गब्बर सिंह से लेकर पान सिंह तक बॉलीवुड में चला है डाकुओं का दबदबा. बीहड़ का पानसिंह बॉलीवुड में धमाका कर रहा है. पड़े पर्दे पर डाकू पान सिंह ने ऐसा असर दिखाया कि अब बॉलीवुड में उसके नाम की गूंज दूर दूर तक सुनाई दे रही है.
एक डाकू जो कभी देश की शान था. एक डाकू जो कभी देश की धरोहर था. एक डाकू जिसका नाम आज भी बड़े शान से लिया जाता है. वो कभी किसी पब्लिसिटी का मोहताज नहीं था. बल्कि बड़ी हस्तियां अपनी जबां पर उसका नाम आज भी नाम सजाए घूमती हैं.
अमिताभ बच्चन- फिल्म पान सिंह तोमर श्रद्दांजलि है उन तमाम खिलाड़ियों को जिनका हक ये देश उन्हें कभी नहीं दे पाया.
शाहिद कपूर- साल की अब तक की सबसे बेहतरीन फिल्म.
अनुराग कश्यप- पान सिंह तोमर 29 फरवरी की तरह है, बहुत सालों में जो एक बार आए. .पावरफुल फिल्म, पावरफुल किरदार, जाकर फिल्म देखिए सब कुछ अविश्वसनीय है.
1981 में पुलिस मुठभेड़ में मारा गया पान सिंह आज हिंदी सिनेमा के परदे पर एक नायक की तरह जिंदा हो गया है.
परदे पर डाकू का खौफ क्या होता है. जिसने भी मुकेश तिवारी को जगीरा के तौर पर देखा सिहर उठा.
ये हिंदी सिनेमा के वो डाकू है जिनके नाम से आज भी गांव में जब बच्चा रोता है तो मां कहती है बेटा सो जा नहीं तो गब्बर आ जाएगा.... शायद यही वजह है कि इन चालीस सालों में कई बार सिनेमा देखनेवाले दर्शक बदले होंगे . दर्शकों का मिजाज बदला होगा. लेकिन गब्बर. कालिया और सांभा के दीवानगी में कोई बदलाव नहीं आया.
अमरीश पुरी. अभिनय तो इनकी रगो में. डाकू बने तो लगा इससे बड़ा डकैत तो कोई हो ही नहीं सकता.
खलनायक के किरदार में प्राण फूंकने का मंत्र जानते थे प्राण. डकैती की दुनिया में डैनी का डंका बजता है.
कौन कहता है कि डाकू विलेन होते हैं, अमिताभ बच्चन, विनोद ख्नन्ना, मिथुन जैसे सितारे भी डाकू बने हैं, और बॉलीवुड गवाह है कि जब जब ये डाकू बने बॉक्स ऑफिस पर धमाका हुआ है.
ये डाकू सुपरस्टार है. ये वो सितारे हैं जिन्होंने डाकू को रॉबिन हुड की तरह पेश किया. ये डाकू नहीं बागी थे.
अमिताभ बच्चन को जब गांव से खदेड़ दिया तो उन्होंने बंदूक उठा ली. अमजद खान को सबक सिखाने की गंगा की सौगंध खाई. फिल्म ने 1978 में रिकॉर्ड तोड़ कमाई की.
मेरा गांव मेरा देश. बंदूक तो विनोद खन्ना ने भी उठाई. डाकू बने विनोद खन्ना का ये काला लिबास और काला तिलक और ये तेवर उनके करियर में मील का पत्थर साबित हुआ.
कभी मुन्ना भाई का नाम भी परदे पर जीवा डाकू के नाम से गूंजता था. फिल्म में जब उनका घर बार जला देते हैं उनके मां बाप की हत्या हो जाती हैं तो संजय दत्त उठा लेते है हथियार.
परदे पर डाकू बनने का मोह से शत्रुघ्न सिन्हा और गरम धरम भी खुद को दूर नहीं रख पाये.
डाकूओं को लेकर फिल्मों खूब प्रयोग किये गये. डकैत बने मिथुन का अनीताराज के साथ किया गया रोमांस बेहतरीन रोमांटिक फिल्मों में शुमार है.
इस तरह अस्की के दशक में सुपरस्टार्स ने डाकू बन पर दर्शकों के मन में उनके लिए खूब सवेंदना बटोरी.
जितना पुराना हमारा हिंदी सिनेमा है उतना ही पुराना है डाकू का रोल, कभी रॉबिनहुड तो कभी रोमियो बनकर हिंदी फिल्मों में सितारे डाकू बनकर आते रहे है.
1960 में राजकपूर की जिस देश में गंगा बहती है, 1961 में दिलीप कुमार की गंगा जमुना, 1963 सुनील दत्त की फिल्म मुझे जीने दो.
चंबल के दुर्गम बीहड़ों में जिया गया सुनील दत्त का ये किरदार सिनेमा की दुनिया में ऐतिहासिक माना जाता है. वहीदा रहमान की अदायगी की इस डकैत की कहानी को और भी ज्यादा रोचक बना दिया. कैसे इश्क में पड़कर एक डाकू आशिक बन जाता है.
पुलिस के जुल्मों सितम ने दिलीप कुमार जैसे भोले भाले इंसान को डाकू बना दिया लेकिन इंसाफ में आस्था कम नही हुई. इस डकैत ने अपने भाई को कानून का रखवाला बना दिया और खुद उसके हाथों मारा गया.
जिस देश में गंगा बहती है. इस फिल्म में राजकपूर ने अच्छाई और बुराई बीच से इंसानियत को खोज कर निकाला है.
साठ के दशक ये असर ही था सत्तर के दशक के शुरुआत में फिरोज खान जैसा स्टालिश हीरो डाकू के अपने किरदार को सबसे स्टालिश बना देता है.
इस तरह राजकपूर से लेकर इरफान खान तक परदे ने डाकुओं के साथ कभी नाइंसाफी नहीं की.