भी
परदे के पीछे के अपने 'ऐक्शन' की वजह से खासा चर्चा में रहा यह खान मुख्य धारा में ऐक्शन का झंडाबरदार बना रहा.
सलमान ने प्यार भी किया और गाना भी गाया लेकिन दर्शकों का हीमोग्लोबिन तो तभी बढ़ा जब वे नंगे बदन हवा में लहराए और खलनायकों को नहला-धुलाकर केले की तरह छीलना शुरू किया. वे दबंग हैं और वांटेड भी.
ऐश्वर्य राय
ताजगी बरकरार
रूप, नृत्य और अभिनय का ऐश्वर्य समेटे वे पिछले डेढ़ दशक से हौले-हौले चलती आई हैं. वे ही थीं जिन्होंने कशिश भरी अदा से नाखून कुतरते हुए अमिताभ बच्चन को ''ये हैंडसम'' कहकर बुलाया और कलेजा चाकू की नोंक पर रख दिया.
कातिलाना नोकझेंक में उनकी अदा देखी? ''या तो आ जाइए या गला काट दीजिए.'' बंटी और बबली में कजरारे का यह अकेला दृश्य वक्त के एक बड़े प्लेटफॉर्म पर उनके ऐश्वर्य का झंडा गाड़ने के लिए काफी है. फिर भी अंदेशा हो तो रेनकोट और चोखेर बाली के अंडरटोन किरदारों में अभिनय का उनका सलीका देखा जा सकता है.
करीना कपूर
एक नई रूमानियत
गुड़ की डली-सी, ग्लैमरस-गुलाबी बेबो ने अभी मील का कोई बड़ा पत्थर नहीं गाड़ा हो लेकिन पिछले डेढ़ेक दशक में वे हिंदी सिनेमा की रोमांटिक रूह बनती गई हैं. ना.जनीन (रिफ्य़ू.जी), चमेली (चमेली), डॉली (ओमकारा), गुड़िया (टशन) और गीत (जब वी मेट) जैसे किरदार उनकी बे.फिक्री और संजीदगी को भी स्थापित करते हैं.
ग्लैमर और मॉडर्न मिजाज में माधुरी और .जीनत जैसे तेवरों के बावजूद वे एक नया रूमान गढ़ती हैं. उनकी एक-एक अदा पर लाखों फिदा.
काजोल
एक टपकता एहसास
सिमरन ('दिलवाले दुल्हनियां ले जाएंगे', 1995) और अंजलि ('कुछ कुछ होता है', 1998) को उन्होंने ही इंस्टिंक्ट अभिनय के करिश्मे से यादगार बनाया. शादी के बाद 'फना' (2006) में मोहब्बत का टपकता एहसास लेकर लौटीं.
'माइ नेम इज खाऩ' में कमजोर किरदार को भी ठोस शक्ल दी. ऊर्जा से भरा अभिनय का नाम बना काजोल.
माधुरी दीक्षित
धक-धक ने मार डाला
वे एक दो तीन के साथ जनता के बीच दाखिल हुईं (ते.जाब, 1988), धक-धक (बेटा, 1992) हुई और खलास. मार डाला (देवदास, 2002). बीती सदी के आखिरी दो दशकों के दर्शक सांसों की माला में निस दिन उनका नाम जपते हुए बड़े हुए.
म्युजिकल ड्रामा 'आजा नचले' (2008) पिटने के बाद भी उनकी तस्वीर धुंधली नहीं पड़ी है.
विद्या बालन
ज़ालिम हसीना
परिणीता (2006) की पतिव्रता लोलिता ने इश्किया (2010) की विवाहिता कृष्णा होते हुए भी आवारा ठग बब्बन को मुंह भर चूसा, बिना किसी अपराध बोध के. परंपराओं में बंधी, पिटती अर्धांगिनी अपने नए अवतार में लाल साड़ी और पतले स्ट्रैप के ब्लाउज पहन, दुनाली लेकर ''चूतियम सल्फेटों'' को चुटकी काटने पहुंच जाती है.
आत्मविश्वास की प्रतिमूर्ति ऑरो (पा) की मां विद्या अपने चुनिंदा किरदारों के बूते आज के दौर की सबसे साहसी, सेक्सी और भावप्रवण अभिनेत्री बनकर उभरती हैं. उमा थुरमन (पल्प फिक्शन) और मधुबाला का साझा अवतार. उन पर चर्चा यानी अभिनय और अभिनेत्री के साहस पर चर्चा.
शांतनु मोइत्रा
धीरे-धीरे घुलती धुन
विज्ञापन के रूप में करीब 2,000 जिंगल्स बनाने वाले दिल्ली के इस संगीतकार ने बाद में मुंबई की राह पकड़ी. लोक रुझान वाली मेलोडी उनकी पहचान बनी. परिणीता का पि बोले हो या एलबम अब के सावन.
उनके संगीत में एक सुघड़ सौंदर्यबोध है. उन्होंने चुनिंदा फिल्में ही कीं क्योंकि वे मेलोडी को धीरे-धीरे पका कर पेश करने में यकीन रखते हैं.
विशाल भारद्वाज
संगत में चढ़ा सुर
शायर के घर में पैदा होने की वजह से कविता और संगीत उनके खून में था. बाद में वे गीतकार गुलजार की संगत में आ गए, जिन्होंने सबसे पहले माचिस फिल्म में उन्हें मौका दिया.
इसकी धुनों के लिए उन्हें 1996 में फिल्मफेयर अवार्ड भी मिला. उसके बाद से वे सत्या, चाची 420, म.कबूल और ओमकारा जैसी फिल्मों के लिए धुनें तैयार कर चुके हैं.
शंकर-एहसान-लॉय
तीन तिलंगे
इस तिकड़ी के संगीत में एक ताजगी है. शायद इसीलिए उन्हें एक के बाद एक अवार्ड मिलते आए हैं. वे तकनीकी महारत वाली नई पीढ़ी के प्रतिनिधि हैं जो संगीत उद्योग में अपने हिसाब से नियम बना रहे हैं. तीनों के अलग-अलग मि.जाज का होने के बावजूद रचनात्मकता की उनकी ललक और खास किस्म के उनके व्यक्तित्व उन्हें आपस में जोड़ते हैं.
लॉय मेंडोंसा कहते हैं, ''कुछ नया और उत्तेजक रचने के लिए हम लगातार अपना दिमाग खखोरते रहते हैं.'' वे हर बार कुछ अह्ढत्याशित निकालकर ले आते हैं. यही तो वह चीज है, जिसकी वजह से श्रोता उनसे लगातार बड़ी उम्मीदें लगाए रहते हैं.
इस्माइल दरबार
क्लासिक लगातार
जब किसी ने लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल, कल्याणजी-आनंदजी, बप्पी लहरी, राजेश रोशन, जतिन-ललित आदि के साथ वायलिन बजाया हो तो संगीत तो उसकी हर सांस में होगा. उनकी पहली ही फिल्म 'हम दिल दे चुके सनम' अब एक क्लासिक मानी जाती है.
उनके संगीत की जड़ें शुद्ध शास्त्रीय और लोक संगीत, दोनों में समाई हैं. 'देवदास' के सभी नौ गाने क्लासिक हैं. गायिका कविता कृष्णमूर्ति कहती हैं: ''गायकों से बेहतरीन काम करवा लेना उन्हें आता है.''
ए.आर. रहमान
जय-जय बार-बार
जय हो की धुन उनकी सफलता का जयगान बन गई है. यही तो रहमान का जादू है. रोजा से शुरू करने के बाद तमाम प्रयोग करते हुए वे एक नई आवाज तक पहुंचे हैं, जिसे रहमानियत कहा जा सकता है. नई आवाजों में कई गायक भी हैं, जो अपनी खुद की खोज के लिए उनके शुक्रगुजार रहेंगे. वे चाहे कैलाश खेर हों या फिर मधुश्री. उन पर लोक संगीत, विश्व संगीत सबका प्रभाव है.
यहां तक कि जंगल में पत्तों की खड़-खड़ से भी वे धुन ले लेते हैं. हिंदुस्तानी सिनेमा के संगीत को उन्होंने दुनिया के नक्शे पर प्रतिष्ठापित किया है. वे मौलिकता में उनका कोई मुकाबला नहीं.
उदित नारायण
बड़ा नाम कर दिया
उदित नारायण पैदा हुए थे नेपाल के छोटे-से गांव भरदाह में. संघर्षों के दौर से गुजरते हुए उन्होंने कॅरिअर की शुरुआत नेपाल रेडियो से की. सत्तर के दशक में वे मैथिली, नेपाली और भोजपुरी गाने गाते थे. उन्हें बड़ा ब्रेक 1988 में मिला, जब उन्होंने 'कयामत से कयामत तक' फिल्म का गाना 'पापा कहते हैं' गाया.
उदित नारायण ने एक हद तक मुहम्मद रफी और किशोर कुमार की भरपाई की. अपनी ताजगी भरी आवाज और उसे किरदार के मुताबिक ढालने की काबिलियत ने उन्हें नं.-1 बनाया. वे शाहरुख और सलमान की आवाज बने.
श्रेया घोषाल
जादू की पुड़िया
एटमी वैज्ञानिक की बेटी घोषाल मां की प्रेरणा से संगीत की दुनिया में आईं. जी टीवी के लोकप्रिय कार्यक्रम 'सारेगामा' के बच्चों के विशेष कार्यक्रम में 11 साल की उम्र में हिस्सा लिया.
वे कोटा से मुंबई गईं. उनकी लगन और प्रतिभा देखकर कल्याणजी-आनंदजी ने खुद उन्हें सिखाने की इच्छा जताई. उसके बाद से वे पीछे नहीं मुड़ीं. 'जिस्म' से लेकर 'देवदास' तक के उनके गाने दिलोदिमाग पर असर छोड़ते हुए गुजरते हैं.
अलका याज्ञिक
लोच का कमाल
लावारिस के 'मेरे अंगने में' से कॅरिअर शुरू करने वालीं अलका 'एक दो तीन' के साथ दौड़ पड़ीं. फिर तो वे तेजी से सफलता की सीढ़ियां चढ़ने लगीं. लता मंगेशकर और आशा भोंसले चुनिंदा गाने गाने लगीं तो खाली जगह को अलका ने भरा.
वे करीब दो दशक पहले मुंबई आई थीं और उसके बाद से फिल्म उद्योग का अटूट अंग बन चुकी हैं. किसी भी अभिनेत्री के ऊपर उनकी आवाज आसानी से बैठ जाती है. यही वजह है कि आज भी उनकी मांग बनी हुई है.
सोनू निगम
मौलिकता का मौला
शुरू में उन्हें मुहम्मद रफी की याद दिलाने वाला माना गया लेकिन धीरे-धीरे उन्होंने अपनी एक शैली ईजाद कर ली. एक दौर था जब अपने हर गाने में वे कलेजा निचोड़ डालते थे लेकिन अब उनके हर गाने पर उनकी मुहर लगी होती है.
चाहे उनके युगल गीत हों या फिर निजी एलबम, वे हमेशा मौलिकता को कायम रखने की कोशिश करते हैं. उन्होंने शास्त्रीय संगीत भी सीखा जिससे उन्हें गायकी में मदद भी मिली. म्युजिक रियलिटी शो के एंकर से शुरू कर पार्श्वगायन तक उन्होंने एक लंबा सफर तय किया.
सुनिधि चौहान
मस्ती और मादकता
वे पिछली पीढ़ी की बहुआयामी गायिका आशा भोंसले का आधुनिक संस्करण हैं. 'मेरी आवाज सुनो' नाम के शो की वे विजेता बनीं. इसके बाद पहली दफा 'शास्त्र' फिल्म में काम मिला. हालांकि नोटिस में लाने के लिहाज से उनकी पहली फिल्म थी रामगोपाल वर्मा की 'मस्त'.
उनकी आवाज मादक गीतों और पाश्चात्य मिजाज वाले गानों के लिए एकदम फिट बैठती है. मसलन, फिल्म 'परिणीता' का क्लब सांग 'कैसी पहेली जिंदगानी'. उनका गला बड़ा ही दमदार है, जिससे यह साफ लगता है कि वे दूर तक जाने वाली हैं.